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'''गरीब दास''' (जन्म- 1717 ई., रोहतक; मृत्यु- 1835 ई.) शब्दातीत, निर्गुण-सगुण से परे [[ब्रह्मा]] के उपासक तथा 'गरीब-पंथ' के संस्थापक थे। गरीब दास को स्वप्न में कबीर साहब के दर्शन हुए और उसी क्षण से उन्होंने उन्हें अपना गुरु मान लिया। गरीब दास बड़े भावुक, शीलवान तथा श्रद्धालु व्यक्ति थे।  
'''गरीब दास''' (जन्म- 1717 ई., रोहतक; मृत्यु- 1778 ई.) शब्दातीत, निर्गुण-सगुण से परे [[ब्रह्मा]] के उपासक तथा 'गरीब-पंथ' के संस्थापक थे। गरीब दास को स्वप्न में कबीर साहब के दर्शन हुए और उसी क्षण से उन्होंने उन्हें अपना गुरु मान लिया। गरीब दास बड़े भावुक, शीलवान तथा श्रद्धालु व्यक्ति थे।  
=== परिचय ===
=== परिचय ===
संत कवि गरीबदास का जन्म [[संवत]] 1774 (1717 ई.) में [[वैशाख]] सुदी 15 को [[रोहतक|रोहतक ज़िले]] की झज्जर तहसील के छुड़ानी नामक [[ग्राम]] में हुआ था। इनके [[पिता]] जाति के जाट तथा व्यवसाय से जमीदार थे। जनश्रुति है कि गरीबदास जब 12 वर्ष की आयु के थे, उस समय भैसें चराते हुए उन्हें [[कबीर|कबीर साहब]] के दर्शन हुए थे। एक अन्य जनश्रुति यह है कि गरीबदास को स्वप्न में कबीर साहब के दर्शन हुए और उसी क्षण से इन्होंने उन्हें अपना गुरु मान लिया। सत्य यह है कि गरीबदास, [[कबीर|कबीर साहब]] को अपना पथ प्रदर्शन मानते थे और उन्हीं के सिद्धान्तों से प्रभावित भी थे। गरीबदास ने कभी भी किसी सम्प्रदाय विशेष का भेष धारण नहीं किया और न उन्होंने गार्हस्था जीवन का परित्याग ही किया। पारिवारिक जीवन में रहते हुए इन्हें चार [[पुत्र]] तथा दो पुत्रियाँ प्राप्त हुई। वे आजीवन छुड़ानी में रहकर सत्यंग करते रहे। गरीबदास के साकेतवाद हो जाने के बाद उनके गुरुमुख शिष्य सलोत जी गद्दी पर बैठे। अपने जीवनकाल में गरीबदास ने छुड़ानी में एक मेला लगवाया था, जो अब तक वर्ष में एक दिन लगता है।
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गरीबदास शब्दातीत, निर्गुण-सगुण से परे [[ब्रह्मा]] के [[उपासक]] थे। उन्होंने कहा भी है- "शब्द अतीत अगाध है, निरगुन सरगुन नहि।" यह ब्रह्माण्ड उस ब्रह्माण्ड से किसी प्रकार भिन्न नहीं है। सामान्य मानव को भ्रांति का जो आभास होता है, उसका कारण माया है- "दास गरीब वह अमर निज ब्रह्म हैं, एक ही फूल, फल, डाल है रे"। गरीबदास ने स्वानुभूमि के लिए "सुरत व निरत का परचा" हो जाना अनिवार्य बताया है।
गरीबदास शब्दातीत, निर्गुण-सगुण से परे [[ब्रह्मा]] के [[उपासक]] थे। उन्होंने कहा भी है- "शब्द अतीत अगाध है, निरगुन सरगुन नहि।" यह ब्रह्माण्ड उस ब्रह्माण्ड से किसी प्रकार भिन्न नहीं है। सामान्य मानव को भ्रांति का जो आभास होता है, उसका कारण माया है- "दास गरीब वह अमर निज ब्रह्म हैं, एक ही फूल, फल, डाल है रे"। गरीबदास ने स्वानुभूमि के लिए "सुरत व निरत का परचा" हो जाना अनिवार्य बताया है।
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10:26, 4 जनवरी 2017 का अवतरण

दीपिका
पूरा नाम गरीबदास
जन्म 15, 1717, वैशाख सुदी
जन्म भूमि चुड़ानी ग्राम, रोहतक जिला, झज्जर तहसील, हरियाणा
मृत्यु 2, संवत 1835
गुरु कबीर साहब,
मुख्य रचनाएँ 'गरीबदास की बानी', 'गरीबदास की बानी'
भाषा हिन्दी,
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख कबीर ,
अन्य जानकारी गरीबदास शब्दातीत, निर्गुण-सगुण से परे ब्रह्मा के उपासक थे। उन्होंने कहा भी है- "शब्द अतीत अगाध है, निरगुन सरगुन नहि।" यह ब्रह्माण्ड उस ब्रह्माण्ड से किसी प्रकार भिन्न नहीं है।

गरीब दास (जन्म- 1717 ई., रोहतक; मृत्यु- 1778 ई.) शब्दातीत, निर्गुण-सगुण से परे ब्रह्मा के उपासक तथा 'गरीब-पंथ' के संस्थापक थे। गरीब दास को स्वप्न में कबीर साहब के दर्शन हुए और उसी क्षण से उन्होंने उन्हें अपना गुरु मान लिया। गरीब दास बड़े भावुक, शीलवान तथा श्रद्धालु व्यक्ति थे।

परिचय

संत कवि गरीबदास का जन्म संवत 1774 (1717 ई.) में वैशाख सुदी 15 को रोहतक ज़िले की झज्जर तहसील के छुड़ानी नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता जाति के जाट तथा व्यवसाय से जमीदार थे। जनश्रुति है कि गरीबदास जब 12 वर्ष की आयु के थे, उस समय भैसें चराते हुए उन्हें कबीर साहब के दर्शन हुए थे। एक अन्य जनश्रुति यह है कि गरीबदास को स्वप्न में कबीर साहब के दर्शन हुए और उसी क्षण से इन्होंने उन्हें अपना गुरु मान लिया। सत्य यह है कि गरीबदास, कबीर साहब को अपना पथ प्रदर्शन मानते थे और उन्हीं के सिद्धान्तों से प्रभावित भी थे। गरीबदास ने कभी भी किसी सम्प्रदाय विशेष का भेष धारण नहीं किया और न उन्होंने गार्हस्था जीवन का परित्याग ही किया। पारिवारिक जीवन में रहते हुए इन्हें चार पुत्र तथा दो पुत्रियाँ प्राप्त हुई। वे आजीवन छुड़ानी में रहकर सत्यंग करते रहे। गरीबदास के साकेतवाद हो जाने के बाद उनके गुरुमुख शिष्य सलोत जी गद्दी पर बैठे। अपने जीवनकाल में गरीबदास ने छुड़ानी में एक मेला लगवाया था, जो अब तक वर्ष में एक दिन लगता है।

गरीबदास 'गरीब-पंथ' के संस्थापक थे। पूर्वी पंजाब, दिल्ली, अलवर, नारनोल, विजेसर तथा रोहतक इसके केन्द्र हैं। पूर्वी पंजाब में यह पन्थ बड़ा जनप्रिय है। इस पंथ के शिष्यों में सभी वर्ग, सभी वर्ण तथा सभी जातियाँ के व्यक्ति पाये जाते हैं, हिन्दू, मुसलमानों का भी कोई भेद नहीं माना जाता है। गरीबदास बड़े भावुक, शीलवान तथा श्रद्धालु प्राणी थे।

रचनाएँ

गरीबदास ने 24 हजार साखिये और पदों का संग्रह 'हिंखर बोध' नाम के प्रस्तुत किया था। इनमें से 17 हजार रचनाएँ इनकी हैं और शेष कबीरदास की हैं। इन 17 हजार पदों एवं साखियों में से कुछ का संग्रह वेलवेडियर प्रेस, प्रयाग से 'गरीबदास की बानी' नाम से प्रकाशित हुआ है। प्रसिद्ध है कि कबीर साहब की शैली पर उन्होंने भी एक बीजक नामक ग्रंथ की रचना की थी। गरीबदास के सम्बन्ध में अनेक चमत्कार प्रसिद्ध हैं। बादशाह के कैद खाने से चमत्कार द्वारा निकल भागना, श्रद्धा विहीन व्यक्तियों में श्रद्धा का बीज अंकुरित कर देना आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

व्याख्याएँ

गरीबदास शब्दातीत, निर्गुण-सगुण से परे ब्रह्मा के उपासक थे। उन्होंने कहा भी है- "शब्द अतीत अगाध है, निरगुन सरगुन नहि।" यह ब्रह्माण्ड उस ब्रह्माण्ड से किसी प्रकार भिन्न नहीं है। सामान्य मानव को भ्रांति का जो आभास होता है, उसका कारण माया है- "दास गरीब वह अमर निज ब्रह्म हैं, एक ही फूल, फल, डाल है रे"। गरीबदास ने स्वानुभूमि के लिए "सुरत व निरत का परचा" हो जाना अनिवार्य बताया है।

निधन

छुड़ानी में भादों सुदी 2, संवत 1835 (1778 ई.) को इन्होंने पार्थिव शरीर का परित्याग करके स्वर्गारोहण किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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दीपिका
पूरा नाम विरिधर शर्मा चतुर्वेदी
जन्म 29 दिसम्बर, 1881
जन्म भूमि जयपुर, राजस्थान
मुख्य रचनाएँ 'महाकाव्य संग्रह', 'महर्षि कुलवैभव', 'ब्रह्म सिद्धांत', 'प्रमेयपारिजात','स्मृति विरोध परिहार'
भाषा हिन्दी, संस्कृत
प्रसिद्धि लेखक, साहित्यकार
विशेष योगदान इनमें भारतीय वैदिक तथा शास्त्रीय परम्पराओं के महत्त्व पर विचार के साथ ही उनका वैज्ञानिक एवं दार्शनिक विवेचन एवं विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख पंजाब विश्वविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
अन्य जानकारी 'गीता व्याख्यान' तथा 'पुराण पारिजात' विरिधर शर्मा जी की नवीनतम कृतियाँ हैं।

विरिधर शर्मा चतुर्वेदी (जन्म- 29 दिसम्बर, 1881 ई., जयपुर, राजस्थान) शिक्षा-शास्त्री पंजाब विश्वविद्यालय, व्याकरणाचार्य जयपुर, तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वाचस्पति थे। विरिधर शर्मा जी को भारत सरकार द्बारा महामहोपाध्याय की उपाधि से विभूषित तथा राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया था। 'गीता व्याख्यान' तथा 'पुराण पारिजात' विरिधर शर्मा जी की नवीनतम कृतियाँ हैं।

परिचय

विरिधर शर्मा चतुर्वेदी जन्म 29 दिसम्बर, सन 1881 ई. को जयपुर, राजस्थान में हुआ था। शिक्षा-शास्त्री पंजाब विश्वविद्यालय,व्याकरणाचार्य जयपुर तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वाचस्पति थे। विरिधर शर्मा जी को हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्यवाचस्पति, भारत सरकार द्बारा महामहोपाध्याय की उपाधि से विभूषित तथा राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया था।

शिक्षण कार्य

विरिधर सन 1908 से 1917 ई. तक ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम हरिद्वार के आचार्य थे। सन 1918 से 1924 ई. तक विरिधर सनातनधर्म संस्कृत कालेज, लाहौर के आचार्य रहे। विरिधर शर्मा सन 1925 से 1944 ई. तक जयपुर, राजस्थान के महाराजा संस्कृत कालेज में दर्शन के प्राध्यापक पद पर थे। सन 1940 से 1954 ई. तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत अध्ययन एवं अनुशीलन मण्डल के अध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहे। सन 1960 ई. से वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के सम्मानित प्राध्यापक पद ग्रहण किया। विरिधर जी सन 1951-52 ई. में भारत सरकार की संविधान संस्कृतानिवाद समिथि के सदस्य रहे। सन 1930 और 1940 ई. में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दर्शन-परिषद के सभापति रहे।

रचनाएँ

विरिधर वेद, दर्शन तथा संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित, महान व्याख्याता, समर्थ लेखक तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक थे। इन्होंने बहुत से महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का सम्पादन किया है। विरिधर जी की संस्कृत तथा हिन्दी की कृतियाँ इस प्रकार हैं- 'महाकाव्य संग्रह', 'महर्षि कुलवैभव', 'ब्रह्म सिद्धांत', 'प्रमेयपारिजात', 'चातुर्वर्ण्य', 'पाणिनीय परिचय', 'स्मृति विरोध परिहार', 'गीता व्याख्यान', 'वेद विज्ञान विन्दु' [1], 'वैदिक विज्ञान', 'भारतीय संस्कृति' तथा 'पुराण पारिजात'। 'गीता व्याख्यान' तथा 'पुराण पारिजात' आपकी नवीनतम कृतियाँ हैं।

पुरस्कृत लेख

विरिधर जी की 'वैदिक विज्ञान' और 'भारतीय संस्कृति' पुस्तक उत्तरप्रदेश और राजस्थान सरकारों द्वारा पुरस्कृत हुई है। सन 1962 ई. में इनकी यह पुस्तक साहित्य अकादमी द्वारा भी पुरस्कृत हुई। इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद भी हो रहा है। वर्तमान युग की बहुमुखी जिज्ञासुओं तथा प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में यह ग्रंथ बहुत ही महत्त्व का है। महामहोपाध्याय पण्डित गिरिघर शर्मा चतुर्वेदी जी के उपर्युक्त 13 ग्रंथों के अतिरिक्त 70 छोटे-बड़े उल्लेखनीय निबन्ध प्रकाशित हैं। इनमें 18 संस्कृत के हैं और शेष हिन्दी के थे। इनमें भारतीय वैदिक तथा शास्त्रीय परम्पराओं के महत्त्व पर विचार के साथ ही उनका वैज्ञानिक एवं दार्शनिक विवेचन एवं विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संस्कृत

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