मानवेन्द्र नाथ राय
मानवेन्द्र नाथ राय
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पूरा नाम | मानवेन्द्र नाथ राय |
अन्य नाम | नरेन्द्र नाथ भट्टाचार्य |
जन्म | 21 मार्च, 1887 |
जन्म भूमि | पश्चिम बंगाल |
मृत्यु | 26 जनवरी, 1954 |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | दार्शनिक, क्रान्तिकारी विचारक |
आंदोलन | 1905 ई. में 'बंगाल विभाजन' के विरुद्ध हुए आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। |
जेल यात्रा | 'कानपुर षड़यंत्र केस' में आपको छह वर्ष जेल की सज़ा हुई थी। |
विशेष योगदान | आपने भारत में 'कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। |
अन्य जानकारी | मानवेन्द्र नाथ राय सशक्त संघर्ष द्वारा भारत को विदेशी शासन से स्वतंत्र कराना चाहते थे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अनेक वर्षों तक जर्मनी, रूस, चीन, अमेरिका, मैक्सिको आदि देशों की यात्राएँ भी कीं। |
मानवेन्द्र नाथ राय (अंग्रेज़ी: Manavendra Nath Roy, जन्म- 21 मार्च, 1887 ई., पश्चिम बंगाल; मृत्यु- 26 जनवरी, 1954 ई.) वर्तमान शताब्दी के भारतीय दार्शनिकों में क्रान्तिकारी विचारक तथा मानवतावाद के प्रबल समर्थक थे। इनका भारतीय दर्शनशास्त्र में भी बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। मानवेन्द्र नाथ राय ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारी संगठनों को विदेशों से धन व हथियारों की तस्करी में सहयोग दिया था। सन 1912 ई. में वे 'हावड़ा षड़यंत्र केस' में गिरफतार भी कर लिये गए थे। इन्होंने भारत में 'कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। सन 1922 ई. में बर्लिन से 'द लैंगार्ड ऑफ़ इण्डियन इण्डिपेंडेंन्स' नामक समाचार पत्र भी इन्होंने निकाला। 'कानपुर षड़यंत्र केस' में उन्हें छह वर्ष की सज़ा हुई थी।
परिचय
मानवेन्द्र नाथ राय का जन्म 21 मार्च, 1887 को पश्चिम बंगाल के एक छोटे-से गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता धर्मपरायण व्यक्ति थे और धर्मप्रचार के द्वारा जीविकोपार्जन करते थे। राय का बाल्यकालीन नाम 'नरेन्द्र नाथ भट्टाचार्य' था, जिसे बाद में बदलकर उन्होंने 'मानवेन्द्र नाथ राय' कर लिया और इसी नाम से उन्होंने दर्शन तथा राजनीति के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की। यद्यपि उनका पालन पोषण धर्मपरायण परिवार में हुआ था, फिर भी बाल्यकाल से ही धर्म में उनकी आस्था नहीं थी।
क्रांतिकारी गतिविधियाँ
14 वर्ष की अल्पायु में ही वे भारत की स्वतंत्रता के लिये होने वाले क्रान्तिकारी आन्दोलनों में सम्मिलित हो गए थे। 1905 ई. में बंगाल विभाजन के विरुद्ध हुए आन्दोलन में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। वे सशक्त संघर्ष के द्वारा भारत को विदेशी शासन से स्वतंत्र कराना चाहते थे और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अनेक वर्षों तक जर्मनी, रूस, चीन, अमेरिका, मैक्सिको आदि देशों की यात्राएं भी कीं। इन देशों में वे अनेक महान् विचारकों तथा साम्यवादी नेताओं के सम्पर्क में आये। जिनके क्रान्तिकारी विचारों का उनके दर्शन पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। राय के दर्शन में भौतिकवाद, निरीश्वरवाद, व्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतंत्र, अंतर्राष्ट्रीयता और मानवतावाद का विशेष महत्त्व है।
भौतिक वस्तुवाद
अधिकतर भारतीय दार्शनिकों के विपरीत राय पूर्णत: भौतिकवादी तथा निरीश्वरवादी दार्शनिक थे। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या भौतिकवाद के आधार पर ही की जा सकती है। इसके लिए ईश्वर जैसी किसी इन्द्रियातीत शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्राकृतिक घटनाओं के समुचित प्रेक्षण तथा सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा ही उनके वास्वतिक स्वरूप और कारणों को समझा जा सकता है। विश्व का मूल तत्व भौतिक द्रव्य अथवा पुद्गल है और सभी वस्तुएँ इसी पुद्गल के विभिन्न रूपांतरण हैं, जो निश्चित प्राकृतिक नियमों के द्वारा नियंत्रित होते हैं। जगत् के मूल आधार इस पुद्गल के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की अंतिम सत्ता नहीं है। अपने दर्शन को परम्परागत भौतिकवाद से पृथक् करने के लिए राय उसे भौतिकवाद के स्थान पर 'भौतिक वस्तुवाद' की संज्ञा देते हैं। वे मानवीय प्रत्यक्ष को ही सम्पूर्ण ज्ञान का मूल आधार मानते हैं। इस सम्बन्ध में उनका स्पष्ट कथन है कि 'मनुष्य द्वारा जिस वस्तु का प्रत्यय सम्भव है, वास्तव में उसी का अस्तित्व है और मानव के लिए जिस वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान सम्भव नहीं है उसका अस्तित्व भी नहीं है।'
विचारधारा
अपनी इसी भौतिकवादी विचारधारा के आधार पर राय ईश्वर तथा आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उनका विचार है कि केवल आस्था पर आधारित तथाकथित इन्द्रियातीत सत्ताओं को मानदंड बनाकर इस विश्व की उत्पत्ति और उसके विकास की समुचित व्याख्या कभी नहीं कर सकते। अत: ऐसी कल्पित सत्ताओं के विचार का परित्याग करना बहुत ही आवश्यक है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड भौतिक परमाणुओं के संघात का परिणाम है, जिसका कोई रचयिता नहीं है। वैज्ञानिक विचारधारा विश्व के रचयिता के रूप में सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ ईश्वर की प्राक्कल्पना का समर्थन नहीं करती। इसी प्रकार शरीर से पृथक् तथा स्वतंत्र आत्मा की प्राक्कल्पना भी निराधार है, क्योंकि प्राणी की मृत्यु के पश्चात् उसका कुछ भी शेष नहीं रह जाता। जिसे आत्मा कहा जाता है, वह वास्तव में प्राणी की चेतना है, जो भौतिक परमाणुओं के संघात से ही उत्पन्न होती है। इस प्रकार राय ईश्वर के अस्तित्व के साथ-साथ आत्मा की सत्ता तथा अमरता का भी खंडन करते हैं और इसी कारण उन्होंने पुनर्जन्म के सिद्धांत को भी अस्वीकार किया है। वे पुनर्जन्म के सिद्धांत को प्रशासक वर्ग के समर्थक पुरोहितों की चातुर्यपूर्ण कल्पना मानते हैं, जो समाज में उनकी उच्च स्थिति को बनाये रखने के लिए ही की गई है। उनका विचार है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत समाज में नियतिवाद को जन्म देता है, जो मनुष्य को निष्क्रिय तथा पौरुषहीन बना देता है।
भौतिकवाद की प्राचीनता
भौतिकवाद की सुदीर्घ परम्परा का उल्लेख करते हुए राय कहते हैं कि भौतिकवादी विचारधारा उतनी ही प्राचीन है, जितना स्वयं मानवीय चिंतन। भारतीय तथा यूनानी विचारक बहुत प्राचीन काल से इस विचारधारा का समर्थन करते रहे हैं। हमारे वेदों तथा उपनिषदों में भी भौतिकवाद के मूल तत्व विद्यमान हैं, अपने इसी मत की पुष्टि के लिए राय 'उपनिषद सूत्र-2' से निम्नलिखित वाक्य उद्धृत करते हैं-
'कोई अवतार नहीं होता, न ईश्वर है, न स्वर्ग और न नरक, समस्त पारम्परिक धर्मशास्त्र का साहित्य दम्भी मूर्खों की कृति है।'
इसी प्रकार ऐपिक्यूरस, हेराक्लाइटस, ल्यूक्रिशिअस आदि अनेक प्राचीन यूनानी दार्शनिक भी भौतिकवाद का ही प्रबल समर्थन करते रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि भौतिकवाद बहुत प्राचीन विचारधारा है। राय का कथन है कि वर्तमान युग में मनुष्य की महान् वैज्ञानिक प्रगति भी इसी विचारधारा की पुष्टि करती है। उन्होंने भौतिकवाद के विरुद्ध अध्यात्मवादी दार्शनिकों के आरोपों का दृढ़तापूर्वक खंडन किया है। उनका मत है कि भौतिकवादी दर्शन 'खाओ, पियो और मौज करो' का दर्शन नहीं है, जैसा कि इसके विरोधी इसका उपहास करते हुए प्राय: कहा करते हैं। यह सत्य है कि भौतिकवाद तथाकथित पारलौकिक जीवन के काल्पनिक सुख के लिए वर्तमान जीवन के वास्तविक सुख के परित्याग का समर्थन नहीं करता, किन्तु उसका यह अर्थ नहीं है कि वह मनुष्य को आत्मकेन्द्रित तथा स्वार्थी हो जाने के लिए प्रेरित करता है। वस्तुत: भौतिकवादी दर्शन मनुष्य के सदगुणयुक्त शुभाचरण में कोई बाधा नहीं डालता। अत: राय के मतानुसार इस दर्शन के विरुद्ध आध्यात्मवादियों के आरोप निराधार हैं।
ज्ञान प्रक्रिया
अपनी उपर्युक्त भौतिकवादी विचारधारा के अनुरूप ही राय ने ज्ञान प्राप्ति की परीक्षा की व्याख्या की है। ये विज्ञानवाद तथा प्रत्ययवाद का खंडन करते हुए केवल वस्तुवाद के आधार पर ज्ञान की उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं। उनका विचार है कि इंद्रिय प्रत्यक्ष ही सम्पूर्ण मानवीय ज्ञान का आदि स्रोत है। हम अपने अनुभव के द्वारा ही भौतिक जगत् का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, आप्त-वाक्य हमें असंदिग्ध ज्ञान कभी नहीं प्रदान करते। इन्द्रिय प्रत्यय द्वारा हम वस्तुओं को उसी रूप में जानते हैं, जिस रूप में वे हैं। कांट के विपरीत राय का मत है कि 'वास्तविक जगत्' तथा 'प्रतीतिक जगत्' में कोई भेद नहीं है, हम अपने अनुभव द्वारा जिस जगत् को जानते हैं, वही वास्तविक जगत् है। इसी प्रकार के बकली के मत का भी खंडन करते हैं कि भौतिक वस्तुओं का अस्तित्व हमारे प्रत्ययों पर ही निर्भर है। राय का कथन है कि हम प्रत्ययों को नहीं बल्कि प्रत्यक्षत: बाह्य वस्तुओं को ही जानते हैं। बाह्य वस्तुओं का हमारे मन से पृथक् और स्वतंत्र अस्तित्व है, अत: ज्ञान मीमांसा की दृष्टि से बकली का यह मत दोषपूर्ण है कि अंतत: भौतिक जगत् का अस्तित्व हमारे मानसिक जगत् पर ही निर्भर है। राय के अनुसार बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व की व्याख्या के लिए ईश्वर की सत्ता का आधार लेना आवश्यक है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राय भौतिकवाद, इंद्रियानुभववाद तथा वस्तुवाद के प्रबल समर्थक हैं। परन्तु, जहाँ तक हमें ज्ञात है, उन्होंने इन तीनों दार्शनिक सिद्धांतों की अनेक बहुचर्चित कठिनाईयों का निराकरण करने के लिए कोई संतोषप्रद समाधान प्रस्तुत नहीं किया। उदाहरणार्थ, राय तथा अन्य भौतिकवादियों की इस मान्यता का समर्थन करना कठिन है कि चेतना की उत्पत्ति जड़ पुद्गल से ही हुई है। यह सत्य है कि अध्यात्मवादी भी चेतना की उत्पत्ति की संतोषजनक व्याख्या नहीं कर पाते, किन्तु इससे चेतना की उत्पत्ति के विषय में भौतिकवादियों के मत की सत्यता सिद्ध नहीं होती। इसके अतिरिक्त भौतिकवादियों कि यह मान्यता भी उचित प्रतीत नहीं होती कि ब्रह्मांड का अंतिम तत्व पुद्गल ही है। वर्तमान युग में स्वयं वैज्ञानिक भी ऊर्जा को ही अंतिम तत्व मानते हैं।
इसी प्रकार इंद्रियानुभववाद तथा वस्तुवाद भी ज्ञान प्रक्रिया की संतोषप्रद व्याख्या नहीं कर पाते। इसमें संदेह नहीं कि इंन्द्रिय अनुभव ज्ञान का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधार है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि ज्ञान प्रक्रिया में बुद्धि का कोई योगदान नहीं है। हम प्रत्यक्षों के द्वारा किसी वस्तु का ज्ञान तब तक प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक ये प्रत्यक्ष सुसंगठित न हों और उन्हें सुसंगठित करना बुद्धि का ही कार्य है, इंद्रिय अनुभव का नहीं। इसी कारण कांट ने ज्ञान के लिए इंद्रिय अनुभव के साथ-साथ बुद्धि के योगदान को भी अनिवार्य माना है। ज्ञान प्रक्रिया के सम्बन्ध में वस्तुवाद भी कोई संतोषप्रद सिद्धांत नहीं है।
दार्शनिक तथा मनोवैज्ञानिक विचार
अधिकतर समकालीन दार्शनिक तथा मनोवैज्ञानिक राय और कुछ अन्य वस्तुवादियों की इस मान्यता को स्वीकार नहीं करते कि हम वस्तुओं को प्रत्यक्ष जानते हैं और वे ठीक वैसी ही हैं, जैसी हम उन्हें जानते हैं। इन दार्शनिक तथा मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि हम केवल इंद्रिय संवेदनों का अनुभव करते हैं, जो बाह्य वस्तुओं से सम्बन्धित हमारे ज्ञान के आधारभूत तत्व हैं। इन इंद्रिय संवेदनों के बिना हम किसी बाह्य वस्तु को प्रत्यक्षत: नहीं जान सकते। इन इंद्रिय संवेदनों तथा बाह्य वस्तुओं के सम्बन्ध का स्वरूप और कारण क्या है, इस प्रश्न का कोई निश्चित एवं सर्वमान्य उत्तर देना बहुत कठिन है। राय की इस मान्यता का औचित्य भी संदिग्ध ही प्रतीत होता है कि हम सदा बाह्य वस्तुओं को ठीक उसी रूप में जानते हैं, जैसी वे वास्तव में हैं। हम इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि बाह्य जगत् सम्बन्धी हमारे ज्ञान पर हमारी मनोदशाओं तथा कुछ विशेष भौतिक परिस्थितियों का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में निश्चित रूप से यह कहना बहुत कठिन है कि बाह्य वस्तुएँ ठीक वैसी ही हैं, जैसी हम उन्हें विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न प्रकार से जानते हैं। इसके अतिरिक्त यदि राय के इस मत को स्वीकार कर लिया जाये कि इंद्रिय अनुभव ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत है तो हमारे ज्ञान की परिधि बहुत सीमित हो जायेगी। इसी कारण ज्ञान के लिए इंद्रिय प्रत्यक्ष के साथ-साथ शब्द तथा अनुमान को भी बहुत ही आवश्यक माना गया है। भौतिकवाद, इंद्रियानुभववाद तथा वस्तुवाद की उपर्युक्त कठिनाईयों से यह स्पष्ट है कि ये तीनों दार्शनिक सिद्धांत पूर्णत: संतोषप्रद नहीं हैं।
नैतिकता और धर्म
राय ने अपने भौतिकवादी दर्शन के अनुरूप ही नैतिकता और धर्म के विषय में विचार किया है। वे व्यक्ति तथा समाज के लिए नैतिक नियमों के महत्त्व के पूर्णत्व को स्वीकार करते हैं, किन्तु उनका मत है कि नैतिकता का स्रोत ईश्वर अथवा कोई अन्य इंद्रियातीत सत्ता नहीं है। इसी प्रकार मानसिक भय और कोई अन्य बाहरी दबाव भी वास्तविक नैतिकता का आधार नहीं हो सकता। सच्ची नैतिकता अंत:प्रेरित ही होती है और बौद्धिक प्राणी होने के कारण मनुष्य किसी तथाकथित देवी शक्ति का आधार लिए बिना स्वयं अपने जीवन में ऐसी नैतिकता का विकास कर सकता है। राय मार्क्सवादियों के इस मत को स्वीकार नहीं करते कि सामाजिक तथा राजनीतिक क्रान्ति के लिए सत्य, ईमानदारी, निष्ठा आदि सद्गुणों का परित्याग किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में वे स्पष्ट कहते हैं कि 'मैं इस विचार के साथ समझौता नहीं कर सकता कि क्रान्तिकारी सद्गुणों की सूची में सत्य, ईमानदारी तथा निष्ठा जैसे गुणों का कोई स्थान नहीं है।' राय के मतानुसार मनुष्य की स्वतंत्रता सर्वोच्च मूल्य है और यह स्वतंत्रता ही समस्त मूल्यों का स्रोत है। स्वतंत्रता के पश्चात् ज्ञान तथा सत्य का स्थान है और ये दोनों भी मनुष्य के नैतिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। असत्य, छल, कपट आदि अनैतिक उपायों के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की जा सकती।
भ्रान्त धारणाएँ
राय का कथन है कि मानव स्वभाव के सम्बन्ध में प्राय: दो भ्रान्त धारणाएँ प्रचलित हैं। प्रथम धारणा यह है कि मनुष्य स्वभावत: स्वार्थी है और दूसरी धारणा यह है कि वह ईश्वर तथा किसी अन्य आलौकिक शक्ति में अवश्य विश्वास करता है। इन दोनों भ्रांत धारणाओं अथवा इनमें से किसी एक धारणा के आधार पर मनुष्य के नैतिक जीवन की जो व्याख्या की जाती है, वह भ्रामक ही होगी। राय यह मानते हैं कि न तो स्वभावत: स्वार्थी है और न ईश्वर भक्त, अत: वे नैतिकता की स्वार्थवाद अथवा ईश्वरवाद पर आधारित व्याख्या को स्वीकार करते हैं। इनका विचार है कि नैतिकता का आधार मनुष्य की तर्कबुद्धि तथा अंत:प्रेरणा ही है, कोई बाह्य शक्ति नहीं। राय यह नैतिक दर्शन वर्तमान वैज्ञानिक युग के अनुरूप तथा युक्तिसंगत ही प्रतीत होता है।
पुनर्जन्म का सिद्धांत
मानवेन्द्र नाथ राय ईश्वर और आत्मा की सत्ता तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत को अस्वीकार करते हैं। ऐसी स्थिति में यह समझना कठिन नहीं है कि उनके भौतिकवादी दर्शन में धर्म के लिए कोई स्थान नहीं है। एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में उन्होंने यह अवश्य स्वीकार किया है कि प्राचीन काल से ही मानव समाज पर धर्म का व्यापक प्रभाव रहा है। राय के मतानुसार यह एक दु:खद तथ्य है कि मनुष्य अपने सामाजिक सम्बन्धों की अपेक्षा ईश्वर के साथ अपने सम्बन्ध के विषय में तथा अपने वर्तमान जीवन की अपेक्षा मृत्यु के पश्चात् अपने पारलौकिक जीवन के विषय में ही अधिक चिंतित रहा है। अधिकतर धार्मिक मान्यताएं तथा सिद्धांत केवल आस्था पर ही आधारित है, जिनके विषय में तर्क करना अनुचित है, अत: धर्म के फलस्वरूप मनुष्य का स्वतंत्र बौद्धिक चिंतन प्राय: कुंठित हो जाता है।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता
राय मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को विशेष महत्त्व देते हैं, क्योंकि उनके विचार में इस स्वतंत्रता के बिना व्यक्ति वास्तव में सुखी नहीं हो सकता। उनके राजनीतिक दर्शन का मूल आधार मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता से उनका तात्पर्य यह है कि मनुष्य के कार्यों तथा विचाराभिव्यक्ति पर राज्य एवं समाज द्वारा अनुचित तथा अनावश्यक प्रतिबंध न लगाये जाएं और समाज को उन्नति का साधन मात्र न मानकर उसके विशेष महत्त्व को स्वीकार किया जाये। इस सम्बन्ध में राय का मार्क्सवादियों से तीव मतभेद है, क्योंकि मार्क्सवाद में मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कोई स्थान नहीं है। अपनी युवावस्था में वे मार्क्सवाद से बहुत प्रभावित हुए थे, किन्तु बाद में उनके विचारों में परिवर्तन हुआ और वे इस विचारधारा को एकांगी तथा दोषपूर्ण मानने लगे।
मार्क्सवाद प्रणाली
रूस, चीन तथा अन्य साम्यवादी देशों में मार्क्सवाद पर आधारित शासन प्रणाली का विकास हुआ है। उसे राय समाज के लिए उपादेय नहीं मानते, क्योंकि इसमें व्यक्ति राज्य की प्रगति का साधान मात्र माना जाता है। और इस प्रकार उनकी महत्ता एवं स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं किया जाता है। साम्यवादियों के विपरीत राय के सामाजिक तथा राजनीतिक दर्शन का केन्द्र व्यक्ति है, जिसकी स्वतंत्रता के लिए वे सदैव उन अधिनायकवादी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहे जो मनुष्य को उस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करती है। उनका विचार है कि स्वतंत्रताकांक्षी सभी व्यक्तियों को इन शक्तियों के विरुद्ध संगठित रूप से निरन्तर संघर्ष करना होगा, अन्यथा व्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रह सकती। परन्तु यहीं यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि राय व्यक्ति की स्वतंत्रता को असीमित न मानकर सामाजिक हित द्वारा मर्यादित ही मानते हैं। समाज में रहते हुए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता के साथ-साथ दूसरों की स्वतंत्रता का भी सम्मान करना होगा, अत: किसी भी व्यक्ति को मनमाने ढंग से व्यवहार करने की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। ऐसी असीमित स्वतंत्रता वास्तव में व्यक्ति की स्वतंत्रता का निषेध करती है।
अंतर्राष्ट्रीयतावाद और मानवतावाद
राय मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ-साथ अतर्राष्ट्रीयतावाद के भी प्रबल समर्थक हैं। उनका विचार है कि वर्तमान युग में मानव समाज के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विभिन्न राष्ट्रों के नागरिकों में संकुचित राष्ट्रीयता की तीव्र भावना है, जो उन्हें सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए सोचने तथा प्रयास करने से रोकती है। प्रत्येक देश के नेता दूसरे देशों के हित की चिंता किये बिना केवल अपने देश की प्रगति के लिए ही प्रयत्न करते हैं। फलत: मानव समाज भिन्न-भिन्न टुकड़ों में विभक्त हो गया है, जो प्राय: एक दूसरे के विरुद्ध कार्य करते हैं। आज विश्व में जो संघर्ष, निर्धनता, बेरोज़गारी तथा पारस्परिक अविश्वास है, उसका मुख्य कारण यह संकुचित राष्ट्रीयता की भावना ही है। राय का मत है कि जब तक मानव जाति इस संकुचित राष्ट्रवाद से मुक्त नहीं होती तब तक इन समस्याओं का समाधान सम्भव नहीं है। विश्व में एकता और शांति तभी स्थापित हो सकती है। जब हम केवल अपने देश के हित की दृष्टि से नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण की दृष्टि से सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समस्याओं पर विचार करें। राय यह मानते हैं कि वर्तमान वैज्ञानिक युग में संकुचित, राष्ट्रवाद के लिए कोई स्थान नहीं है, क्योंकि इसके अनुसार आचरण करना अंतत: मानव जाति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। यही कारण है कि मानव समाज में अंतर्राष्ट्रीयता की भावना के विकास को विशेष महत्त्व देते हैं।
अंत में यहाँ 'नव मानवतावद' के विषय में भी राय के विचारों का उल्लेख है, जो उनके दर्शन की प्रमुख विशेषता है। राय ने अपने मानवतावादी दर्शन को 'नव मानवतावाद' अथवा 'वैज्ञानिक मानवतावाद' की संज्ञा दी है, क्योंकि वह मनुष्य के स्वरूप तथा विकास के सम्बन्ध में विज्ञान द्वारा उपलब्ध नवीन ज्ञान पर आधारित है।
राय के इस विज्ञानसम्मत नव मानवतावाद में ईश्वर अथवा किसी अन्य दैवी शक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। मनुष्य के लिए यह समझ लेना बहुत आवश्यक है कि वह स्वयं ही अपने सुख-दु:ख के लिए उत्तरदायी है और वही अपने भाग्य का निर्माता है, इसमें कोई दैवी शक्ति उसकी सहायता नहीं कर सकती। इस संसार में मनुष्य के जीवन की कहानी उसके शरीर के साथ ही समाप्त हो जाती है, अत: मोक्ष की परम्परागत अवधारणा मिथ्या एवं भ्रामक है। राय के मत के अनुसार हमें कल्पित पारलौकिक जीवन की चिंता किये बिना इसी संसार में मनुष्य की वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए वैज्ञानिक ढंग से प्रयास करना चाहिए। अंतत: इसी में सम्पूर्ण मानव जाति का कल्याण निहित है और मनुष्य के लिए यह व्यावहारिक मानवतावादी दर्शन ही वास्तव में सार्थक हो सकता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
विश्व के प्रमुख दार्शनिक |लेखक: श्री वेद प्रकाश वर्मा |प्रकाशक: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 684 |पृष्ठ संख्या: 475 |
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