माध्यमिक दर्शन

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माध्यमिक दर्शन (शून्यवाद)

परिभाषा

  • सत्त्व (सत्ता) और असत्त्व (असत्ता) के मध्य में स्थित होना 'माध्यमिक' शब्द का अर्थ है अर्थात सभी धर्म परमार्थत: (सत्यत:) सत नहीं हैं और संवृतित: (व्यवहारत:) असत भी नहीं हैं- ऐसी जिनकी मान्यता है, वे 'माध्यमिक' कहलाते हैं।
  • माध्यमिकों के भेद-माध्यमिक दो प्रकार के होते हैं, यथा-
  1. स्वातन्त्रिक माध्यमिक एवं
  2. प्रासंगिक माध्यमिक।
  • 'स्वातन्त्रिक' और 'प्रासंगिक'- यह नामकरण भोट देश के विद्वानों द्वारा किया गया है। भारतीय मूल ग्रन्थों में यद्यपि उनके सिद्धान्तों की चर्चा और वाद-विवाद उपलब्ध होते हैं, किन्तु उपर्युक्त नामकरण उपलब्ध नहीं होता।

स्वातन्त्रिक माध्यमिक

व्यावहारिक सत्ता की स्थापना में मतभेद के कारण इनके भी दो भेद होते हैं, यथा-

  1. सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक एवं
  2. योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक।

सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक
ये लोग व्यवहार की स्थापना प्राय: सौत्रान्तिक दर्शन की भाँति करते हैं। इसलिए इन्हें 'सौत्रान्तिक स्वातन्त्रिक माध्यमिक' भी कहते हैं अर्थात अठारह धातुओं में संग्रहीत धर्मों की स्थापना व्यवहार में ये सौत्रान्तिकों की भाँति करते हैं। आचार्य भावविवेक या भव्य एवं ज्ञानगर्भ आदि इस मत के प्रमुख आचार्य हैं।

  • विचार बिन्दु— इनके मतानुसार व्यवहार में बाह्यार्थ की सत्ता मान्य है। इन्द्रियज ज्ञान मिथ्याकार नहीं होते, अपितु सत्याकार होते हैं। वे (ज्ञान) अपने विषय के आकार को ग्रहण करते हुए उन (विषयों) का ग्रहण करते हैं।
  • सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक पूर्वापरकालिक कार्यकारणभाव मानते हैं, समकालिक नहीं अर्थात कारण और कार्य का एक काल में (युगपद्) समवस्थान नहीं होता।
  • दशभूमक सूत्र के 'चित्तमात्रं भो जिनपुत्रा यदुत त्रैधातुकम्[1]' इस वचन का अर्थ ये लोग ऐसा नहीं मानते कि इसके द्वारा बाह्यार्थ का निराकरण और चित्तमात्रता की स्थापना की गई है, अपितु इस वचन के द्वारा चित्त से अतिरिक्त कोई ईश्वर, महेश्वर आदि इस लोक का कर्ता है, जैसा तैर्थिक (बौद्धेतर दार्शनिक) मानते हैं, उस (मान्यता) का खण्डन किया गया है, बाह्यार्थ का नहीं।
  • लंकावतार सूत्र के :

दृश्यं न विद्यते बाह्यं चित्तं चित्रं हि दृश्यते।
देहभोगप्रतिष्ठानं चित्तमात्रं वदाम्यहम्॥ -(लंकावतार, 3:33)[2]

  • इस वचन का अभिप्राय भी बाह्यार्थ के निषेध में नहीं है, अपितु बाह्यार्थ की परमार्थत: सत्ता नहीं है- इतना मात्र अर्थ है। इतना ही नहीं, जितने भी सूत्रवचन विज्ञप्तिमात्रता का प्रतिपादन करते हुए से दृष्टिगोचर होते हैं, भावविवेक के मतानुसार उनका वैसा अर्थ नहीं है। अर्थात् विज्ञाप्तिमात्रता किसी भी सूत्र का प्रतिपाद्य अर्थ नहीं है।
  • स्वलक्षणपरीक्षा— विज्ञानवादियों के मतानुसार प्रज्ञापारमितासूत्रों में प्रतिपादित सर्वधर्मनि:स्वभावता का तात्पर्य यह है कि परिकल्पितलक्षण लक्षणनि:स्वभाव हैं, परतन्त्रलक्षण उत्पत्तिनि:स्वभाव हैं तथा परिनिष्पन्नलक्षण परमार्थनि:स्वभाव हैं।
  • भावविवेक विज्ञानवादियों से पूछते हैं कि उस परिकल्पित लक्षण का स्वरूप क्या है, जो लक्षणनि: स्वभाव होने के कारण नि:स्वभाव कहलाता है। यदि रूपादिविषयक शब्द एवं कल्पनाबुद्धि से इसका तात्पर्य है तो यह महान् अपवादक होगा, क्योंकि शब्द और कल्पनाबुद्धि पंचस्कन्धों में संग्रहीत होने वाली वस्तु हैं।
  • योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक— ये लोग नि:स्वभावतावादी माध्यमिक होते हुए भी व्यवहार की स्थापना योगाचार दर्शन की भाँति करते हैं, अत: 'योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक' कहलाते हैं। ये व्यवहार में बाह्यार्थ की सत्ता नहीं मानते, अत: तीनों धातुओं की विज्ञप्तिमात्र व्यवस्थापित करते हैं। आचार्य शान्तरक्षित, कमलशील आदि इस मत के प्रमुख आचार्य हैं। इनके सिद्धान्त इस प्रकार हैं, यथा-
  1. परमार्थत: पुद्गल और धर्मों की स्वभावसत्ता पर विचार,
  2. व्यवहारत: बाह्यार्थ की सत्ता पर विचार,
  3. आर्यसन्धिनिर्मोचनसूत्र का वास्तविक अर्थ तथा
  4. परमार्थत: सत्ता का खण्डन करने वाली प्रधान युक्ति का प्रदर्शन।

परमार्थत: पुद्गल और धर्मों की स्वभावसत्ता पर विचार
आर्य सन्धिनिर्मोचनसूत्र में लक्षणनि:स्वभावता एवं उत्पत्तिनि:स्वभावता की चर्चा उपलब्ध होती है। उसकी जैसी व्याख्या आचार्य भावविवेक करते हें, उसी तरह का अर्थ मध्यमकालोक में भी वर्णित है, अत: ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य शान्तरक्षित भी व्यवहार में स्वलक्षणत: सत्ता स्वीकार करते हैं। ज्ञात है आचार्य शान्तरक्षित ही इस मत के पुर:स्थापक हैं। इनके मत में भी वे ही युक्तियाँ प्रयुक्त हैं, जिनका आचार्य धर्मकीर्ति के सप्त प्रमाणशास्त्रों में कार्य-कारण की स्थापना के सम्बन्ध में उल्लेख किया गया। इससे प्रतीत होता है कि ये व्यवहार में स्वभावसत्ता मानते हैं। फलत: इनके मतानुसार पुद्गल और धर्मों की परमार्थत: सत्ता नहीं होती, किन्तु उनकी व्यवहारत: सत्ता मान्य है।

व्यवहारत: बाह्यार्थ सत्ता पर विचार
आचार्य शान्तरक्षित ने अपने मध्यमकालङ्कार भाष्य में कार्य और कारण की सांवृतिक सत्ता के स्वरूप पर विचार किया है। उन्होंने वहाँ यह पूर्वपक्ष उपस्थित किया है कि संवृतिसत् धर्म मात्र चित्तचैत्तात्मक (विज्ञप्तिमात्रात्मक) हैं या उनकी बाह्यार्थत: सत्ता होती हैं? इसका समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है कि उनकी बाह्यार्थत: सत्ता कथमपि नहीं होती अर्थात् उनकी बाह्यात: सत्ता मानना नितान्त युक्तिविरुद्ध है। इसके लिए उन्होंने सहोपलम्भ युक्ति का वहाँ प्रयोग किया है तथा स्वप्न, माया आदि दृष्टान्तों के द्वारा व्यवहारत: उनकी विज्ञप्तिमात्रात्मकता प्रतिपादित की है।

आर्यसन्धिनिर्मोचनसूत्र का वास्तविक अर्थ
'परिकल्पितलक्षण लक्षणनि:स्वभाव हैं तथा अवशिष्ट दोनों लक्षण अर्थात परतन्त्र और परिनिष्पन्न लक्षण वैसे नहीं हैं'- आर्यसन्धिनिर्मोचन के इस वचन का आचार्य शान्तरक्षित यह अर्थ ग्रहण करते हैं कि परतन्त्र लक्षण और परिनिष्पन्न लक्षण लक्षणनि:स्वभाव नहीं है, अपितु उनकी स्वलक्षण सत्ता है। किन्तु उनकी वह स्वलक्षण सत्ता पारमार्थिक नहीं, अपितु व्यावहारिक (सांवृतिक) है। परतन्त्र और परिनिष्पन्न की परमार्थत: सत्ता मानना नितान्त परिकल्पित है और उस परिकल्पित की परमार्थत: सत्ता शशश्रृङ्गवत् सर्वथा अलीक है। आशय यह है कि परतन्त्र और परिनिष्पन्न की परमार्थत: सत्ता परिकल्पित है और वह परिकल्पित लक्षणनि:स्वभाव (शशश्रृङ्गवत्) है। विज्ञान के गर्भ में उनकी व्यावहारिक (संवृतित:) स्वलक्षणसत्ता मानने में आपत्ति नहीं है। जो आकाश आदि परिकल्पितलक्षण हैं, वे शशश्रृङ्गवत् सर्वथा अलीक नहीं हैं, अपितु उनकी सांवृतिक सत्ता होती है। पारमार्थिक सत्ता की तो सांवृतिक सत्ता भी नहीं है।

परमार्थत: सत्ता का खण्डन करने वाली प्रधान युक्ति
ज्ञात है कि माध्यमिक शून्यतावादी हैं। शून्यता के द्वारा जिसका निषेध किया जाता है, उस निषेध्य का पहले निश्चय कर लेना चाहिए। तभी शून्यता का स्वरूप स्पष्ट होता है, क्येंकि निषेध्य का निषेध ही शून्यता है। निषेध्य में फ़र्क़ होने के कारण माध्यमिकों के आन्तरिक भेद होते हैं। अत: इस मत के अनुसार निषेध्य के स्वरूप का निर्धारण किया जा रहा है।

प्रासंगिक माध्यमिक

जो माध्यमिक केवल 'प्रसंग' का प्रयोग करते हैं, वे प्रासंगिक माध्यमिक कहलाते हैं। सभी भारतीय दर्शनों में स्वपक्ष की स्थापना और परपक्ष के निराकरण की विधा दृष्टिगोचर होती हैं माध्यमिक सभी धर्मों को नि:स्वभाव (शून्य) मानते हैं। प्रासंगिक माध्यमिकों का कहना है कि जब हेतु, साध्य, पक्ष आदि सभी शून्य है तो ऐसी स्थिति में यह उचित नहीं है कि शून्यता को साध्य बनाकर उसे हेतु प्रयोग आदि के द्वारा सिद्ध किया जाए। इस स्थिति में एक ही उपाय अवशिष्ट रहता है कि जो दार्शनिक हेतुओं के द्वारा वस्तुसत्ता सिद्ध करते हैं, उनके प्रयोगों (अनुमानप्रयोगों) में दोष दिखाकर यह सिद्ध किया जाए कि उनके साधन उनके साध्य को सिद्ध करने में असमर्थ हैं। इस उपाय से जब स्वभाव सत्ता (वस्तुसत्ता) सिद्ध नहीं होगी तो यही नि:स्वभावता की सिद्धि होगी अर्थात स्वभावसत्ता का निषेध ही नि:स्वभावता की सिद्धि है। इसलिए परपक्ष का निराकरण मात्र माध्यमिक को करना चाहिए। स्वतन्त्र रूप से हेतुओं का प्रयोग करके स्वपक्ष की सिद्धि करना माध्यमिकों के विचारों के वातावरण के सर्वथा विपरीत है। अत: परपक्ष निराकरण मात्र पर बल देने के कारण ये लोग 'प्रासंगिक' माध्यमिक कहलाते हैं। जबकि भावविवेक, शान्तरक्षित आदि माध्यमिक आचार्य इन विचारों से सहमत नहीं हैं, उनका कहना है कि सभी धर्मों के परमार्थत: नि:स्वभाव (शून्य) होने पर भी व्यवहार में उनकी सत्ता होती है, अत: स्वतन्त्र रूप से हेतु, दृष्टान्त आदि का प्रयोग करके शून्यता की सिद्धि की जा सकती है। अत: ये लोग 'स्वातन्त्रिक' माध्यमिक कहलाते हैं। ज्ञात है कि प्रासंगिक व्यवहार में भी वस्तु की सत्ता नहीं मानते। इन्हीं उपर्युक्त बातों के आधार पर स्वातन्त्रिक और प्रासंगिक माध्यमिकों ने अपने-अपने ढंग से अपने-अपने दर्शनों का विकास किया है।

धर्मनैरात्म्य

  • आचार्य बुद्धपालित का कहना है कि इन सब वचनों के द्वारा भगवान ने सभी धर्मों को अनात्म कहा है। उन्हें माया, मरीचि, स्वप्न एवं प्रतिबिम्ब की तरह कहा है। इन सभी संस्कारों में तथ्यता अर्थात सस्वभावता नहीं है, सभी मिथ्या और प्रपंजात्मक है- ऐसा कहा है।
  • बुद्धपालित कहते हैं कि यहाँ 'अनात्म' शब्द नि:स्वभाव के अर्थ में है, क्योंकि 'आत्मा' शब्द स्वभाववाची है। इसलिए 'सभी धर्म अनात्म हैं' का अर्थ 'सभी धर्म नि:स्वभाव हैं'- यह होता है। उपर्युक्त बुद्धवचन हीनयान पिटक में भी हैं, अत: वहाँ भी धर्मनैरात्म्य सप्रतिपादित हैं।
  • आचार्य चन्द्रकीर्ति भी बुद्धपालित के उपर्युक्त व्याख्यान से सहमत हैं। उनका भी कहना है कि श्रावकपिटक में भी धर्मनैरात्म्य प्रतिपादित है।

पुद्गलनैरात्म्य

  • वैभाषिक से लेकर स्वातन्त्रिक माध्यमिक पर्यन्त सभी स्वयूथ्य सिद्धान्तवादियों के मत में यह माना जाता है कि 'पुद्गल स्कन्धों से भिन्न लक्षणवाला, स्वतन्त्र एवं द्रव्यसत् नहीं हैं'। इसे (पृथक् द्रव्यत: सत्ता के अभाव को) ही वे 'पुद्गलनैरात्म्य' कहते हैं।
  • उनका यह भी कहना है कि आत्मदृष्टि 'अहम्' के आश्रय (आधार) आत्मा को स्कन्धों के स्वामी की भाँति तथा स्कन्धों को उसके दास की भाँति ग्रहण करती है। क्योंकि 'मेरा रूप, मेरी वेदना, मेरी संज्ञा' इत्यादि प्रकार से ग्रहण किया जाता है, इसलिए वे स्कन्ध उस आत्मा के हैं और इसलिए वे आत्मा के अधीन हैं। इसलिए आत्मदृष्टि पाँचों स्कन्धों को आत्मा के अधीन रूप में ग्रहण करती है। अत: स्वामी की भाँति, स्कन्धों से पृथक् लक्षण वाले, स्वतन्त्र आत्मा का जैसा अवभास (प्रतीति) होता है तथा उसी के अनुरूप उसका 'सत' के रूप में जो अभिनिवेश किया जाता है, वैसा अभिनिवेश ही पुद्गल को 'द्रव्यसत' ग्रहण करने का आकार-प्रकार है। पुद्गल की उस प्रकार की द्रव्यसत्ता का खण्डन हो जाने पर 'पुद्गल' स्कन्धों में उपचरितमात्र या आरोपित मात्र रह जाता है। 'मात्र' शब्द द्वारा पुद्गल की स्कन्धों से भिन्नार्थता का निषेध किया जाता है।
  • 'शास्त्रों में की गई तत्त्व मीमांसा विवाद-प्रियता के लिए नहीं, अपितु विमुक्ति (मोक्ष या निर्वाण) के लिए की गई है'- चन्द्रकीर्ति के मध्यमकावतार में उक्त इस वचन के अनुसार माध्यमिक शास्त्रों में वस्तुस्थिति की जितनी भी युक्तिपूर्वक परीक्षाएं की गई हैं, वे सभी प्राणियों के मोक्ष लाभ के लिए ही की गई हैं।
  • पुद्गल एवं धर्मों के प्रति स्वभावाभिनिवेश के कारण ही सभी प्राणी संसार में बंधे हुए हैं। 'अहम् अस्मि' (मैं हूँ) इस प्रकार की बुद्धि के आलम्बन पुद्गल एवं उसके सन्ततिगत धर्म हैं, उन (पुद्गल एवं धर्म) दोनों में पुद्गलात्मा और धर्मात्मा नामक आत्मद्वय का जो अभिनिवेश होता है, वहीं संसार में बाँधनेवाला प्रमुख बन्धन है। अत: जिन पुद्गल एवं धर्मों में आत्मा (पुद्गलात्मा और धर्मात्मा) के रूप में ग्रहण होता है, युक्ति द्वारा निषेध करने के भी मुख्य आधार वे दो ही होते हैं। अत: सभी युक्तियाँ इन दो आत्माओं की निषेधक के रूप में ही संग्रहीत होती हैं।
  • शास्त्रकारों ने एकानेक स्वभावरहितत्त्व [3], वज्रकणयुक्ति [4], सदसदनुपपत्तियुक्ति [5], चतुष्कोटिकोत्पादानुपपत्तियुक्ति [6] तथा प्रतीत्यसमुत्पादयुक्ति [7] आदि अनेक युक्तियों का शास्त्रों में वर्णन किया है।
  • दशभूमकसूत्र में दस समताओं द्वारा षष्ठभूमि में अवतरित होने की देशना की गई है। सर्वधर्म-अनुत्पाद के रूप में समता का प्रतिपादन करने से अन्य समताओं का प्रतिपादन सुकर हो जाता है- ऐसा सोचकर आचार्य नागार्जुन ने मूलामध्यमिककारिका में :

न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुत:।
उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावा: क्कचन केचन॥

इस कारिका को प्रस्तुत किया है। फलत: धर्मनैरात्म्य (शून्यता) को सिद्ध करने की प्रमुख युक्ति उनके अनुसार यही चतुष्कोटिकोत्पादानुपपत्ति युक्ति ही है।

  • यह चतुष्कोटिक उत्पाद की अनुपत्ति भी प्रतीत्यसमुत्पाद से ही सिद्ध होती है, क्योंकि वस्तुओं की अहेतुक, ईश्वर, प्रकृति, काल आदि विषमहेतुक तथा स्वत:, परत: एवं उभयत: उत्पत्ति उनके प्रतीयसमुत्पन्न होने से सम्भव नहीं हो पाती। वस्तुओं के प्रतीत्यसमुत्पन्न होने से ही अहेतुक, विषमहेतुक, स्वत: परत: उत्पाद आदि को ये कल्पनाएं युक्ति द्वारा परीक्षाक्षम नहीं हो पातीं। इसलिए इस प्रतीत्यसमुत्पाद युक्ति के द्वारा कुदृष्टि के समस्त जानों का समुच्छेद किया जाता है।
  • अंकुर आदि बाह्य वस्तुएं और संस्कार आदि आन्तरिक वस्तुएं क्रमश: बीज आदि तथा अविद्या आदि हेतुओं पर निर्भर होकर ही उत्पन्न होती हैं। यही कारण है कि उनके उत्पाद आदि सभी स्वलक्षणत: सिद्ध स्वभाव से शून्य हैं तथा वे स्वत: परत:, उभयत:, अहेतुत: या विषमहेतुत: उत्पन्न नहीं होते। इस तरह उनके स्वभावत: होने का निषेध किया जाता है। अत: समस्त कुदृष्टि जालों का उच्छेद करने वाली तथा परमार्थसत्ता का निषेध करने वाली प्रधान युक्ति प्रतीत्यसमुत्पाद ही है। प्रासंगिक माध्यमिक तो इसे युक्तिराज कहते हैं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्थात बोधिसत्त्वों, ये तीनों अर्थात काम, रूप और अरूप धातुएं चित्तमात्र हैं
  2. अर्थात बाह्य दृश्य (अर्थ) विद्यमान नहीं हैं, चित्त ही विविध आकार में दिखलाई पड़ता है। देह, भोग, भाजन आदि सब कुछ चित्तमात्र हैं- ऐसा मैं कहता हूँ।
  3. यदि आत्मा और स्कन्ध एक है तो वे दोनों अत्यन्त अभिन्न हो जाएंगे। फलत: जैसे स्कन्ध अनेक हैं, वैसे आत्मा को भी अनेक मानना पड़ेगा अथवा जैसे आत्मा एक है, वैसे स्कन्धों को भी एक मानना पड़ेगा। स्कन्धों की भाँति आत्मा भी अनित्य हो जाएगा। अथवा आत्मा की भाँति स्कन्ध भी नित्य हो जाएंगे। यदि आत्मा और स्कन्ध भिन्न हैं तो युक्तियों द्वारा उन्हें सर्वथा भिन्न ही रहना चाहिए। ऐसी स्थिति में शरीर के रुग्ण या जीर्ण होने पर मैं 'रुग्ण हूँ जीर्ण हूँ' – इस प्रतीति से विरोध होगा अर्थात ऐसी प्रतीति नहीं होनी चाहिए। भेद के इस सिद्धान्त को वादी कल्पित नहीं मानता, अत: वह ऐसा नहीं कह सकता कि यह भिन्नता प्रातिभासिक दृष्टि से है। पुनश्च उसे आत्मा को पृथक् दिखलाना होगा।
  4. रूप आदि वस्तुएं, स्वभावत: अनुत्पन्न हैं, स्वत: परत: उभयत: एवं अहेतुक: उत्पन्न न होने से।
  5. रूप आदि वस्तुएं, स्वभावत: अनुत्पन्न हैं, हेतु के काल में सत् अथवा असत् होते हुए उत्पन्न न होने से।
  6. रूप आदि वस्तुएं, स्वभावत: अनुत्पन्न हैं, एक हेतु से अनेक फल, अनेक हेतुओं से एक फल, अनेक हेतुओं से अनेक फल तथा एक ही हेतु से एक फल उत्पन्न न होने से
  7. रूप आदि धर्म, नि:स्वभाव हैं, प्रतीत्यसमुत्पन्न होने से।

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