"शंकर शेष": अवतरणों में अंतर
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'''शंकर शेष''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Shankar Shesh'', जन्म: [[2 अक्टूबर]], [[1933]], [[बिलासपुर छत्तीसगढ़|बिलासपुर]]; मृत्यु- [[28 नवम्बर]], [[1981]]) [[हिन्दी]] के प्रसिद्ध नाटककार तथा सिनेमा कथा लेखक थे। वे [[नाटक]] साहित्य क्षेत्र के महत्वपूर्ण नाटककारों में से एक थे। समकालीन परिवेश और युगीन परिस्थितियों से उनके व्यक्तित्त्व की संवेदनशील का निर्माण हुआ था। शंकर शेष बहुआयामी प्रतिभाशाली लेखक के रूप में पहचाने जाते थे। वे [[मुम्बई]] में एक बैंक में [[हिन्दी]] अधिकारी थे। | {{सूचना बक्सा साहित्यकार | ||
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|जन्म भूमि=[[बिलासपुर छत्तीसगढ़|बिलासपुर]], [[छत्तीसगढ़]] | |||
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|मृत्यु स्थान= | |||
|अभिभावक=[[पिता]]- नागोराव विनायक राव शेष, [[माता]]- सावित्री बाई शेष। | |||
|पालक माता-पिता= | |||
|पति/पत्नी= | |||
|संतान= | |||
|कर्म भूमि=[[भारत]] | |||
|कर्म-क्षेत्र=नाट्य लेखक | |||
|मुख्य रचनाएँ=‘फन्दी’, ‘एक था द्रोणाचार्य’, ‘रक्तबीज’, 'घरौंदा' आदि। | |||
|विषय= | |||
|भाषा=[[हिन्दी]], [[मराठी भाषा|मराठी]], [[अंग्रेज़ी]] | |||
|विद्यालय=नागपुर महाविद्यालय | |||
|शिक्षा=बी.ए. ऑनर्स | |||
|पुरस्कार-उपाधि= | |||
|प्रसिद्धि=नाटककार | |||
|विशेष योगदान= | |||
|नागरिकता=भारतीय | |||
|संबंधित लेख= | |||
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|अन्य जानकारी=शंकर शेष स्वभाव से सरल और कर्मठ थे वे। मित्रता पर जान छिड़कते थे। बच्चों के लिए [[पिता]] कम मित्र अधिक थे। [[भारतीय स्टेट बैंक]] में जनसंपर्क विभाग से प्रकाशित [[पत्रिका]] ‘कलींग’ का हिन्दी खंड वे ही संभालते थे। | |||
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'''शंकर शेष''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Shankar Shesh'', जन्म: [[2 अक्टूबर]], [[1933]], [[बिलासपुर छत्तीसगढ़|बिलासपुर]]; मृत्यु- [[28 नवम्बर]], [[1981]]) [[हिन्दी]] के प्रसिद्ध नाटककार तथा सिनेमा कथा लेखक थे। वे [[नाटक]] साहित्य क्षेत्र के महत्वपूर्ण नाटककारों में से एक थे। समकालीन परिवेश और युगीन परिस्थितियों से उनके व्यक्तित्त्व की संवेदनशील का निर्माण हुआ था। शंकर शेष बहुआयामी प्रतिभाशाली लेखक के रूप में पहचाने जाते थे। वे [[मुम्बई]] में एक बैंक में [[हिन्दी]] अधिकारी थे। उनके ‘फन्दी’, ‘एक था द्रोणाचार्य’, ‘रक्तबीज’ आदि नाटकों से उनकी ख्याति बढ़ी थी। उनका शोध-प्रबंध ‘हिन्दी मराठी’ कहानीकारों के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित था। शंकर शेष अत्यन्त सहृदय और गुट-निरपेक्ष लेखक थे। उनके द्वारा रचित ‘घरोंदा’ कथा पर [[हिन्दी]] में एक प्रसिद्ध फ़िल्म भी बनी थी। | |||
==परिचय== | ==परिचय== | ||
शंकर शेष का जन्म 2 अक्टूबर, 1933 को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ था। उनके | शंकर शेष का जन्म 2 अक्टूबर, 1933 को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ था। उनके [[पिता]] का नाम नागोराव विनायक राव शेष और [[माता]] का नाम सावित्री बाई शेष था। नागोराव शेष की दो पत्नियां थीं। पहली जानकीबाई की मृत्यु के बाद सावित्रीबाई ने घर में प्रवेश किया। शंकर जी [[परिवार]] में चौथे क्रम पर थे। सबसे बड़े भाई बबनराव, बालाजीराव, तदुपरांत एक बहन आशा, जिसका ग्यारह [[वर्ष]] की आयु में निधन हो गया था। उसके पश्चात् शंकर जी, फिर एक बहन, जिसकी अल्पायु में मृत्यु हो गई थी। उनसे छोटे दो भाई विष्णु और डॉक्टर गोपाल हैं। विष्णु सारी जायदाद की देखभाल करते हैं। डॉक्टर गोपाल ने 'एनशियंट हिस्ट्री' में पी.एच.डी. की है और वे स्कूल में पढ़ाते हैं।<ref name="a">{{cite web |url=http://shankarshesh.com/life-sketch.html|title=डॉ. शंकर शेष, संक्षिप्त परिचय|accessmonthday=05 मार्च |accessyear=2017 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=shankarshesh.com |language=हिन्दी }}</ref> | ||
==शिक्षा तथा लेखन शुरुआत== | |||
शंकर शेष बचपन से कुशाग्र थे। शालेय जीवन से ही कविताएं करते थे। बिलासपुर में उन्होंने शालेय एवं इन्टरमीडिएट तक पढ़ाई की। तत्पश्चात् [[हिन्दी]] में बी.ए. ऑनर्स करने के लिए [[नागपुर]] के हिस्लॉप कॉलेज में प्रवेश लिया। नागपुर में अध्ययन के साथ अन्य दालान खुले। प्रमुख था आकाशवाणी। आकाशवाणी पर कविताएं तथा वार्ताएं प्रसारित होती थीं। वकृत्व में बचपन से कुशल थे। बी.ए. ऑनर्स करते ही उन्हें नागपुर महाविद्यालय, जो उस समय मॉरिस कहलाता था, लेक्चरर का पद मिला। अध्यापन के साथ-साथ काव्य लेखन एवं आकाशवाणी तथा [[समाचार पत्र|समाचार पत्रों]] के लिए [[कहानी|कहानियों]] का लेखन प्रारंभ हुआ। साथ ही पी.एच.डी. के लिए डॉक्टर विनय मोहन शर्मा के मार्गदर्शन में कार्य शुरू किया। उसी समय नाट्य प्रतियोगिता के लिए [[नाटक]] लिखा ‘मूर्तिकार’, जिसे मेडिकल कॉलेज के छात्रों ने खेला। निर्देशक थे के.के. मेहता। कॉलेज के लिए ‘विवाह मंडप’ भी लिखा। उस समय हिन्दी को राजभाषा घोषित किया था। हर क्षेत्र में [[हिन्दी]] के प्रयोग का आग्रह था। हिन्दी के हास्यास्पद प्रयोग समाज में दृष्टिगोचर हो रहे थे। उस विषय पर एक व्यंग्यात्मक नाटक लिखा- ‘हिन्दी का भूत’। उस समय उनका ‘नागपुरी हिन्दी’ लेख भी बड़ा लोकप्रिय हुआ। यहीं उन्होंने ‘रत्नगर्भा’, ‘तिल का ताड़’ और ‘बेटों वाला बाप’ नाटक लिखे। वे मंचित हुए और लोकप्रिय भी हुए। | |||
सन [[1958]] में [[भाषा]] के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ। [[नागपुर]] [[महाराष्ट्र]] का एक हिस्सा बना। शंकर शेष ने [[मध्य प्रदेश]] में नौकरी करना बेहतर समझा। उन्हें [[रीवा]] में पदोन्नीत किया गया। नागपुर के इतने क्षेत्रों में फैला हुआ आदमी केवल रीवा के कॉलेज में सिमट गया। [[कविता]] जन्म लेती रही। कहानियां लिखी जाती रहीं। कालिदास समारोह में ‘शाकुंतल’ नाटक करने का अवसर मिला। एक ही [[वर्ष]] रहने के बाद पदोन्नीत हुई और शहडोल जाने का अवसर आया, नये सिरे से सब कुछ प्रारंभ हुआ। शहडोल में प्रारंभ में पढ़ने-लिखने का वातावरण नहीं था। छात्रों में पढ़ने के अलावा राजनीति में रूचि थी। यहां ‘एक और द्रोणाचार्य’ नाटक की पृष्टिभूमि मस्तिष्क में बनती गई। [[कुमार गंधर्व]] के शिष्य पंढरपुरकर और उनके शिष्य ढोलकिया के साथ [[संगीत]] की महफिलें सजने लगीं। कविताओं में गेयता आने लगी। ‘संगी चल भिलाई जावो’ यहीं की रचना है। शंकर जी के साथ कुछ ऐसा संयोग था कि तीन वर्ष से अधिक वे एक मकान में रहे नहीं। शहडोल के पाँच वर्ष के निवास में तीन मकान बदले गए। प्रोफेसर कॉलोनी के घर में एक नया आयाम जुड़ा। कॉलेज में नाटक होने लगे। उनका ‘हिन्दी का भूत’ और ‘तिल का ताड़’ मंचित हुआ। | |||
==नाट्य विषय== | ==नाट्य विषय== | ||
डॉ. शंकर शेष के नाटकों में जाति व्यवस्था के नाम पर होने वाले अत्याचारों का यथार्थ चित्रण हुआ है। भारतीय समाज की छुआछूत जैसी कुप्रथा से संबंधित कई प्रश्न उन्होंने उठाए हैं। सभ्य समाज में जाति व्यवस्था आज भी विद्यमान है। आज भी सवर्ण जाति के लोग मंदिर पर अपना ही वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं और मंदिरों में [[शूद्र]] का प्रवेश मना है। यदि कोई मंदिर में प्रवेश करने का साहस करता है तो उसे | डॉ. शंकर शेष के [[नाटक|नाटकों]] में जाति व्यवस्था के नाम पर होने वाले अत्याचारों का यथार्थ चित्रण हुआ है। भारतीय समाज की छुआछूत जैसी कुप्रथा से संबंधित कई प्रश्न उन्होंने उठाए हैं। सभ्य समाज में जाति व्यवस्था आज भी विद्यमान है। आज भी सवर्ण जाति के लोग मंदिर पर अपना ही वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं और मंदिरों में [[शूद्र]] का प्रवेश मना है। यदि कोई मंदिर में प्रवेश करने का साहस करता है तो उसे गाँव से बहिष्कृत करने का दंड दिया जाता है। इस कथन का प्रमाण "बाढ़ का पानी" में पंडित और छीतू के संवाद से स्पष्ट होता है- "तुम्हारे बेटे ने धरम का नाश किया। पच्चीस हरिजनों को लेकर जो भगवान के मंदिर में घुस गया और भगवान को छू लिया।" [[गाँव]] में [[बाढ़]] आने पर चमार जाति का नवल ठाकुर को बचाने जाता है, फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ा रहता है। इसका प्रमाण "बाढ़ का पानी" [[नाटक]] में गणपत के संवाद में मिलता है। जातीय विषमता [[आधुनिक काल]] में ही नहीं, महाभारत काल में भी देखने को मिलती है। इसका प्रमाण "कोमल गांधार" में [[भीष्म]] और [[संजय]] के कथन से स्पष्ट होता है। "अरे मायावी सरोवर" में राजा और [[ऋषि]] के कथन से [[ब्राह्मण]] और क्षत्रिय जाति के आपस के वर्चस्व का स्पष्ट होता है, और "एक और द्रोणाचार्य" में [[द्रोणाचार्य]] द्वारा [[एकलव्य]] से अंगूठे की माँग, इसी जाती-पाँति व्यवस्था की अगली कड़ी है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के प्रति परिवर्तित दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। "पढ़ना ठाकुरों का काम है भौजी, हम चमारों का नहीं। हमरी कुण्डली में तो बस जूते बनाना और जूते खाना ही लिखा है।" इस संवाद में एक हरिजन या चमार जाति के व्यक्ति की पढ़ने या शिक्षित होने की कठिनाइयों को यथार्थ चित्रण किया गया है।<ref>{{cite web |url=http://www.apnimaati.com/2014/08/blog-post_14.html |title= आलेख:डॉ.शंकर शेष के नाटकों में सामाजिक यथार्थ|accessmonthday=05 मार्च |accessyear=2017 |last= बाबू|first=डॉ. पी. थामस |authorlink= |format= |publisher=apnimaati.com |language=हिन्दी }}</ref> | ||
'फंदी' [[नाटक]] के माध्यम से नाटककार डॉ. शंकर शेष न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य करते नज़र आते हैं। फन्दी नाटक का नायक है और अंत तक संघर्षशील और जूझता नज़र आता है। लेकिन उसकी नियति अनिर्णयात्मक संशय में स्थगित हो जाती है। अपने कैंसर पीडित बाप के दर्द के मारे माँगने पर वह उनका गला घोंट देता है। इस कथन के माध्यम से नाटककार ने पुरानी क़ानूनी व्यवस्था को बदलने की घोषणा की है- "क़ानून यदि स्थिर और पत्थर के समान जड़ हो जाय तो समाज की बदलती हुई परिस्थितियों में वह न्याय नहीं दे सकता है।" क़ानून मनुष्य के लिए है, मनुष्य क़ानून के लिए नहीं है। इसीलिए क़ानून हमेशा नई चुनौतियों को स्वीकरते हुए आगे बढ़ना चाहिए। यहाँ फन्दी का मुक़दमा भी इसी तरह की एक नई चुनौती है। | 'फंदी' [[नाटक]] के माध्यम से नाटककार डॉ. शंकर शेष न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य करते नज़र आते हैं। फन्दी नाटक का नायक है और अंत तक संघर्षशील और जूझता नज़र आता है। लेकिन उसकी नियति अनिर्णयात्मक संशय में स्थगित हो जाती है। अपने कैंसर पीडित बाप के दर्द के मारे माँगने पर वह उनका गला घोंट देता है। इस कथन के माध्यम से नाटककार ने पुरानी क़ानूनी व्यवस्था को बदलने की घोषणा की है- "क़ानून यदि स्थिर और पत्थर के समान जड़ हो जाय तो समाज की बदलती हुई परिस्थितियों में वह न्याय नहीं दे सकता है।" क़ानून मनुष्य के लिए है, मनुष्य क़ानून के लिए नहीं है। इसीलिए क़ानून हमेशा नई चुनौतियों को स्वीकरते हुए आगे बढ़ना चाहिए। यहाँ फन्दी का मुक़दमा भी इसी तरह की एक नई चुनौती है। | ||
==एक और द्रोणाचार्य== | ==एक और द्रोणाचार्य== | ||
आधुनिक शिक्षा जगत में फैले भ्रष्टाचार का भी शंकर शेष ने अपने नाटकों मे ज़िक्र किया है। [[गाँव]] के लोग आज भी मूलभूत शिक्षा से कोसो दूर है। आज के राजनेताओं के साथ धनाढ्य वर्ग के लोगों ने भी आम जनता को शिक्षा से दूर रखने हेतु कई षडयंत्र रचते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा के अभाव में आम आदमी सामाजिक तथा राजनीति दोनों स्तरों पर पिछड़ता चला गया। शंकर शेष ने ‘एक और द्रोणाचार्य’ नामक [[नाटक]] में शिक्षा जगत में बढ़ते राजनैतिक दबाव का वर्णन किया है, जिसके चलते नौजवान पीढ़ी का भविष्य अधंकारमय हो गया। नाटककार ने शिक्षकों की उदासीनता पर तीखा कटाक्ष किया है। वह शिक्षक आर्थिक राजनैतिक दबावों के चलते हार मान लेते हैं। पौराणिक कथा का सहारा लेकर वह आज की व्यवस्था के चारण बन जाने वाले अध्यापक की त्रासदी को नाटक के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की है। नाटक में आज की व्यवस्था में शिक्षक वर्ग में | [[चित्र:Ek-Aur-Dronacharya.jpg|thumb|250px|एक और द्रोणाचार्य का आवरण पृष्ठ]] | ||
आधुनिक शिक्षा जगत में फैले भ्रष्टाचार का भी शंकर शेष ने अपने नाटकों मे ज़िक्र किया है। [[गाँव]] के लोग आज भी मूलभूत शिक्षा से कोसो दूर है। आज के राजनेताओं के साथ धनाढ्य वर्ग के लोगों ने भी आम जनता को शिक्षा से दूर रखने हेतु कई षडयंत्र रचते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा के अभाव में आम आदमी सामाजिक तथा राजनीति दोनों स्तरों पर पिछड़ता चला गया। शंकर शेष ने ‘एक और द्रोणाचार्य’ नामक [[नाटक]] में शिक्षा जगत में बढ़ते राजनैतिक दबाव का वर्णन किया है, जिसके चलते नौजवान पीढ़ी का भविष्य अधंकारमय हो गया। नाटककार ने शिक्षकों की उदासीनता पर तीखा कटाक्ष किया है। वह शिक्षक आर्थिक राजनैतिक दबावों के चलते हार मान लेते हैं। पौराणिक कथा का सहारा लेकर वह आज की व्यवस्था के चारण बन जाने वाले अध्यापक की त्रासदी को नाटक के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की है। [[नाटक]] में आज की व्यवस्था में शिक्षक वर्ग में तेज़ीसे पनप रही सुविधिजीवी प्रवृत्ति के कारण व्यवस्था से जुड़ने की विसंगति, जिससे जाने-अनजाने देश की भावी पीढ़ी का भविष्य अन्धकारग्रस्त हो जाता है, का अकंन किया गया है। शिक्षा जगत में पक्षपातपूर्ण रवैये का उजागर किया गया है।<ref>{{cite web |url=https://www.sahityakunj.net/LEKHAK/P/PushpaMeena/Shankar_Shesh_ke_naaTkon_mein_saamaajik_ShodhAlekh.htm |title= शंकर शेष के नाटकों में राजनीतिक चेतना|accessmonthday=05 मार्च |accessyear=2017 |last= मीना|first=पुष्पा|authorlink= |format= |publisher=apnimaati.com |language=हिन्दी }}</ref> | |||
====नाटक 'घरौंदा' पर फ़िल्म निर्माण==== | |||
कॉलेज के अध्यापन के दौरान छात्रों के जो स्वानुभव, परानुभव को शंकर शेष ने देखा, परखा और जिया, वे संवेदनशील मस्तिष्क में संग्रहित थे। उन्होंने आकार पाया था 'एक और द्रोणाचार्य' के रूप में। इसे पहले तराशा बी.वी.कारंथ ने, जिन्होंने नाट्य कार्यशाला के दौरान इस नाटक को चुना था। तत्पश्चात् पंडित सत्यदेव दुबे ने अपनी कार्यशाला में तराशा। [[पुणे]] की कार्यशाला में नाटक परिष्कृत हुआ और फिर खुले [[मुंबई]] मायानगरी के द्वार। [[भारतीय स्टेट बैंक]] में नियुक्ति अपने आप में चुनौती थी। उसे बड़ी सफलता से निभाकर अपने राजभाषा विभाग के प्रमुख अधिकारी के पद को शंकर शेष ने सार्थक बनाया। 'हिन्दी बैंकिंग शब्दकोश' का निर्माण किया। परिश्रम शंकर जी के और किर्ति किसी और को मिली। मुंबई में निवास की समस्या और मानव समुद्र में रहकर एकाकीपन को जब देखा तो 'घरौंदा' ने आकार पाया। [[नाटक]] पूरा करने के बाद उसे मित्रों को पढ़कर सुनाने की लेखक की आदत थी। भीमसेन खुराना ने सुना और फ़िल्म बनाने की योजना बनाई। 'घरौंदा' पहला नाटक था, जिसका मंचन बाद में हुआ, फ़िल्म पहले बनी।<ref name="a"/> | |||
==युग चेतना के कलाकार== | ==युग चेतना के कलाकार== | ||
शंकर शेष युग चेतना के कलाकार हैं, इसलिए उनकी रचनाओं में सामाजिक असंगतियों का खुला चित्रण हुआ है। 'रत्नगर्भ', 'रक्तबीज', 'बाढ़ का पानी', 'पोस्टर', 'चेहरे', 'राक्षस', 'मूर्तिकार', 'घरौंदा' जैसे [[नाटक]] सामाजिक यथार्थ को यथाकथित अनावृत्त करने वाली रचनाएँ हैं। इन नाटकों में नाटककार ने जहाँ एक ओर समकालीन मानव की त्रासदी, निराशा और घुटन का यथार्थ वर्णन किया है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक दायित्व का निर्वाह करते हुए मानवता को नए मूल्य और प्रतिमान देने का प्रयास भी किया है। नाटक की सफलता और सार्थकता उसके मंचन में देखी जा सकती है। | शंकर शेष युग चेतना के कलाकार हैं, इसलिए उनकी रचनाओं में सामाजिक असंगतियों का खुला चित्रण हुआ है। 'रत्नगर्भ', 'रक्तबीज', 'बाढ़ का पानी', 'पोस्टर', 'चेहरे', 'राक्षस', 'मूर्तिकार', 'घरौंदा' जैसे [[नाटक]] सामाजिक यथार्थ को यथाकथित अनावृत्त करने वाली रचनाएँ हैं। इन नाटकों में नाटककार ने जहाँ एक ओर समकालीन मानव की त्रासदी, निराशा और घुटन का यथार्थ वर्णन किया है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक दायित्व का निर्वाह करते हुए मानवता को नए मूल्य और प्रतिमान देने का प्रयास भी किया है। नाटक की सफलता और सार्थकता उसके मंचन में देखी जा सकती है। | ||
==व्यक्तित्व== | |||
शंकर शेष का वाचन व्यापक था। न केवल [[हिन्दी]] में वरन् मराठी, [[अंग्रेज़ी]] में उन्होंने बहुत पढ़ा। उनकी चिंतनशीलता उनके प्रत्येक [[नाटक]] में दिखाई देती है। नाटकों का हर पात्र पूरे चिंतन का परिपाक है। उनमें गुणग्राहयता कूट-कूट कर भरी थी। किसी के गुणों की सराहना कर उसके गुणों को विकसित करने में वे हर संभव सहायता करते थे। शंकर शेष स्वभाव से सरल और कर्मठ थे वे। मित्रता पर जान छिड़कते थे। बच्चों के लिए [[पिता]] कम मित्र अधिक थे। [[भारतीय स्टेट बैंक]] में जन संपर्क विभाग से प्रकाशित [[पत्रिका]] ‘कलींग’ का हिन्दी खंड वे ही संभालते थे। इस प्रकार कुशल प्रशासक, सफल नाटककार, [[कवि]] एवं कथाकार के आयाम शंकर जी के व्यक्तित्व के पहलू थे। | |||
==मृत्यु== | |||
शंकर शेष की मृत्यु [[28 नवम्बर]], [[1981]] को मात्र अड़तालीस वर्ष की आयु में हो गई। उनका निधन [[परिवार]], नाटय जगत्, फिल्म जगत् और बैंक, सबके लिए एक अपूर्णीय क्षति है। | |||
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08:21, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
शंकर शेष
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पूरा नाम | शंकर शेष |
जन्म | 2 अक्टूबर, 1933 |
जन्म भूमि | बिलासपुर, छत्तीसगढ़ |
मृत्यु | 28 नवम्बर, 1981 |
अभिभावक | पिता- नागोराव विनायक राव शेष, माता- सावित्री बाई शेष। |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | नाट्य लेखक |
मुख्य रचनाएँ | ‘फन्दी’, ‘एक था द्रोणाचार्य’, ‘रक्तबीज’, 'घरौंदा' आदि। |
भाषा | हिन्दी, मराठी, अंग्रेज़ी |
विद्यालय | नागपुर महाविद्यालय |
शिक्षा | बी.ए. ऑनर्स |
प्रसिद्धि | नाटककार |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | शंकर शेष स्वभाव से सरल और कर्मठ थे वे। मित्रता पर जान छिड़कते थे। बच्चों के लिए पिता कम मित्र अधिक थे। भारतीय स्टेट बैंक में जनसंपर्क विभाग से प्रकाशित पत्रिका ‘कलींग’ का हिन्दी खंड वे ही संभालते थे। |
बाहरी कड़ियाँ | 15:38, 5 मार्च 2017 (IST)
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इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
शंकर शेष (अंग्रेज़ी: Shankar Shesh, जन्म: 2 अक्टूबर, 1933, बिलासपुर; मृत्यु- 28 नवम्बर, 1981) हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार तथा सिनेमा कथा लेखक थे। वे नाटक साहित्य क्षेत्र के महत्वपूर्ण नाटककारों में से एक थे। समकालीन परिवेश और युगीन परिस्थितियों से उनके व्यक्तित्त्व की संवेदनशील का निर्माण हुआ था। शंकर शेष बहुआयामी प्रतिभाशाली लेखक के रूप में पहचाने जाते थे। वे मुम्बई में एक बैंक में हिन्दी अधिकारी थे। उनके ‘फन्दी’, ‘एक था द्रोणाचार्य’, ‘रक्तबीज’ आदि नाटकों से उनकी ख्याति बढ़ी थी। उनका शोध-प्रबंध ‘हिन्दी मराठी’ कहानीकारों के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित था। शंकर शेष अत्यन्त सहृदय और गुट-निरपेक्ष लेखक थे। उनके द्वारा रचित ‘घरोंदा’ कथा पर हिन्दी में एक प्रसिद्ध फ़िल्म भी बनी थी।
परिचय
शंकर शेष का जन्म 2 अक्टूबर, 1933 को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ था। उनके पिता का नाम नागोराव विनायक राव शेष और माता का नाम सावित्री बाई शेष था। नागोराव शेष की दो पत्नियां थीं। पहली जानकीबाई की मृत्यु के बाद सावित्रीबाई ने घर में प्रवेश किया। शंकर जी परिवार में चौथे क्रम पर थे। सबसे बड़े भाई बबनराव, बालाजीराव, तदुपरांत एक बहन आशा, जिसका ग्यारह वर्ष की आयु में निधन हो गया था। उसके पश्चात् शंकर जी, फिर एक बहन, जिसकी अल्पायु में मृत्यु हो गई थी। उनसे छोटे दो भाई विष्णु और डॉक्टर गोपाल हैं। विष्णु सारी जायदाद की देखभाल करते हैं। डॉक्टर गोपाल ने 'एनशियंट हिस्ट्री' में पी.एच.डी. की है और वे स्कूल में पढ़ाते हैं।[1]
शिक्षा तथा लेखन शुरुआत
शंकर शेष बचपन से कुशाग्र थे। शालेय जीवन से ही कविताएं करते थे। बिलासपुर में उन्होंने शालेय एवं इन्टरमीडिएट तक पढ़ाई की। तत्पश्चात् हिन्दी में बी.ए. ऑनर्स करने के लिए नागपुर के हिस्लॉप कॉलेज में प्रवेश लिया। नागपुर में अध्ययन के साथ अन्य दालान खुले। प्रमुख था आकाशवाणी। आकाशवाणी पर कविताएं तथा वार्ताएं प्रसारित होती थीं। वकृत्व में बचपन से कुशल थे। बी.ए. ऑनर्स करते ही उन्हें नागपुर महाविद्यालय, जो उस समय मॉरिस कहलाता था, लेक्चरर का पद मिला। अध्यापन के साथ-साथ काव्य लेखन एवं आकाशवाणी तथा समाचार पत्रों के लिए कहानियों का लेखन प्रारंभ हुआ। साथ ही पी.एच.डी. के लिए डॉक्टर विनय मोहन शर्मा के मार्गदर्शन में कार्य शुरू किया। उसी समय नाट्य प्रतियोगिता के लिए नाटक लिखा ‘मूर्तिकार’, जिसे मेडिकल कॉलेज के छात्रों ने खेला। निर्देशक थे के.के. मेहता। कॉलेज के लिए ‘विवाह मंडप’ भी लिखा। उस समय हिन्दी को राजभाषा घोषित किया था। हर क्षेत्र में हिन्दी के प्रयोग का आग्रह था। हिन्दी के हास्यास्पद प्रयोग समाज में दृष्टिगोचर हो रहे थे। उस विषय पर एक व्यंग्यात्मक नाटक लिखा- ‘हिन्दी का भूत’। उस समय उनका ‘नागपुरी हिन्दी’ लेख भी बड़ा लोकप्रिय हुआ। यहीं उन्होंने ‘रत्नगर्भा’, ‘तिल का ताड़’ और ‘बेटों वाला बाप’ नाटक लिखे। वे मंचित हुए और लोकप्रिय भी हुए।
सन 1958 में भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ। नागपुर महाराष्ट्र का एक हिस्सा बना। शंकर शेष ने मध्य प्रदेश में नौकरी करना बेहतर समझा। उन्हें रीवा में पदोन्नीत किया गया। नागपुर के इतने क्षेत्रों में फैला हुआ आदमी केवल रीवा के कॉलेज में सिमट गया। कविता जन्म लेती रही। कहानियां लिखी जाती रहीं। कालिदास समारोह में ‘शाकुंतल’ नाटक करने का अवसर मिला। एक ही वर्ष रहने के बाद पदोन्नीत हुई और शहडोल जाने का अवसर आया, नये सिरे से सब कुछ प्रारंभ हुआ। शहडोल में प्रारंभ में पढ़ने-लिखने का वातावरण नहीं था। छात्रों में पढ़ने के अलावा राजनीति में रूचि थी। यहां ‘एक और द्रोणाचार्य’ नाटक की पृष्टिभूमि मस्तिष्क में बनती गई। कुमार गंधर्व के शिष्य पंढरपुरकर और उनके शिष्य ढोलकिया के साथ संगीत की महफिलें सजने लगीं। कविताओं में गेयता आने लगी। ‘संगी चल भिलाई जावो’ यहीं की रचना है। शंकर जी के साथ कुछ ऐसा संयोग था कि तीन वर्ष से अधिक वे एक मकान में रहे नहीं। शहडोल के पाँच वर्ष के निवास में तीन मकान बदले गए। प्रोफेसर कॉलोनी के घर में एक नया आयाम जुड़ा। कॉलेज में नाटक होने लगे। उनका ‘हिन्दी का भूत’ और ‘तिल का ताड़’ मंचित हुआ।
नाट्य विषय
डॉ. शंकर शेष के नाटकों में जाति व्यवस्था के नाम पर होने वाले अत्याचारों का यथार्थ चित्रण हुआ है। भारतीय समाज की छुआछूत जैसी कुप्रथा से संबंधित कई प्रश्न उन्होंने उठाए हैं। सभ्य समाज में जाति व्यवस्था आज भी विद्यमान है। आज भी सवर्ण जाति के लोग मंदिर पर अपना ही वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं और मंदिरों में शूद्र का प्रवेश मना है। यदि कोई मंदिर में प्रवेश करने का साहस करता है तो उसे गाँव से बहिष्कृत करने का दंड दिया जाता है। इस कथन का प्रमाण "बाढ़ का पानी" में पंडित और छीतू के संवाद से स्पष्ट होता है- "तुम्हारे बेटे ने धरम का नाश किया। पच्चीस हरिजनों को लेकर जो भगवान के मंदिर में घुस गया और भगवान को छू लिया।" गाँव में बाढ़ आने पर चमार जाति का नवल ठाकुर को बचाने जाता है, फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ा रहता है। इसका प्रमाण "बाढ़ का पानी" नाटक में गणपत के संवाद में मिलता है। जातीय विषमता आधुनिक काल में ही नहीं, महाभारत काल में भी देखने को मिलती है। इसका प्रमाण "कोमल गांधार" में भीष्म और संजय के कथन से स्पष्ट होता है। "अरे मायावी सरोवर" में राजा और ऋषि के कथन से ब्राह्मण और क्षत्रिय जाति के आपस के वर्चस्व का स्पष्ट होता है, और "एक और द्रोणाचार्य" में द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य से अंगूठे की माँग, इसी जाती-पाँति व्यवस्था की अगली कड़ी है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के प्रति परिवर्तित दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। "पढ़ना ठाकुरों का काम है भौजी, हम चमारों का नहीं। हमरी कुण्डली में तो बस जूते बनाना और जूते खाना ही लिखा है।" इस संवाद में एक हरिजन या चमार जाति के व्यक्ति की पढ़ने या शिक्षित होने की कठिनाइयों को यथार्थ चित्रण किया गया है।[2]
'फंदी' नाटक के माध्यम से नाटककार डॉ. शंकर शेष न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य करते नज़र आते हैं। फन्दी नाटक का नायक है और अंत तक संघर्षशील और जूझता नज़र आता है। लेकिन उसकी नियति अनिर्णयात्मक संशय में स्थगित हो जाती है। अपने कैंसर पीडित बाप के दर्द के मारे माँगने पर वह उनका गला घोंट देता है। इस कथन के माध्यम से नाटककार ने पुरानी क़ानूनी व्यवस्था को बदलने की घोषणा की है- "क़ानून यदि स्थिर और पत्थर के समान जड़ हो जाय तो समाज की बदलती हुई परिस्थितियों में वह न्याय नहीं दे सकता है।" क़ानून मनुष्य के लिए है, मनुष्य क़ानून के लिए नहीं है। इसीलिए क़ानून हमेशा नई चुनौतियों को स्वीकरते हुए आगे बढ़ना चाहिए। यहाँ फन्दी का मुक़दमा भी इसी तरह की एक नई चुनौती है।
एक और द्रोणाचार्य

आधुनिक शिक्षा जगत में फैले भ्रष्टाचार का भी शंकर शेष ने अपने नाटकों मे ज़िक्र किया है। गाँव के लोग आज भी मूलभूत शिक्षा से कोसो दूर है। आज के राजनेताओं के साथ धनाढ्य वर्ग के लोगों ने भी आम जनता को शिक्षा से दूर रखने हेतु कई षडयंत्र रचते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा के अभाव में आम आदमी सामाजिक तथा राजनीति दोनों स्तरों पर पिछड़ता चला गया। शंकर शेष ने ‘एक और द्रोणाचार्य’ नामक नाटक में शिक्षा जगत में बढ़ते राजनैतिक दबाव का वर्णन किया है, जिसके चलते नौजवान पीढ़ी का भविष्य अधंकारमय हो गया। नाटककार ने शिक्षकों की उदासीनता पर तीखा कटाक्ष किया है। वह शिक्षक आर्थिक राजनैतिक दबावों के चलते हार मान लेते हैं। पौराणिक कथा का सहारा लेकर वह आज की व्यवस्था के चारण बन जाने वाले अध्यापक की त्रासदी को नाटक के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की है। नाटक में आज की व्यवस्था में शिक्षक वर्ग में तेज़ीसे पनप रही सुविधिजीवी प्रवृत्ति के कारण व्यवस्था से जुड़ने की विसंगति, जिससे जाने-अनजाने देश की भावी पीढ़ी का भविष्य अन्धकारग्रस्त हो जाता है, का अकंन किया गया है। शिक्षा जगत में पक्षपातपूर्ण रवैये का उजागर किया गया है।[3]
नाटक 'घरौंदा' पर फ़िल्म निर्माण
कॉलेज के अध्यापन के दौरान छात्रों के जो स्वानुभव, परानुभव को शंकर शेष ने देखा, परखा और जिया, वे संवेदनशील मस्तिष्क में संग्रहित थे। उन्होंने आकार पाया था 'एक और द्रोणाचार्य' के रूप में। इसे पहले तराशा बी.वी.कारंथ ने, जिन्होंने नाट्य कार्यशाला के दौरान इस नाटक को चुना था। तत्पश्चात् पंडित सत्यदेव दुबे ने अपनी कार्यशाला में तराशा। पुणे की कार्यशाला में नाटक परिष्कृत हुआ और फिर खुले मुंबई मायानगरी के द्वार। भारतीय स्टेट बैंक में नियुक्ति अपने आप में चुनौती थी। उसे बड़ी सफलता से निभाकर अपने राजभाषा विभाग के प्रमुख अधिकारी के पद को शंकर शेष ने सार्थक बनाया। 'हिन्दी बैंकिंग शब्दकोश' का निर्माण किया। परिश्रम शंकर जी के और किर्ति किसी और को मिली। मुंबई में निवास की समस्या और मानव समुद्र में रहकर एकाकीपन को जब देखा तो 'घरौंदा' ने आकार पाया। नाटक पूरा करने के बाद उसे मित्रों को पढ़कर सुनाने की लेखक की आदत थी। भीमसेन खुराना ने सुना और फ़िल्म बनाने की योजना बनाई। 'घरौंदा' पहला नाटक था, जिसका मंचन बाद में हुआ, फ़िल्म पहले बनी।[1]
युग चेतना के कलाकार
शंकर शेष युग चेतना के कलाकार हैं, इसलिए उनकी रचनाओं में सामाजिक असंगतियों का खुला चित्रण हुआ है। 'रत्नगर्भ', 'रक्तबीज', 'बाढ़ का पानी', 'पोस्टर', 'चेहरे', 'राक्षस', 'मूर्तिकार', 'घरौंदा' जैसे नाटक सामाजिक यथार्थ को यथाकथित अनावृत्त करने वाली रचनाएँ हैं। इन नाटकों में नाटककार ने जहाँ एक ओर समकालीन मानव की त्रासदी, निराशा और घुटन का यथार्थ वर्णन किया है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक दायित्व का निर्वाह करते हुए मानवता को नए मूल्य और प्रतिमान देने का प्रयास भी किया है। नाटक की सफलता और सार्थकता उसके मंचन में देखी जा सकती है।
व्यक्तित्व
शंकर शेष का वाचन व्यापक था। न केवल हिन्दी में वरन् मराठी, अंग्रेज़ी में उन्होंने बहुत पढ़ा। उनकी चिंतनशीलता उनके प्रत्येक नाटक में दिखाई देती है। नाटकों का हर पात्र पूरे चिंतन का परिपाक है। उनमें गुणग्राहयता कूट-कूट कर भरी थी। किसी के गुणों की सराहना कर उसके गुणों को विकसित करने में वे हर संभव सहायता करते थे। शंकर शेष स्वभाव से सरल और कर्मठ थे वे। मित्रता पर जान छिड़कते थे। बच्चों के लिए पिता कम मित्र अधिक थे। भारतीय स्टेट बैंक में जन संपर्क विभाग से प्रकाशित पत्रिका ‘कलींग’ का हिन्दी खंड वे ही संभालते थे। इस प्रकार कुशल प्रशासक, सफल नाटककार, कवि एवं कथाकार के आयाम शंकर जी के व्यक्तित्व के पहलू थे।
मृत्यु
शंकर शेष की मृत्यु 28 नवम्बर, 1981 को मात्र अड़तालीस वर्ष की आयु में हो गई। उनका निधन परिवार, नाटय जगत्, फिल्म जगत् और बैंक, सबके लिए एक अपूर्णीय क्षति है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 डॉ. शंकर शेष, संक्षिप्त परिचय (हिन्दी) shankarshesh.com। अभिगमन तिथि: 05 मार्च, 2017।
- ↑ बाबू, डॉ. पी. थामस। आलेख:डॉ.शंकर शेष के नाटकों में सामाजिक यथार्थ (हिन्दी) apnimaati.com। अभिगमन तिथि: 05 मार्च, 2017।
- ↑ मीना, पुष्पा। शंकर शेष के नाटकों में राजनीतिक चेतना (हिन्दी) apnimaati.com। अभिगमन तिथि: 05 मार्च, 2017।
बाहरी कड़ियाँ
- शंकर शेष (मराठी में)
- डॉ. शंकर शेष के नाटकों में रंगमंचीय सम्भावनाएं
- 'एक और द्रोणाचार्य' से किया व्यवस्था पर प्रहार
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