बौद्ध परिषद

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बौद्ध परिषद बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् की शताब्दियों में स्वीकृत धर्म ग्रंथों की विषय-वस्तु के वाचन और सैद्धांतिक मतभेद दूर करने के लिए बुलाई गई सभाओं में से एक। परिषदों की ऐतिहासिकता के बारे में विश्वनीय प्रमाण बहुत कम हैं और इन सभी परिषदों को सभी परंपराओं के अनुयायी मान्यता नहीं देते। कभी-कभी ये परिषदें बौद्ध समुदाय में मतभेद का कारण भी बनीं।

प्रथम परिषद

माना जाता है कि गौतम बुद्ध की मृत्यु के बाद की प्रथम वर्षा ऋतु में इस तरह की सभा सबसे पहले राजगृह (आधुनिक राजगीर, बिहार) में हुई थी। बुद्ध द्वारा प्रतिपादित 'विनय'[1] नियमों का संग्रह वरिष्ठ उपालि के निर्देशन में हुआ और सूत्रों[2] का संग्रह अनुयायी आनंद के निर्देशन में किया गया। किंतु बहुत-से विद्वान् राजगृह में सभा आयोजित होने का खंडन करते हैं।[3]

द्वितीय परिषद

दूसरी सभा बुद्ध की मृत्यु के एक शताब्दी से कुछ बाद वैशाली, बिहार में बुलाई गई। लगभग सभी विद्वान् मानते हैं कि यह सभा एक ऐतिहासिक घटना थी। यह सभा वैशाली के भिक्षुओं द्वारा अपनाए जा रहे अनुशासन के उदार नियमों से जुड़े विवाद को सुलझाने के लिए बुलाई गई थी। श्रीलंका के थेरवाद[4] परंपरा के अनुसार, भिक्षुओं की यह सभा दो विचारधाराओं के बीच बंटी हुई थी-

  • एक वे, जो वैशाली भिक्षुओं के उदार अनुशासन के समर्थक थे
  • दूसरे वे, जो इसका विरोध कर रहे थे

परिषद के अधिकतर सदस्यों ने वैशाली के नियमों के विरोध में मत दिया और इस कारण पराजित अल्पसंख्यक मिक्षु परिषद से अलग हो गए और उन्होंने 'महासंघिका' शाखा की स्थापना की। परिषद के विविध वर्णनों में भिक्षुओं के दस विवादास्पद व्यवहारों की सूची में मतांतर है, लेकिन लगता है कि ये नमक संग्रह, निर्धारित समय के बाद खाने या भिक्षा लेने, शिक्षक के व्यवहार का अनुकरण करने और भिक्षु के रूप में सोना और चाँदी स्वीकारने जैसे प्रश्नों से जुड़े थे। महासंघिका और थेरवादियों के बीच विवाद के वर्णनों से अर्हत के स्वरूप (प्रकृति) पर उठे सैद्धांतिक मतभेद भी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। शोध अध्ययनों से पता चलता है कि परिषद का थेरवादी ब्योरा संभवत: ग़लत है, यों सभी बौद्ध परंपराओं के ब्योरों को लेकर असहमति है।[3]

तृतीय परिषद

तीसरी परिषद सम्राट अशोक के समय लगभग 247 ई. पू. राजधानी पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना, बिहार) में हुई, जो संभवत: केवल थेरवादियों की सभा बनकर रह गई। उस समय तक उपासक, मठ के अनुशासन की अलग-अलग व्याख्या करते हुए विभिन्न मतों और उपमतों में बंट चुके थे; इसलिए विभिन्न मतों के भिक्षुकों के लिए पाक्षिक 'उपोसथ' समारोह संयुक्त रूप से कर पाना कठिन हो गया था। क्योंकि इसके लिए भिक्षु को किसी नियम का उल्लंघन होने पर उसका पूर्व-स्वीकार आवश्यक था। हो सकता है इसी कठिनाई की वजह से शायद तीसरी परिषद की बैठक बुलाए जाने की आवश्यकता पड़ी। ऐसे बौद्ध भिक्षु, जो स्वयं को विभाज्यवादी[5] घोषित नहीं कर पाए थे, इस सभा से निर्वासित कर दिए गए। 'अभिधम्मपिटक'[6] की पांचवी पुस्तक में तीसरी परिषद द्वारा विधर्मी ठहराए गए भिक्षुओं के विचारों का परीक्षण और खंडन शामिल है।

'सर्वास्तिवाद'[7] मत के ऐतिहासिक अभिलेखों में अशोक की पारिषद का कोई उल्लेख नहीं है, जिसे इनमें तीसरी परिषद कहा गया है और जिसके बारे में थेरवादी मौन हैं। इनके अनुसार यह परिषद कुषाण शासक कनिष्क के समय में जालंधर (पंजाब) या कुछ अन्य सूत्रों के अनुसार कश्मीर में बुलाई गई थी। कनिष्क के शासनकाल की तिथियों की अनिश्चितता से परिषद की तिथि निर्धारित करना भी उतना ही कठिन है। किंतु लगता है कि यह लगभग 100 ई. में हुई थी। जाने-माने विद्वान् वसुमित्र को इस परिषद का अध्यक्ष बनाया गया था और एक परंपरा के अनुसार, उन्हीं के निर्देशन में धार्मिक ग्रंथों के भाष्य लिखे गए थे तथा उनकी प्रतिलिपियां स्तूपों में रखी गई थीं।[3]

आधुनिक काल में आयोजन

आधुनिक काल में छठी उल्लेखनीय बौद्ध परिषद का आयोजन गौतम बुद्ध की 2500वीं[8] पुण्य तिथि के अवसर पर मई, 1954 से मई, 1958 के बीच यांगून (रंगून) में किया गया था। इस बैठक में म्यांमार (बर्मा), भारत, श्रीलंका, नेपाल, कंबोडिया, थाइलैंड, लाओस और पाकिस्तान के भिक्षु-समूह द्वारा समस्त पालि थेरवाद विधि ग्रंथों की समीक्षा तथा पाठ किया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भिक्षु अनुशासन
  2. निर्देशि परिभाषाओं
  3. 3.0 3.1 3.2 भारत ज्ञानकोश, खण्ड-4 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 88 |
  4. पूर्वज का मार्ग
  5. 'विश्लेषण सिद्धांत' के अनुयायी, संभवत: थेरवादी
  6. विद्वता का पिटारा; थेरवाद विधि का एक अंग
  7. सिद्धांत, कि सब यथार्थ है
  8. थेरवाद इतिहास के अनुसार

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