आनन्दगिरि

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आनंदगिरि अद्वैत वेदांत के एक मान्य आचार्य। इनका व्यक्तित्व अभी तक पूर्णतया प्रकाशित नहीं हुआ है। ये संभवत: गुजरात के निवासी थे और 13वीं सदी के मध्य में विद्यमान थे। कुछ लोग इन्हें 14वीं सदी में भी वर्तमान मानते हैं। इसी प्रकार शंकरविजय के लेखक के रूप में भी एक आनंदगिरि का स्मरण किया जाता है जो शंकराचार्य के कनिष्ठ समकालीन थे। इस दृष्टि से वे नवीं शती में विद्यमान हो सकते हैं। इन्हें शंकराचार्य का शिष्य भी कहा जाता है। टीकाकार आनंदगिरि ने अनुभूतिस्वरूपाचार्य और शुद्धानंद का भी शिष्यत्व ग्रहण किया था। ये द्वारिकापीठाधीश भी थे। इनके प्रधान शिष्य अखंडानंद थे जिन्होंने प्रकाशात्मन्चरित पंचपादिका विवरण नामक ग्रंथ पर 'तत्वदीपन' नामक टीका लिखी थी। शंकराचार्य के शिष्य आनंदगिरि के एक प्रसिद्ध समकालीन के रूप में प्रकाशानंद यति का नाम लिया जाता है। इनके अनेक नाम मिलते हैं, जैसे आनंदतीर्थ, अनंतानंदगिरि, आनंदज्ञान, आनंदज्ञानगिरि, ज्ञानानंद आदि। अभी तक ठीक पता नहीं चलता कि ये विभिन्न अभिधान एक ही व्यक्ति के हैं अथवा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का एकत्र सम्मिश्रण है। आनंदगिरि की एक प्रख्यात प्रकाशित रचना रचना है 'शंकरदिग्विजयद्', जिसमें आदिशंकर के जीवचरित का वर्णन बड़े विस्तार से नवीन तथ्यों के साथ किया गया है। परंतु ग्रंथ की पुष्पिका में ग्रंथकार का नाम सर्वत्र 'अनंतानंदगिरि' दिया हुआ है। फलत: ये आनंदगिरि से भिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं। इस दिग्विजय में आचार्य शंकर का संबंध कामकोटि पीठ के साथ दिखलाया गया है और इसलिए अनेक विद्वान्‌ इसे श्रृंगेरी पीठ की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा को देखकर कामकोटि पीठ के अनुयायी किसी संन्यासी की रचना मानते हैं। आनंदगिरि (आनंदज्ञान) का 'बृहत्‌ शंकरविजय' प्राचीनतम तथा प्रामाणिक माना जाता है, जो इससे सर्वथा भिन्न है। यह ग्रंथ अप्राप्य है। धनपति सूरि ने माधवीय शंकरदिग्विजय की अपनी टीका में इस ग्रंथ से लगभग 1350 श्लोक उद्धृत किए हैं।

आनंदज्ञान का ही प्रख्यात नाम आनंदगिरि है। इन्होंने शंकराचार्य की गद्दी सुशोभित की थी। कामकोटि पीठवाले इन्हें अपने मठ का अध्यक्ष बतलाते हैं, उधार द्वारिका पीठवाले अपने मठ का। इनका आविर्भावकाल 12वीं शताब्दी माना जाता है। ये अद्वैत को लोकप्रिय तथा सुबोध बनानेवाले आचार्य थे और इसीलिए इन्होंने शंकराचार्य के प्रमेयबहुलभाष्यों पर अपनी सुबोध व्याख्याएँ लिखीं। बह्मसूत्र शांकरभाष्य की इनकी टीका 'न्यायनिर्णय' नाम से प्रसिद्ध है। शंकर की गीताभाष्य पर भी इनकी व्याख्या नितांत लोकप्रिय है। सुरेश्वर के 'बृहदारण्यक भाष्यवार्तिक' के ऊपर आनंदगिरि की टीका इनके प्रौढ़ पांडित्य का निदर्शन है। इन्होंने आचार्य के उपनिषद्भाष्यों पर भी अपनी टीकाएँ निर्मित की हैं। इस प्रकार अद्वैत वेदांत के इतिहास में शंकराचार्य के साथ व्याख्याता रूप में आनंदगिरि का नाम अमिट रूप से संबद्ध है।[1]

आनंदगिरि ने अनेकानेक टीका ग्रंथ लिखे हैं-'ईशावास्यभाष्य टिप्पण', 'केनोपनिषद्भाष्यटिप्पण', 'वाक्यविवरणाव्याख्या', 'कठोपनिषद्भाष्यटीका', 'मुंडकभाष्व्याख्यान', 'मांडूक्य गौडपादीयभाष्यव्याख्या', 'तैत्तिरीयभाष्यटिप्पण', 'छांदोग्यभाष्यटोका', 'तैत्तिरीयभाष्यवार्तिकटीका', 'शास्प्रकाशिका', 'बृहदारण्यकभाष्यवार्तिकटीका', 'बृहदारण्यकभाष्यटीका', 'शारीरक भाष्यटीका' (अथवा न्यायनिर्णय), 'गीताभाष्यविवेचन', 'पंचीकरण विवरण', 'तर्कसंग्रह', 'उपदेशसाहस्रीविवृत्ति', 'वाक्यवृत्तिटीका',, 'आत्मज्ञानोपदेशटीका', 'त्रिपुरीप्रकरणटीका', 'पदार्थनिर्णयविवरण', तथा 'तत्वालोक'। गृहस्थाश्रम में इनका नाम जनार्दन था। उसी समय इन्होंने तत्वालोक नामक उक्त ग्रंथ लिखा था।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 373 |
  2. नारायणनाथ उपाध्याय

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