हंस कुमार तिवारी

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हंस कुमार तिवारी
हंस कुमार तिवारी
हंस कुमार तिवारी
पूरा नाम हंस कुमार तिवारी
जन्म 15 अगस्त, 1918 ई.
जन्म भूमि मानभूम[1], बंगाल
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र लेखन
मुख्य रचनाएँ ‘कला’, ‘साहित्यिका’, ‘बंगला भाषा और साहित्य’, ‘आधीरात का सवेरा’, ‘पुनरावृत्ति’, ‘आकाश पाताल’ तथा ‘समानांतर’ आदि।
भाषा हिन्दी, बंगला
प्रसिद्धि साहित्यकार, पत्रकार
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी हंस कुमार तिवारी ने विशेष रूप से बंगला साहित्य को अपने अनुवाद का विषय बनाया। उन्होंने 1936 ई. में ‘भारतेर इतिहास चित्रेओ गल्पे’ नामक पुस्तक-माला का सफल अनुवाद किया था।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

हंस कुमार तिवारी (अंग्रेज़ी: Hans Kumar Tiwari, जन्म- 15 अगस्त, 1918) प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इनकी साहित्यिक साधना की प्रथम उपलब्धि ‘कला’ नामक पुस्तक का प्रकाशन सन 1938 ई. में हुआ था। आलोचना के क्षेत्र में यह इनका प्रथम प्रयास था। तिवारी जी स्वतंत्र लेखक के साथ-साथ एक सफल पत्रकार तथा सम्पादक भी रहे। सन 1951 में वे बिहार सरकार के राजभाषा पदाधिकारी नियुक्त हुए। इसी पद पर कार्य करते हुए उन्होंने अवकाश ग्रहण किया।

जन्म तथा शिक्षा

हंस कुमार तिवारी का जन्म 15 अगस्त, सन 1918 ई. में मानभूम में हुआ था, जो पहले बिहार में था, अब बंगाल में है। इनकी प्राथमिक शिक्षा बंगाल में ही बंगला भाषा में, फिर ननिहाल में हुई। किशोरावस्था में कंधों पर परिवार का बोझ आ जाने से सन 1934 में इनकी अध्ययन का क्रम बीच में ही टूट गया।[2]

लेखन की शुरुआत

रोजी-रोटी के लिए सतत संघर्ष करते हुए हंस कुमार तिवारी ने अपने कर्मजीवन का प्रारम्भ स्वतंत्र लेखन तथा पत्रकारिता से किया। आपकी साहित्यिक साधना की प्रथम उपलब्धि ‘कला’ नामक पुस्तक का प्रकाशन सन 1938 ई. में हुआ। आलोचना के क्षेत्र में यह इनका प्रथम प्रयास था। इस कृति में लेखक ने कला के विविध पक्षों का आलोचनात्मक वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है। विषय प्रतिपादन तथा उपयोगिता की दृष्टि से इस पुस्तक का अपना एक विशिष्ट स्थान है।

पत्रकार तथा सम्पादक

तिवारी जी स्वतंत्र लेखक के साथ-साथ सफल पत्रकार तथा सम्पादक भी रहे। सन 1938-1939 में उन्होंने पटना से प्रकाशित ‘बिजली’ साप्ताहिक का सम्पादन किया तथा सन 1940-1941 में भागलपुर से एक मासिक पत्र निकाला। इसी बीच पटना के मासिक ‘किशोर’ का सम्पादन भी उन्होंने किया। सन 1943 से 1947 तक गया में ‘ऊषा’ के सम्पादक रहे। सन 1951 में बिहार सरकार के राजभाषा पदाधिकारी नियुक्त हुए और उसी पद पर कार्य करते हुए अवकाश ग्रहण किया।[2]

कृतियाँ

आलोचना के क्षेत्र में हंस कुमार तिवारी की प्रथम पुस्तक ‘कला’ सन 1938 ई. में प्रकाशित हुई। इसके बाद तीन साहित्यिक निबंध संग्रह- ‘साहित्यिका’ (1946 ई.), 'साहित्यायन' (1948 ई.) तथा ‘संचयन’ (1950 ई.) में प्रकाशित हुए। इन संग्रहों में विभिन्न साहित्यिक विषयों की सरल तथा सुबोध शैली में सुंदर विवेचना की गई है। भाषा बड़ी प्रांजल तथा प्रसाद गुण से युक्त है। ‘बंगला भाषा और साहित्य’ (1962 ई.), ‘बंगाल’ (देश परिचय, 1970 ई.) लेखक की अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं।

कविताएँ - प्रथम कविता संग्रह ‘रिम-झिम’ 1939 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद क्रमश: ‘अनागत’ (1943), ‘नवीना’ (1948) तथा ‘मकड़ी मर गई’ (1948) काव्यकृतियाँ प्रकाशित हुईं।
नाटक - ‘आधीरात का सवेरा’ (1965), ‘पुनरावृत्ति’ (1966) तथा ‘आकाश पाताल’ (1967)
कहानी - हंस कुमार तिवारी जी के दो कहानी संग्रह प्रकाशित हैं- ‘बदला’ (1941), ‘समानांतर’ (1943)

अनुवाद कार्य

हंस कुमार तिवारी ने विशेष रूप से बंगला साहित्य को अपने अनुवाद का विषय बनाया। उन्होंने 1936 ई. में ‘भारतेर इतिहास चित्रेओ गल्पे’ नामक पुस्तक-माला का सफल अनुवाद किया। उसके बाद अनुवादों की लम्बी श्रृंखला में बंगला के प्रमुख साहित्यकारों की मुख्य-मुख्य कृतियों का अनुवाद प्रस्तुत किया, जिनमें निम्नांकित साहित्यकारों की कृतियों का अनुवाद विशेष उल्लेखनीय है[2]-

  1. विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर - ‘गीतांजलि’ (पद्यानुवाद), ‘आँख की किरकिरी’, ‘साहित्य के पथ पर’
  2. शरतचंद्र चट्टोपाध्याय - ‘श्रीकांत’ (चारों भाग), ‘गृह-दाह’, ‘दत्ता’, ‘ग्रामीण समाज’, ‘देवदास’, ‘बड़ी दीदी’
  3. ताराशंकर बैनर्जी - ‘रामकमल’, ‘धरतीमाता’, ‘आरोग्य’, ‘आरती’, ‘दुनिया एक बाज़ार’, ‘कालिंदी’, ‘रति-विलास’, ‘दो पुरुष’
  4. विमल मित्र - ‘साहब, बीबी, गुलाम’
  5. शंकर - ‘योग-वियोग’
  6. हुमायू कबीर - ‘नदी और नारी’, ‘बँगला काव्य की भूमिका’
  7. मनोज बसु - ‘रात का मेहमान’, ‘सेतुबंधु’, ‘कैसे भूलूँ’
  8. विभूतिभूषण बैनर्जी - आख्यक

भाषा-शैली

तिवारी जी के अनुवादों की भाषा बड़ी साफ-सुथरी, सरल, सुबोध तथा चटपटी और वक्रतापूर्ण है। वह मूल रचना के भावों को ठीक-ठाक व्यक्त करने में पूर्ण सक्षम सिद्ध हुई है। उसमें कृत्रिम शब्दाडम्बर और समास बहुल पदावली की वे बीहड़ झाड़ियाँ नहीं हैं, जिनमें पाठक उलझ कर रह जाता है। मूल रचना के भावों तक पाठक पहुँच ही नहीं पाता। लेखक ने बड़ी ही रोचक और लोचदार शैली में मूल रचना के भावों को हृदयंगम कराने का सफल प्रयास किया है। इस प्रयास में उसे पूरी सफलता मिली है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह पहले बिहार के अंतर्गत था।
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 663 |

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