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स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन

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जैन दर्शन में स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है।

  • समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और विद्यानन्द ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।

न्याय विद्या

  • 'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है।
  • न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं[1], जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है।
  • न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।[2] इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।

आगमों में न्याय-विद्या

  • षट्खंडागम[3] में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है।
  • स्थानांगसूत्र[4] में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं-
  • प्रमाण-सामान्य; इसके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है।
  • हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-
  1. विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)
  2. विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)
  3. निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)
  4. निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)

इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-

  1. विधिसाधक विधिरूप[5] अविरुद्धोपलब्धि[6]
  2. विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि
  3. निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि
  4. निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि[7]

इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-

  1. अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।
  2. इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।
  3. यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।
  4. यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है।

अनुयोगसूत्र में[8] अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।

प्रमाण और नय

  • तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।[9] यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।
  • उपाय तत्त्व दो तरह का है-
  1. कारक,
  2. ज्ञापक।
  • कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है-
  1. उपादान और
  2. निमित्त (सहकारी)।
  • उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं।
  • न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना।
  • ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-
  1. प्रमाण[10] और
  2. नय[11]

प्रमाण-भेद

  • वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ने[12] प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है[13],अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने[14] *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है।
  • कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने[15] अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है।
  • वैशेषिकों की[16]तरह बौद्धों ने[17] भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है।
  • शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने[18], उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने[19]और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने[20] मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये-
  1. भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और
  2. प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)।

भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ[21] दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।

जैन न्याय में प्रमाण-भेद

  • जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र[22] और स्थानांग सूत्र में[23] चार प्रमाणों का उल्लेख है-
  1. प्रत्यक्ष
  2. अनुमान
  3. उपमान
  4. आगम
  • स्थानांग सूत्र में[24] व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है।
  • संभव है सिद्धसेन[25] और हरिभद्र के[26] तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो।
  • श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है[27] कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए।
  • दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में[28] मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं।
  • कुन्दकुन्द[29] के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।[30] इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार[31] के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-

मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्।
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।

इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है।

तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद

तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं[32]-

  1. स्मृति
  2. प्रत्यभिज्ञान
  3. तर्क
  4. अनुमान
  5. आगम

यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।

स्मृति

पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।[33]

प्रत्यभिज्ञान

अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते हैं। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए।

तर्क

जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है।

अनुमान

निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।[34] जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।

अनुमान के अंग:- साध्य और साधन

इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं-

  1. साध्य और
  2. साधन।
  • साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। अकलंकदेव ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-

साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172

  • साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-

साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।[35]' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है।

अविनाभाव-भेद

अविनाभाव दो प्रकार का है[36]-

  1. सहभाव नियम और
  2. क्रमभाव नियम।
  • जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है।

हेतु-भेद

इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।[37]

  • माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-
  1. उपलब्धि और
  2. अनुपलब्धि।
  • तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के-
  1. अविरुद्धोपलब्धि और
  2. विरुद्धोपलब्धि
  • अनुपलब्धि के-
  1. अविरुद्धानुपलब्धि और
  2. विरुद्धानुपलब्धि
  • इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं-
  • अविरुद्धोपलब्धि छह-
  1. व्याप्त,
  2. कार्य,
  3. कारण,
  4. पूर्वचर,
  5. उत्तरचर और
  6. सहचर।
  • विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं-
  1. विरुद्ध व्याप्य,
  2. विरुद्ध कार्य,
  3. विरुद्ध कारण,
  4. विरुद्ध पूर्वचर,
  5. विरुद्ध उत्तरचर और
  6. विरुद्ध-सहचर।
  • अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है-
  1. अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि,
  2. अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि,
  3. अविरुद्धकार्यानुपलब्धि,
  4. अविरुद्धकारणानुपलब्धि,
  5. अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि,
  6. अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और
  7. अविरुद्धसहचरानुपलब्धि।
  • विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है-
  1. विरुद्धकार्यानुपलब्धि,
  2. विरुद्धकारणानुपलब्धि और
  3. विरुद्धस्वभावानुपलब्धि।
  • इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16
  2. 'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2
  3. षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965
  4. 'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338
  5. धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण
  6. माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58
  7. डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3
  8. )डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी
  9. डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59
  10. डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण
  11. 'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1
  12. वैशेषिक सूत्र 10/1/3
  13. सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3
  14. न्यायसूत्र 2/2/1, 2
  15. प्रश. भा., पृ. 106-111
  16. वैशे. सू. 10/1/3
  17. दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4
  18. सांख्य का. 4
  19. न्याय सू. 1/1/3
  20. शावरभा. 1/1/5
  21. जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि.
  22. भगवती सूत्र 5/3/191-192
  23. स्थानांग सूत्र 338
  24. स्थानांग सूत्र 185
  25. न्यायाव. का 8
  26. अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215
  27. आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138
  28. भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डॉ. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी
  29. नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार
  30. यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3
  31. त.सू. 1/9, 10
  32. माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10
  33. विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी
  34. विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी
  35. परीक्षामुखसूत्र 3-15
  36. माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18
  37. माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक

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