भिक्कु

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भिक्कु अथवा 'भिक्षु' बौद्ध धर्म में उसे कहा जाता है, जिसने सांसारिक जीवन त्याग दिया हो और भिक्षावृत्ति एवं चिंतनशील समुदाय में सम्मिलित हो गया हो। 'भिक्कु' पालि शब्द है, इसका स्त्रीलिंग भिक्कुनी है; जबकि संस्कृत में इसका स्त्रीलिंग भिक्षुणी है।

दीक्षा

बौद्ध धर्म में एक व्यक्ति, हालांकि मठ के जीवन में अल्पायु में ही प्रवेश कर सकता है। कुछ संन्यासी समुदाय छोटे किशोरों को भी प्रवेश देते हैं, लेकिन भिक्षु की दीक्षा लेने के इच्छुक व्यक्ति की आयु 21 वर्ष से अधिक तथा उसके अभिभावकों की सहमति होनी चाहिए। उसे शरीर और मस्तिष्क से स्वरूप और ऋण मुक्त होना चाहिए। 'भिक्कु', 'भिक्षा' (याचना) धातु से निकला है। इस प्राकर बौद्ध भिक्षु अथवा भिक्षुणी प्राथमिक रूप में भौतिक विश्व से कोई लगाव नहीं रखते और निर्धनता में रहते हैं। प्रारंभ में भिक्कु बुद्ध के भिक्षुक शिष्य होते थे[1]), जो अपने परिवार और सांसारिक कामनाओं को त्याग देते थे, ताकि वे उपासना और बुद्ध की शिक्षाओं का दैनिक जीवन में पालन कर सकें।[2]

स्त्रियों का प्रवेश

भिक्कु समूह बनाकर गांवों और नगरों के निकट वन-आवासों में रहने लगे थे। भोजन के बदले वे नागरिकों को धार्मिक औचित्य के मार्गों (धम्म; संस्कृत, धर्म) की शिक्षा देने लगे। बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि शुरू में बुद्ध ने मठ समुदाय (संघ) में केवल पुरुषों के प्रवेश की अनुमति दी, लेकिन बाद में स्त्रियों को भी संकल्प दीक्षा लेने की अनुमाति दे दी, तथापि स्त्रियों की संघ व्यवस्था कभी भी इतनी विशाल नहीं बनी, जितनी पुरुषों की थी।

चार नियम

भिक्कु को मठ के दैनिक जीवन को नियंत्रित करने वाली संहिता के सभी नियमों[3] का पालन करना चाहिए। भिक्कुनियों को तो और भी अधिक नियमों का पालन करना होता है। संहिता के उल्लंघन के बारे में माह में दो बार होने वाली भिक्षुओं की बैठक (उपोसथ) में भूल स्वीकारना आवश्यक है। मठ के चार नियमों के उल्लंघन पर संघ से जीवन भर के लिए निष्कासित किया जाता है। ये वर्जनाएं हैं-

  1. यौन सबंध रखना
  2. प्राण लेना या इसका आदेश देना
  3. ऐसी वस्तु को अपनाना, जो नि:शुल्क नहीं दी गई हो
  4. अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों, शक्तियों अथवा बोध की श्रेणी के बारे में दावा करना

भिक्कु का वस्त्र

भिक्कु के सिर और चेहरे के बाल पूरी तरह साफ़ कर दिए जाते हैं। वह तीन कपड़े (चीवर) पहनते हैं। ऊपर और नीचे का वस्त्र व एक चादर। सामान्यत: किसी व्यक्ति द्वारा उपहार में दिए गए या त्यागे गए केसरिया रंग में रंगे कपड़े, उन्हें कम से कम सामान रखने की अनुमति होती है, जैसे- उनके वस्त्र और चादर, कमरबंद, भिक्षापात्र, उस्तरा, टांका लगाने के लिए सुई-धागा और पेयजल को कीटाणुओं से बचाने के लिए छलनी।[2]

भोजन

भिक्कु अपने भोजन के लिए रोज़ भिक्षा मांगते हैं; आम आदमी से भोजन की भिक्षा लेना पुण्य माना जाता है। भिक्कु दोपहर और अगली सुबह तक ठोस आहार नहीं ले सकते। यदि ख़ासतौर पर भिक्षु के लिए बनाया गया हो, तो पवित्र दिनों के अलावा मांस खाया जा सकता है।

लेनदेन और शरीरिक श्रम

दक्षिण पूर्ण एशिया के थेरवादी देशों में भिक्षु को आमतौर पर धनराशि के लेनदेन और शरीरिक श्रम करने की मनाही है। चीन और जापान में ऐसा नहीं है, जहाँ चान (ज़ेन) ने नियम बनाया था कि "जिस दिन काम नहीं, उस दिन भोजन नहीं"।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छठी शताब्दी ई.पू.
  2. 2.0 2.1 भारत ज्ञानकोश, खण्ड-4 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 227 |
  3. पंथ के अनुसार, 227 से 250

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