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'''बनारसीदास चतुर्वेदी''' (जन्म- [[24 दिसम्बर]], [[1892]], [[फ़िरोजाबाद]]; मृत्यु- [[2 मई]], [[1985]]) प्रसिद्ध पत्रकार और शहीदों की स्मृति में साहित्य प्रकाशन के प्रेरणास्त्रोत थे। उनकी गणना अग्रगण्य पत्रकारों और साहित्यकारों में की जाती है। यद्यपि [[हिन्दी साहित्य]] के प्रति अनुराग और लेखक की अभिरुचि के लक्षण उनमें पत्रकार बनने से पहले ही दिखाई दे चुके थे। सन [[1914]] से ही वे प्रवासी भारतीयों की समस्याओं पर लिखने लगे थे। बनारसीदास बारह वर्ष तक [[राज्य सभा]] के सदस्य भी रहे थे।
 
'''बनारसीदास चतुर्वेदी''' (जन्म- [[24 दिसम्बर]], [[1892]], [[फ़िरोजाबाद]]; मृत्यु- [[2 मई]], [[1985]]) प्रसिद्ध पत्रकार और शहीदों की स्मृति में साहित्य प्रकाशन के प्रेरणास्त्रोत थे। उनकी गणना अग्रगण्य पत्रकारों और साहित्यकारों में की जाती है। यद्यपि [[हिन्दी साहित्य]] के प्रति अनुराग और लेखक की अभिरुचि के लक्षण उनमें पत्रकार बनने से पहले ही दिखाई दे चुके थे। सन [[1914]] से ही वे प्रवासी भारतीयों की समस्याओं पर लिखने लगे थे। बनारसीदास बारह वर्ष तक [[राज्य सभा]] के सदस्य भी रहे थे।
 
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==शिक्षा==
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==जन्म तथा शिक्षा==
[[1913]] में इंटर की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने कुछ समय तक [[फर्रूखाबाद]] के हाई स्कूल में अध्यापन कार्य किया। फिर [[इंदौर]] के डेली कॉलेज में अध्यापक बन गए। उस समय डॉ. संपूर्णनंद भी वहां अध्यापक थे। उन्हीं दिनों इंदौर में [[गांधी जी]] की अध्यक्षता में [[हिन्दी साहित्य]] सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन हुआ। तभी बनारसीदास चतुर्वेदी जी को गांधी जी तथा प्रमुख साहित्यकारों के संपर्क में आने का अवसर मिला। पत्रकार के रूप में वे गणेश शंकर विद्यार्थी को अपना आदर्श मानते थे।  
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बनारसीदास चतुर्वेदी का जन्म 24 दिसम्बर, 1892 को फ़िरोजाबाद, [[उत्तर प्रदेश]] में हुआ था। उन्होंने वर्ष [[1913]] में अपनी इंटर की परीक्षा पास की थी। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक [[फर्रूखाबाद]] के हाईस्कूल में अध्यापन कार्य किया। फिर [[इंदौर]] के डेली कॉलेज में अध्यापक बन गए। उस समय डॉ. संपूर्णनंद भी वहाँ अध्यापक थे। उन्हीं दिनों इंदौर में [[गांधी जी]] की अध्यक्षता में [[हिन्दी साहित्य]] सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन हुआ। तभी बनारसीदास चतुर्वेदी जी को गांधी जी तथा प्रमुख साहित्यकारों के संपर्क में आने का अवसर मिला। पत्रकार के रूप में वे [[गणेश शंकर विद्यार्थी]] को अपना आदर्श मानते थे।
==कार्यकाल==
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==पत्रकारिता==
[[1920]] में अध्यापक कार्य छोड़कर बनारसीदास चतुर्वेदी जी सी. एफ. एड्रूज के साथ शांतिनिकेतन चले गए। फिर वहां से गांधी जी के कहने पर गुजरात विद्यापीठ के अध्यापक बन कर [[अहमदाबाद]] पहुंचे। वहां भी अधिक दिनों तक नहीं टिके। पत्रकारिता की ओर उनकी आरंभ से ही रूचि थी। अहमदाबाद से लौटने के बाद उन्होंने कुछ दिन ‘आर्यमित्र’ में काम किया, फिर [[इलाहाबाद]] के ‘अभ्युदय’ में चले गए। इसके बाद उनका जीन लेखन और पत्रकारिता में ही बीता। तोताराम सनाढ्य से उनके फीजी द्वीप के अनुभव सुनकर उन्होंने तोताराम जी के नाम से ‘फिजी में मेरे 21 वर्ष’ नामक जो पुस्तक तैयार की उससे प्रवासी भारतीयों दशा की ओर देश भर का ध्यान आकृष्ट हुआ। बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने स्वयं भी ‘प्रवासी भारतवासी’ नामक पुस्तक की रचना की। [[1924]] में [[कांग्रेस]] ने उन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर [[अफ्रीका|पूर्वी अफ्रीका]] भेजा था।
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बनारसीदास जी का पत्रकारिता जीवन 'विशाल भारत' के सम्पादन से आरम्भ हुआ। स्वर्गीय रामानन्द चटर्जी, जो 'मॉडर्न रिव्यू' और 'विशाल भारत' के मालिक थे, वे बनारसीदास जी की सेवा भावना और लगन से बहुत प्रभावित थे। [[कलकत्ता]] में रहते हुए उनका प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं से परिचय हुआ था। प्रवासी भारतीयों की समस्या में इनकी विशेष दिलचस्पी पहले से ही थी। इसके कारण ही महात्मा गांधी, सी. एफ़. एंड्रूज और श्रीनिवास शास्त्री के ये कृपापात्र बन गए थे। इन महानुभावों का प्रवासी भारतीयों की समस्या से विशेष सम्बन्ध था। बनारसीदास चतुर्वेदी जी सी. एफ. एड्रूज के साथ '[[शांतिनिकेतन]]' चले गए। फिर वहाँ से गांधी जी के कहने पर 'गुजरात विद्यापीठ' के अध्यापक बन कर [[अहमदाबाद]] पहुँचे। वहाँ भी अधिक दिनों तक नहीं टिके। उन्होंने [[1920]] में अध्यापक कार्य त्याग दिया। बनारसीदास जी ने 'विशाल भारत' को एक साहित्यिक और सामान्य जानकारी से परिपूर्ण मासिक पत्रिका बना दिया। इसके स्तम्भों में प्राय: सभी प्रमुख लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित होती थीं।
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====साहित्य का अध्ययन====
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'विशाल भारत' छोड़ने के बाद बनारसीदास जी ने [[टीकमगढ़ ज़िला|टीकमगढ़]] से 'मधुकर' का सम्पादन शुरू किया। [[ओरछा]] नरेश इनका विशेष आदर करते थे और [[हिन्दी]] प्रेमी थे। बनारसीदास ने वास्तव में जीवन भर पढ़ने और लिखने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। उनका अध्ययन [[हिन्दी]], [[संस्कृत]] और भारतीय साहित्य तक ही सीमित नहीं था। [[अंग्रेज़ी]] के माध्यम से उन्होंने पाश्चात्य साहित्य का भी गहरा अध्ययन किया था। उनकी अपनी शैली थी, जो बातचीत की [[भाषा]] के निकट होते हुए भी ओजपूर्ण तथा प्रांजल है और आकर्षक है। निबन्ध, रेखा चित्र, वर्णन आदि के लिए उनके लेख-शैली विशेष रूप से उपयुक्त हैं। उनकी रचनाओं में 'रेखाचित्र' ([[1952]]), 'साहित्य और जीवन' ([[1954]]), 'सत्यनारायण कविरत्न', 'भारतभक्त एंड्रुज', 'संस्मरण' आदि अधिक प्रसिद्ध हैं।
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तोताराम सनाढ्य से उनके फीजी द्वीप के अनुभव सुनकर उन्होंने तोताराम जी के नाम से ‘फिजी में मेरे 21 वर्ष’ नामक जो पुस्तक तैयार की उससे प्रवासी भारतीयों दशा की ओर देश भर का ध्यान आकृष्ट हुआ। बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने स्वयं भी ‘प्रवासी भारतवासी’ नामक पुस्तक की रचना की। [[1924]] में [[कांग्रेस]] ने उन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर [[अफ्रीका|पूर्वी अफ्रीका]] भेजा था।
  
 
रामानंद चटर्जी ने जब ‘विशाल भारत’ नाम से हिन्दी मासिक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया तो [[1927]] में बनारसीदास चतुर्वेदी जी उसके संपादक बन कर [[कोलकाता]] चले गए। [[1937]] तक वे इस पत्र के संपादक रहे और उन्होंने [[हिन्दी]] में कई आन्दोलन चलाए। फिर टीकमगढ़ जाकर ‘विंध्यवाणी’ और ‘मधुकर’ का संपादन हाथ में लेकर जनपदीय आन्दोलन को अग्रसर किया। उनका एक प्रमुख कार्य शहीदों की स्मृति में ग्रंथमाला प्रकाशित कराना रहा है। कई साहित्यकारों के अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित कराने का श्रेय भी उनको है। 10 वर्ष तक राज्यसभा की सदस्यता के दौरान [[दिल्ली]] में ‘हिन्दी भवन’ और प्रयाग की ‘सत्यानारायण कुटीर’ की स्थापना का श्रेय भी बनारसीदास चतुर्वेदी जी को है। [[रूस]] सरकार के निमंत्रण पर वे सेवियत रूस की यात्रा पर भी गए थे।
 
रामानंद चटर्जी ने जब ‘विशाल भारत’ नाम से हिन्दी मासिक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया तो [[1927]] में बनारसीदास चतुर्वेदी जी उसके संपादक बन कर [[कोलकाता]] चले गए। [[1937]] तक वे इस पत्र के संपादक रहे और उन्होंने [[हिन्दी]] में कई आन्दोलन चलाए। फिर टीकमगढ़ जाकर ‘विंध्यवाणी’ और ‘मधुकर’ का संपादन हाथ में लेकर जनपदीय आन्दोलन को अग्रसर किया। उनका एक प्रमुख कार्य शहीदों की स्मृति में ग्रंथमाला प्रकाशित कराना रहा है। कई साहित्यकारों के अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित कराने का श्रेय भी उनको है। 10 वर्ष तक राज्यसभा की सदस्यता के दौरान [[दिल्ली]] में ‘हिन्दी भवन’ और प्रयाग की ‘सत्यानारायण कुटीर’ की स्थापना का श्रेय भी बनारसीदास चतुर्वेदी जी को है। [[रूस]] सरकार के निमंत्रण पर वे सेवियत रूस की यात्रा पर भी गए थे।

12:12, 17 दिसम्बर 2012 का अवतरण

बनारसीदास चतुर्वेदी (जन्म- 24 दिसम्बर, 1892, फ़िरोजाबाद; मृत्यु- 2 मई, 1985) प्रसिद्ध पत्रकार और शहीदों की स्मृति में साहित्य प्रकाशन के प्रेरणास्त्रोत थे। उनकी गणना अग्रगण्य पत्रकारों और साहित्यकारों में की जाती है। यद्यपि हिन्दी साहित्य के प्रति अनुराग और लेखक की अभिरुचि के लक्षण उनमें पत्रकार बनने से पहले ही दिखाई दे चुके थे। सन 1914 से ही वे प्रवासी भारतीयों की समस्याओं पर लिखने लगे थे। बनारसीदास बारह वर्ष तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे थे।

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जन्म तथा शिक्षा

बनारसीदास चतुर्वेदी का जन्म 24 दिसम्बर, 1892 को फ़िरोजाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्होंने वर्ष 1913 में अपनी इंटर की परीक्षा पास की थी। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक फर्रूखाबाद के हाईस्कूल में अध्यापन कार्य किया। फिर इंदौर के डेली कॉलेज में अध्यापक बन गए। उस समय डॉ. संपूर्णनंद भी वहाँ अध्यापक थे। उन्हीं दिनों इंदौर में गांधी जी की अध्यक्षता में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन हुआ। तभी बनारसीदास चतुर्वेदी जी को गांधी जी तथा प्रमुख साहित्यकारों के संपर्क में आने का अवसर मिला। पत्रकार के रूप में वे गणेश शंकर विद्यार्थी को अपना आदर्श मानते थे।

पत्रकारिता

बनारसीदास जी का पत्रकारिता जीवन 'विशाल भारत' के सम्पादन से आरम्भ हुआ। स्वर्गीय रामानन्द चटर्जी, जो 'मॉडर्न रिव्यू' और 'विशाल भारत' के मालिक थे, वे बनारसीदास जी की सेवा भावना और लगन से बहुत प्रभावित थे। कलकत्ता में रहते हुए उनका प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं से परिचय हुआ था। प्रवासी भारतीयों की समस्या में इनकी विशेष दिलचस्पी पहले से ही थी। इसके कारण ही महात्मा गांधी, सी. एफ़. एंड्रूज और श्रीनिवास शास्त्री के ये कृपापात्र बन गए थे। इन महानुभावों का प्रवासी भारतीयों की समस्या से विशेष सम्बन्ध था। बनारसीदास चतुर्वेदी जी सी. एफ. एड्रूज के साथ 'शांतिनिकेतन' चले गए। फिर वहाँ से गांधी जी के कहने पर 'गुजरात विद्यापीठ' के अध्यापक बन कर अहमदाबाद पहुँचे। वहाँ भी अधिक दिनों तक नहीं टिके। उन्होंने 1920 में अध्यापक कार्य त्याग दिया। बनारसीदास जी ने 'विशाल भारत' को एक साहित्यिक और सामान्य जानकारी से परिपूर्ण मासिक पत्रिका बना दिया। इसके स्तम्भों में प्राय: सभी प्रमुख लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित होती थीं।

साहित्य का अध्ययन

'विशाल भारत' छोड़ने के बाद बनारसीदास जी ने टीकमगढ़ से 'मधुकर' का सम्पादन शुरू किया। ओरछा नरेश इनका विशेष आदर करते थे और हिन्दी प्रेमी थे। बनारसीदास ने वास्तव में जीवन भर पढ़ने और लिखने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। उनका अध्ययन हिन्दी, संस्कृत और भारतीय साहित्य तक ही सीमित नहीं था। अंग्रेज़ी के माध्यम से उन्होंने पाश्चात्य साहित्य का भी गहरा अध्ययन किया था। उनकी अपनी शैली थी, जो बातचीत की भाषा के निकट होते हुए भी ओजपूर्ण तथा प्रांजल है और आकर्षक है। निबन्ध, रेखा चित्र, वर्णन आदि के लिए उनके लेख-शैली विशेष रूप से उपयुक्त हैं। उनकी रचनाओं में 'रेखाचित्र' (1952), 'साहित्य और जीवन' (1954), 'सत्यनारायण कविरत्न', 'भारतभक्त एंड्रुज', 'संस्मरण' आदि अधिक प्रसिद्ध हैं।

तोताराम सनाढ्य से उनके फीजी द्वीप के अनुभव सुनकर उन्होंने तोताराम जी के नाम से ‘फिजी में मेरे 21 वर्ष’ नामक जो पुस्तक तैयार की उससे प्रवासी भारतीयों दशा की ओर देश भर का ध्यान आकृष्ट हुआ। बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने स्वयं भी ‘प्रवासी भारतवासी’ नामक पुस्तक की रचना की। 1924 में कांग्रेस ने उन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर पूर्वी अफ्रीका भेजा था।

रामानंद चटर्जी ने जब ‘विशाल भारत’ नाम से हिन्दी मासिक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया तो 1927 में बनारसीदास चतुर्वेदी जी उसके संपादक बन कर कोलकाता चले गए। 1937 तक वे इस पत्र के संपादक रहे और उन्होंने हिन्दी में कई आन्दोलन चलाए। फिर टीकमगढ़ जाकर ‘विंध्यवाणी’ और ‘मधुकर’ का संपादन हाथ में लेकर जनपदीय आन्दोलन को अग्रसर किया। उनका एक प्रमुख कार्य शहीदों की स्मृति में ग्रंथमाला प्रकाशित कराना रहा है। कई साहित्यकारों के अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित कराने का श्रेय भी उनको है। 10 वर्ष तक राज्यसभा की सदस्यता के दौरान दिल्ली में ‘हिन्दी भवन’ और प्रयाग की ‘सत्यानारायण कुटीर’ की स्थापना का श्रेय भी बनारसीदास चतुर्वेदी जी को है। रूस सरकार के निमंत्रण पर वे सेवियत रूस की यात्रा पर भी गए थे।

रचना

श्रमजीवी पत्रकारों को संगठित करने में भी बनारसीदास चतुर्वेदी ने अग्रणी काम किया। रेखाचित्रों की रचना में वे सिद्धहस्त माने गए। उनकी रचनाओं में ‘साहित्य और जीवन’, ‘रेखाचित्रों’, ‘भारत भक्त एड्रूज’, ‘संस्मरण’ आदि विशेष उल्लेखनीय है। बनारसीदास चतुर्वेदी जी लगनशील पत्र-लेखक और पत्रों के संग्रहकर्ता भी थे। वे हर रोज दर्जनों पत्र लिखते थे। उनके पास विशिष्ट व्यक्तियों से पत्राचार का दुर्लभ संग्रह था, जो अंत में उन्होंने विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित करा दिये।

निधन

2 मई, 1985 ई. को बनारसीदास चतुर्वेदी जी का देहांत हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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