के. पी. सक्सेना

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के. पी. सक्सेना
के. पी. सक्सेना
पूरा नाम कलिका प्रसाद सक्सेना
जन्म 13 अप्रॅल, 1932
जन्म भूमि बरेली, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 31 अक्टूबर, 2013
मृत्यु स्थान लखनऊ, उत्तर प्रदेश
अभिभावक माता- दुर्गादेवी

पिता शम्भू सरन सक्सेना

कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र व्यंग्य लेखन
भाषा हिन्दी
शिक्षा स्नातकोत्तर, वनस्पतिशास्त्र, लखनऊ विश्वविद्यालय
पुरस्कार-उपाधि राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान, 2008

पद्म श्री, 2000

प्रसिद्धि व्यंग्यकार व कहानीकार
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी व्यंग्य में के. पी. सक्सेना का पदार्पण हुआ कानपुर से छपने वाली एक पत्रिका ‘मनु’ से, जो कानपुर से प्रकाशित होकर अलग-अलग शहरों में भेजी जाती थी। इस पत्रिका में उनका पहला व्यंग्य ‘तलाश एक आदमी की’ प्रकाशित हुआ।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

कलिका प्रसाद सक्सेना (अंग्रेज़ी: Kalika Prasad Saxena, जन्म- 13 अप्रॅल, 1932; मृत्यु- 31 अक्टूबर, 2013) भारतीय व्यंग्यकार व लेखक थे। 'स्वदेश', 'लगान', 'हलचल' और 'जोधा अकबर' जैसी फिल्मों की पटकथा और संवाद लिखने का कार्य उन्होंने किया था। वर्ष 2000 में के. पी. सक्सेना को 'पद्म श्री' और 2008 में 'राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान' से सम्मानित किया गया था।

परिचय

के. पी. सक्सेना का जन्म 13 अप्रॅल सन 1932 को आज़ादी से पूर्व बरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता शम्भू सरन सक्सेना सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता मुज़्ज़फर अली के पिता सज्जाद अली की रियासत कोटवारा (लखीमपुर)के दीवान हुआ करते थे और घोड़े से गिरकर उनकी मृत्यु हुई थी। उस वक़्त के. पी. सक्सेना की उम्र मात्र नौ वर्ष की थी। ये परिवार के लिए एक बड़ा सदमा था। उनकी माँ दुर्गादेवी की उम्र उस वक़्त सिर्फ अट्ठाइस वर्ष की थी।[1]

शिक्षा

पिता के देहांत के बाद के. पी. सक्सेना व उनके छोटे भाई अनिल के पालन पोषण का दायित्व मामा दुर्गा दयाल और उनकी पत्नी ने उठाया। मामा-मामी की अपनी कोई संतान नहीं थी और दोनों भाइयों की देखभाल अपनी संतान के समान ही की। मामा-मामी से मिले इस निःस्वार्थ प्यार और सहारे के लिये के वे आजीवन उनके आभारी रहे। कम उम्र में ही पिता का साया उठ जाने से वो जीवन के प्रति संवेदनशील और गंभीर हो गए थे और हमेशा उनकी यही इच्छा रही कि शीघ्र स्वयं को इस योग्य बनाएं की अपने पैरों पर खड़े हो सकें और कुछ ऐसा करें कि उनकी माँ, मामा और मामी सभी को उन पर गर्व हो।

पढ़ाई में वे बचपन से मेधावी थे। घर में लाइट न होने से असुविधा के कारण स्ट्रीट लाइट में पढ़ाई कर लिया करते थे। हाई स्कूल और इंटरमीडिएट फर्स्ट डिविज़न में उत्तीर्ण करने के बाद जब मामा ने आर्थिक परेशानियों के कारण आगे ना पढ़ा पाने की बात कही तो उन्होंने आगे की अपनी पढाई का खर्चा स्वयं ही ट्यूशन द्वारा उठाने का निर्णय लिया। साठ रुपय की दो ट्यूशन उस वक़्त वो किया करते थे जिससे अपनी और भाई की पढ़ाई का खर्च निकालते रहे और किसी भी विपरीत परिस्थिति को अपने मार्ग में अवरोध नहीं बनने दिया। लखनऊ विश्वविद्यालय से वनस्पतिशास्त्र में स्नातकोत्तर में टॉप करने के बाद क्रिस्चियन कॉलेज में दो वर्ष लेक्चरर पद पर कार्य किया।

लेखन व रेलवे की नौकरी

दो वर्ष पढ़ाने के बाद के. पी. सक्सेना को अपने इसी प्रिय विषय वनस्पतिशास्त्र पर स्नातक कक्षाओं के लिए किताबें लिखने की इच्छा जाग्रत हुई तो घर बैठकर एक दर्जन से भी अधिक वनस्पतिशास्त्र पर किताबें लिख डालीं। अतः व्यंग्य आदि साहित्यिक विधाओं से भी पहले वनस्पतिशास्त्र वो पहले विषय था जिसमें उन्हें लेखक होने का गौरव प्राप्त हुआ, उनके द्वारा लिखी गयी ये पुस्तकें स्नातक छात्रों द्वारा बहुत पढ़ी गईं। इसके बाद माँ के कहने पर ही रेलवे में आवेदन दिया क्यूंकि उनके दादा रेलवे में ही कार्यरत थे और माँ की इच्छा थी कि वो भी भारतीय रेल विभाग में ही काम करें। माँ की इस इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने स्टेशन मास्टर की नौकरी स्वीकार कर ली और नौकरी के साथ साथ परिवार की ज़िम्मेदारियों को भी पूर्ण समर्पण से निभाते रहे क्यूंकि इस वक़्त तक उनका विवाह सावित्री सक्सेना से हो चूका था। एक सच्चे जीवन साथी की भांति वो उनका साथ निभाती रहीं।

रेलवे की अपनी बेहद कठिन नौकरी को निभाते हुए भी के. पी. सक्सेना लिखने का समय निकाल लिया करते थे और एक लेखक के तौर पर उनकी बात करें तो अपने साहित्यक जीवन का आरम्भ उन्होंने अपनी नौकरी के समय में ही किया था। बतौर लेखक उन्होंने शुरुवात करी उर्दू-फ़ारसी में अफ़साने लिखने से जो उस वक़्त पाकिस्तान की प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं में छपा करते थे। इस विषय में शायद ही किसी को जानकारी होगी और ये उन्होंने स्वयं अपने एक इंटरव्यू में बताई थी।[1]

इसके पश्चात हिंदी लेखन का प्रारम्भ हुआ स्वतंत्र भारत के अख़बार में कहानी लिखने से। अपनी प्रथम कहानी पर उन्हें पांच रुपय का पारिश्रमिक भी मिला था। ये कथाएं निरंतर छपती रहीं और उन्हें और भी बेहतर लिखते रहने की प्रेरणा ईश्वरीय अनुकम्पा और अपनी मेहनत से मिलती रही। अपने दिए कई इंटरव्यू में के. पी. सक्सेना ने एक उस दौर की भी बात करी है। अक्सर जब संपादक उनकी रचनाएं वापिस लौटा दिया करते थे, पर निराश होना हारना उन्होंने सीखा ही नहीं था। अतः हमेशा इसी प्रयास में लगे रहे कि किस प्रकार अपने लेख और रचनाओं को बनाया जाए जिससे न सिर्फ़ सम्पादकों द्वारा स्वीकृति मिले बल्कि पाठकों में भी ख्याति प्राप्त हो।

पत्रिकाओं के लिये लेखन

इस स्वप्न को पूरा करने के लिए उन्होंने जी तोड़ मेहनत करी और लिखने के साथ साथ अन्य प्रतिष्ठित लेखकों को भी पढ़ते रहे और स्वयं को हर दिन निखारते रहे। धर्मयुग, मनोरमा, पराग नंदन, लोटपोट जैसी बहुचर्चित पत्रिकाओं से वे भविष्य में जुड़े जुड़े और अलग-अलग विषयों पर लिखते रहे। पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के बाद अगला पड़ाव जीवन में आया आकाशवाणी, लखनऊ से जुड़ने का, जिसका श्रेय वो अपने सबसे करीब मित्र और अपने साहित्यिक गुरु अमृतलाल नागर के बड़े सुपुत्र कुमुद नागर को देते थे जो यूनिवर्सिटी में उनके सहपाठी भी थे।

व्यंग्य में उनका पदार्पण हुआ उन दिनों कानपुर से छपने वाली एक पत्रिका ‘मनु’ से, जो कानपुर से प्रकाशित होकर अलग अलग शहरों में भेजी जाती थी। इस पत्रिका में उनका पहला व्यंग्य ‘तलाश एक आदमी की’ प्रकाशित हुआ। माँ वीणावादिनी की कृपा उन पर कुछ यूँ थी ये पहला ही व्यंग्य इतना सफ़ल और प्रसिद्ध हुआ कि सुप्रसिद्ध व्यंगकार हरिशंकर परसाई से उन्हें इस पर पुरुस्कार मिला और साथ ही की गद्य पद्धति में आगे बढ़ने की प्रेरणा भी उन्हीं से मिली। व्यंग्य के क्षेत्र में के. पी. सक्सेना अग्रणी रहे। कवि सम्मेलनों में उनके जाने से चार चाँद लग जाते थे। कवि ना होते हुए भी उन्हें गद्य विधा में हास्य व्यंग्य पढ़ने के लिए आमंत्रित करा जाता था। लखनऊ की गंगा-जमुनी तहज़ीब की झलक उनके लेख और व्यंग्य में स्पष्ट रूप से दिखती थी।

मिर्ज़ा का किरदार

के. पी. सक्सेना के व्यंग्य की शैली अनूठी थी; आम आदमी के रोज़मर्रा से जुड़ी समस्याओं, सामाजिक कुरीतियों, राजनैतिक मुद्दों को हिंदी उर्दू के मिले जुले शब्दों, अनोखी उपमाओं और खुद के गढ़े हास्यप्रद और अर्थपूर्ण मुहावरों से बड़ी सहजता से अपनी मीठी ज़ुबान में कह जाते थे, पर उनका असर सुनने वाले के दिल-ओ-दिमाग पर गहरा होता था। 'मिर्ज़ा' नाम के एक काल्पनिक दोस्त और हमउम्र उनके लेख के मुख्य किरदार हुआ करते थे, उन्ही की तरह मिर्ज़ा भी पान के मुरीद थे और हर सुख दुःख में उनके साथ रहते और उनकी मन की सब बातें समझ लेते थे। अपने सब लेख व्यंग्य उन्होंने मिर्ज़ा को केंद्र बिंदु बनाकर लिखे, मिर्ज़ा नामक ये किरदार इतना बहुचर्चित रहा कि अक्सर पाठकों-श्रोताओं को लगता कि मिर्ज़ा वास्तव में उनके कोई घनिष्ठ मित्र हैं।[1]

पहला धारावाहिक

टी वी, रेडियो, रंगमंच, व्यंग आदि सभी में उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी। टेलीविज़न पर लखनऊ दूरदर्शन के लिए के लिए पहला धारावाहिक’ बीवी नातियों वाली' उन्होंने ही लिखा जिसे देश का पहला ‘सोप ओपेरा’ होने का गौरव प्राप्त है। बीवी नातियों वाली सुपरहिट हुआ और इसने उन्हें एक अलग ही मुकाम पर पंहुचा दिया। इस धारावाहिक के माध्यम से टेलीविज़न को अपनी अनमोल देन के लिए के. पी. सक्सेना को आज भी याद करा जाता है और ये उनके जीवन में एक मील का पत्थर साबित हुआ।

उनके लिखे कई स्टेज नाटक जैसे ‘गज फुट इंच’, ’बाप रे बाप' अति लोकप्रिय रहे और आज भी इनका केवल लखनऊ ही नहीं बाहर भी मंचन होता है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चुनाव प्रसार के लिए भी के. पी. सक्सेना ने कई नाटकों का सृजन करा जो प्रसिद्ध रंगकर्मी उर्मिल कुमार थपलियाल जी के निर्देशन में बने और बहुचर्चित रहे।

पद्म श्री

  • साल 2010-2011 में मध्य प्रदेश और राजस्थान सरकार द्वारा के. पी. सक्सेना सम्मानित हुए।
  • 2012 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘हिन्दी गौरव सम्मान’, 'चक्कलस पुरस्कार’, 'काका हाथरसी पुरस्कार', 'भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार', 'बीबी नातियों वाली’ धारावाहिक के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार, आकाशवाणी का बलराज साहनी पुरस्कार, नरगिस दत्त स्मृति पुरस्कार, शिखर सम्मान, बिंब कला शिखर सम्मान, बैंकॉक में थाई साहित्य पुरस्कार, 10 रोटरी पुरस्कार।
  • फिल्म 'लगान' के लिये सर्वश्रेष्ठ संवाद के लिए 'सैन्सुई पुरस्कार' (फिल्म को ऑस्कर के लिए नामांकित किया गया था) मिला।

मृत्यु

जैसे सूर्य निकलता है और स्वर्णिम आभा से सब कुछ जीवंत और प्रकाशमान कर देता है और दिन ढलते जब अस्त होता है पीछे छोड़ जाता है अँधेरा और सन्नाटा। वैसे ही के. पी. सक्सेना भी साहित्य जगत में एक दिव्य सूर्य की भांति थे, जिसने 31 अक्टूबर, 2013 को लखनऊ के आस्था नर्सिंग होम में कैंसर से जूझते हुए सदा के लिए आँख बंद कर ली और पंचतत्व में विलीन हो गए।[1]


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