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बच्चन सिंह
बच्चन सिंह
पूरा नाम बच्चन सिंह
जन्म 2 जुलाई, 1919
जन्म भूमि जौनपुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 5 अप्रैल, 2008
मृत्यु स्थान वाराणसी, उत्तर प्रदेश
अभिभावक पिता- श्री पुरुषोत्तम सिंह
मुख्य रचनाएँ 'आलोचक और आलोचना' बच्चन सिंह जी की अति महत्वपूर्ण पुस्तक मानी जाती है।
भाषा हिन्दी
विद्यालय उदय प्रताप कॉलेज तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से शिक्षा प्राप्त की।
प्रसिद्धि लेखक, साहित्यकार
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख कथा साहित्य , साहित्य, रामचन्द्र शुक्ल, भाषा, भारतेन्दु
पद प्रोफ़ेसर बच्चन सिंह 'हिमाचल विश्वविद्यालय' के कुलपति और जे.एन.यू. के अतिथि प्रोफ़ेसर रहे थे।
अन्य जानकारी बच्चन जी के व्यक्तित्व में नवीनता और प्राचीनता के गत्यात्मक शक्ति की पहचान करने की क्षमता है।

बच्चन सिंह (जन्म- 2 जुलाई, 1919 ई. जौनपुर, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 5 अप्रैल, 2008 वाराणसी, उत्तर प्रदेश) हिन्दी साहित्यकार, आलोचक एवं इतिहासकार थे। प्रोफ़ेसर बच्चन सिंह 'हिमाचल विश्वविद्यालय' के कुलपति और जे.एन.यू. के अतिथि प्रोफ़ेसर रहे थे।[1] बच्चन जी ने रीतिकाल से लेकर नयी कविता तक और भारतीय साहित्य सिद्धांत से लेकर पाश्चात्य साहित्य चिंतन तक अनेक विषयों, धाराओं और कृतियों का अपने विवेचन किया है।

परिचय

बच्चन सिंह का जन्म जौनपुर जिला (उत्तर प्रदेश) केराकत, तहसील ग्राम भदवार (भद्रसेनपुर) में आषाढ़ शुक्ल 5 संवत 1976 को हुआ था। इनके पिता श्री पुरुषोत्तम सिंह अपने क्षेत्र के कुलीन और सम्पन्न व्यक्ति थे। कृषक परिवार और जमींदारी के बीच विकसित व्यक्तित्व में सहजता के तत्त्व के प्रति एक लगाव है। प्रारंभिक शिक्षा जौनपुर में सम्पन्न करके बच्चन जी बनारस आ गये जहाँ से इन्होंने उच्चतम शिक्षा पूरी की। अध्ययन के समय में ही 'लोग जीवन' और लोग साहित्य के प्रति प्रगाढ़ रुचि के साथ-साथ साहित्य के प्रति जिज्ञासा का भाव भी व्यक्तित्व में निरंतर रसता रहा है। बनारस की विभिन्न साहित्यिक गोष्टियों और नागरी प्रचारिणी सभा के साथ इनका लगाव अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। 'हिन्दू इंटरमीडिएट कालेज' बनारस में अध्यापन करते समय भी बनारस से निकलने वाले 'समाज' 'जनवाणी' और 'आज' में बच्चन जी बराबर लिखते रहे। उस समय के लेखों में एक शतिशीलता का आभास लिखता मिलता है। इसके बाद आप वहीं से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में आ गये वहाँ रीडर होने के काफी अरसे बाद हिमालय प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष होकर चले गये और वहीं से अवकाश ग्रहण किया। बच्चन जी के व्यक्तित्व में नवीनता और प्राचीनता के गत्यात्मक शक्ति की पहचान करने की क्षमता है। रीतिकाल से लेकर नयी कविता तक और भारतीय साहित्य सिद्धांत से लेकर पाश्चात्य साहित्य चिंतन तक अनेक विषयों, धाराओं और कृतियों का अपने विवेचन किया है। इससे लगता है कि उनके व्यक्तित्व में समानुकूलता और गत्यात्मकता है।

कृतियाँ

  • कांतिकारी कवि निराला (147-48 ई.)
  • रीतिकालीन कवियों की प्रेमव्यंजना' (1958 ई.),
  • हिन्दी नाटक' (1958 ई.),
  • बिहारी का नया मूल्यांकन' (1960 ई.),
  • आलोचक और आलोचना' (1970 ई.),
  • समकालीन साहित्य आलोचन को चुनौती
  • हिन्दी आलोचना के बीज-शब्द (1985)

रचनात्मक दृष्टि

'कांतिकारी कवि निराला' निराला जी के काव्य पर पहली पुस्तक होते हुये भी रचनात्मक दृष्टि की समभ्र का प्रमाण प्रस्तुत करती है। निराला की 'राम की शक्ति पूजा', 'कुकुरमुत्ता' आदि कविताओं का रचनात्मक दृष्टि से मूल्यांकन करते हुए लेखक ने ऐतिहासिक समीक्षा पद्धति का भी आश्रय लिया है। कृतिवा रामायण का प्रभाव स्वीकार करते हुये लेखक ने प्रभाव और सृजन का आंतरिक सम्बन्ध प्राय: व्यक्त नहीं किया है,परंतु कविता का मूल्यांकन और उसकी संवेदनागत गहराई तत्त्वदर्शी दृष्टि से विवेचित है। व्यंगकविताओं में अनुभूति के विस्तार के प्रति संकेत भी है। 'कुकुरमुत्ता' को भाम्यवादी आग्रहों से मुक्त करके लेखक ने उसे यथार्थ के दर्द के रूप में, व्यवस्था और तथाकथित विद्रोही दोनों पर व्यंग्य के रूप में व्याख्यायित किया है। काव्य की समझ के लिए उसके संरचनात्मक घटकों का उपयोग और एक गेस्टाल्ट के रूप में नियोजन करके अनुभूति और संरचना की समतुलित स्थानों की संभाव्यता की खोज यहाँ बच्चनजी का ध्येय प्रतीत होता है। 'रीतिकालीन' से सम्बन्ध 'रीतिकालीन कवियों की प्रेमव्यंजना' और 'बिहारी का नया मूल्यांकन' में भी इस दृष्टि का प्रमाण है। पाश्चात्य और भारतीय काव्यशास्त्र के माध्यम से उन्होंने अपनी स्वतंत्र दृष्टि का विकास किया है और यहे कारण है कि इन दोनों पुस्तकों में वे सृजन और शिल्प में भेद कर सके हैं। रीतिकालीन कवियों की परिवेशगत अनुभूमि, सामंतीय वातावरण और काव्य सम्बन्धी दृष्टि को काम सम्बन्धी मनोविकारों और जीवन दृष्टियों के विवेचना के संदर्भ में समझते हुए आपने रीतिकाल के प्रति एक सही दृष्टि का परिचय दिया है। इसमें बाह्य उपकरणों को भूमिका के रूप में प्रस्तुत करके तीसरे, चौथे और सातवें अध्यायों में काव्य के माध्यम से रीतिकवियों की अनुभूति की समष्टिगत व्याख्या की गई है। 'बिहारी का नया मूल्यांकन' में टी. एम. इलियट इत्यादि का उद्धरण प्रस्तुत करते हुए लेखक ने बिहारी को सामंती कवि तो स्वीकार किया है परंतु दरबारी नहीं।

आलोचक और आलोचना

सैद्धांतिक समीक्षा की दृष्टि से 'आलोचक और आलोचना' एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इसमें लेखक ने पाश्चात्य आलोचना और भारतीय काव्यदृष्टि का सिद्धांत और सम्प्रदाय की दृष्टि से मूल्याकन किया है। वे मानते हैं कि आज की आलोचना के लिए सबसे जरूरी है आधुनिक मानवीय स्थिति के संदर्भ में भाषिक संरचना का विश्लेषण या प्रवर्तन न करके इस प्रकार सिद्धांत की भूमिका प्रस्तुत की हई है। प्लेटो, अरस्तू, लांजाइनस, टी. एस. इलियट, युंग आदि पाश्चात्य विद्वानों के मतों का उन्होंने न केवल विवेचना प्रस्तुत किया है परंतु उनकी समीक्षा भी की गई है। एक मत के माध्यम से मूल्यांकित करने के साथ ही साथ अपनी व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं। मूल्यबोध को तनाव से जोड़कर बिम्ब और अनुभूमि की समीकृत अवस्था से ऊपर उठ जाना उनकी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण है। बच्चजी का विचार है कि "नये आलोचक का कार्य संरचना और मूल्यबोध को संश्लेष में देखना है" आलोचक और आलोचना।[2] वे काव्य और उपन्यास की रचनात्मक परिकल्पना में मूलभूत अंतर स्वीकार करते हुए दोनों की आलोचना पद्धतियों को भिन्न मानते हैं। कविता और कथा के भिन्न टेकश्चर की ओर संकेत करते हुए यह स्वीकार करते हैं कि वास्तविकता और वैलक्षण्य का तनाव कथा साहित्य की विशेषता है जिसे मूल्यबोध से जोड़ा जा सकता है। भारतीय साहित्य सिद्धांतों की ऐतिहासिक व्याख्या के अतिरिक्त वक्रोक्ति इत्यादि की संरचनात्मक दृष्टि का संकेत करते हुए उन्होंने नगेन्द्र और शुक्ल जी की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि का संकेत किया है, चाहे यह भूमिका के रूप में हो। 'हिन्दी नाटक में रंगमंचीय दृष्टि के विवेचन की अपेक्षा अर्थप्रकृतियों इत्यादि का विवेचन है।' भारतेन्दु से लेकर भुनेश्वर तक की परिकल्पना का बदलाव और यथार्थ के प्रति विवेकी परंतु आग्रही दृष्टि का संकेत भी उन्होंने किया है। यद्यपि भुवनेश्वर के 'कारवाँ' के मूल्यांकन से प्रतीत होता है कि उनके मानस में अंग्रेज़ी साहित्य दृष्टि का प्रभाव अधिक है।

समीक्षादृष्टि

बच्चन सिंह की समीक्षादृष्टि गहन अध्ययन मनन के कारण निर्मल है। 'शुक्लजी की परम्परा के वे आलोचना हैं। समकालीन आलोचना की चुनौती' में 'गोदान', 'झूठा-सच', 'नदी के द्वीप' आदि का विवेचना उनकी गहरी अंतर्दृष्टि और साहित्यिक समझ का प्रमाण है। वे 'रचना' को केन्द्र मानकर आलोचना के वृत्त का निर्माण करते हैं और फिर वृत्त की परिधि से पर्त दर पर्त केन्द्र की ओर प्रस्थान। काव्य की अपेक्षा उनकी कथा साहित्य की आलोचना अधिक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक है।

निधन

बच्चन सिंह का निधन 5 अप्रैल, 2008 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. काशी के साहित्यकार (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 23 जनवरी, 2014।
  2. पृ-82
  3. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 |लेखक: डॉ. धीरेन्द्र वर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 365 |

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दीपिका6
बाबूराम सक्सेना
बाबूराम सक्सेना
पूरा नाम बाबूराम सक्सेना
जन्म 1897 ई.
जन्म भूमि लखीमपुर
मुख्य रचनाएँ 'अर्थ-विज्ञान (1951 ई.)', 'सामान्य भाषा-विज्ञान (1953 ई.)','दक्खिनी हिन्दी' (1943 ई.)
भाषा हिन्दी
प्रसिद्धि भाषावैज्ञानिक
नागरिकता भारतीय
पद रायपुर विश्व विद्यालय तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रहे।
अन्य जानकारी बाबूराम सक्सेना का प्रबन्ध हिन्दी के भाषावैज्ञानिकों के लिए आदर्श और मानक रूप में रहा है। भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक पक्षों पर भी इन्होंने विचार किया है।

बाबूराम सक्सेना (जन्म-1897 ई., लखीमपुर ) भारत के भाषावैज्ञानिक थे। बाबूराम विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग अध्यक्ष थे। प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय दृष्टिकोण होने के कारण भारतीय संस्कृति और हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में इनकी विशेष रुचि रही है।

परिचय

बाबूराम सक्सेना का जन्म 1897 ई. में लखीमपुर जिले में हुआ। इनकी शिक्षा एम. ए., डी. लिट. प्रयाग तथा काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में और लन्दन स्कूल ऑफ ओतियण्टल स्टडीज में हुई। बाबूराम जी शोध-प्रबन्ध 'अवधी का विकास' हिन्दी से सम्बद्ध पहला प्रबन्ध माना जाता है।

बाबूराम ने अनेक वर्षों तक प्रयाग विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग अध्यक्ष रहे। फिर कुछ समय तक सागर विश्वविद्यालय में भाषाविज्ञान विभाग के अध्यक्ष रहे। इसके बाद क्रमश: तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष और रायपुर विश्व विद्यालय के कुलपति तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। संस्कृत और भाषाविज्ञान दोंनों ही आपके कार्य की प्रमुख दिशाएँ हैं। हिन्दी के भाषावैज्ञानिकों में बाबूराम का नाम आग्रणी है। इनके उद्योग और प्रेरणा से हिन्दी क्षेत्र में भाषाविज्ञान सम्बन्धी कार्य हुआ। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, लिंग्विस्टिक सोसाइटी ऑफ इण्डिया, भारतीय हिन्दी-परिषद जैसी संस्थाओं में घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध रहे हैं और उनके अधिवेशनों की अध्यक्षता की है। प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय दृष्टिकोण होने के कारण भारतीय संस्कृति और हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में आपकी विशेष रुचि रही है।

डॉक्टर टर्नर का सहयोग

डॉक्टर सक्सेना का शोध-प्रबन्ध 'अवधी का विकास' अपने ढंग का पहला अध्ययन है। इंग्लैण्ड में रहकर प्रसिद्ध भाषाविज्ञानी डॉक्टर टर्नर के सहयोग में बाबूराम ने कार्य किया था। 'अवधी का विकास' में प्रयोगात्मक ध्वनि-विज्ञान के निष्कर्षों का प्रथम बार प्रयोग हुआ है। वस्तृत: आपका प्रबन्ध हिन्दी के भाषावैज्ञानिकों के लिए आदर्श और मानक रूप में रहा है। भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक पक्षों पर भी इन्होंने विचार किया है।[1]

कृतियाँ

  • अर्थ-विज्ञान (1951 ई.)
  • सामान्य भाषा-विज्ञान (1953 ई.)
  • दक्खिनी हिन्दी' (1943 ई.)
  • कीर्त्तिलता' (सम्पादन- 1930 ई.)
  • एवल्यूशन ऑफ अवशी' (अंग्रेजी में 1938 ई.)।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 |लेखक: डॉ. धीरेन्द्र वर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 377 |

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दीपिका6
जी.पी. श्रीवास्तव
जी.पी. श्रीवास्तव
पूरा नाम गंगाप्रसाद श्रीवास्तव
अन्य नाम गंगा बाबू
जन्म 23 अप्रैल 1889 ई.
जन्म भूमि सारन, बिहार
मृत्यु 30 अगस्त 1976 ई.
कर्म-क्षेत्र साहित्यकार, अभिनेता
मुख्य रचनाएँ 'कम्बी दाढ़ी' (1913 ई.), 'नाक झोक' (1919 ई.) आदि।
भाषा हिन्दी
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी गंगा बाबू को ‘साहित्य वारिधि’ व ‘साहित्य महारथी’ जैसे अलंकरण से विभूषित किया गया।

जी.पी. श्रीवास्तव (जन्म- 23 अप्रैल 1889 ई. सारन, बिहार; मृत्यु- 30 अगस्त 1976 ई.) हिन्दी साहित्यकार थे। गंगाप्रसाद अच्छे कथाकार, कहानीकार के अलावा एक बेहतर अभिनेता थे। कई नाटकों में उन्होंने सशक्त अभिनय किया है। उस दौरान श्रीवास्तव जी एकांकी के सशक्त अभिनेता थे। सरलता एवं अभिनय के गुण से परिपक्व, एकांकी लिखने में माहिर गंगा बाबू का नाम हिंदी के शुरुआती एकांकीकार के रूप में जाना जाता है। गंगा बाबू को ‘साहित्य वारिधि’ व ‘साहित्य महारथी’ जैसे अलंकरण से विभूषित किया गया।

परिचय

गंगाप्रसाद श्रीवास्तव का जन्म 23 अप्रैल 1889 ई. को छपरा, ज़िला सारन, बिहार प्रांत में हुआ था। हिन्दी के हास्य-रस के लेखकों में इनका प्रमुख स्थान है। जी.पी. श्रीवास्तव का पूरा नाम गंगाप्रसाद श्रीवास्तव भी है। हिन्दी के पाठकों में जी. पी. श्रीवास्तव के नाम से ही प्रसिद्ध हैं।

शिक्षा

श्रीवास्तव जी ने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए., एल-एल. बी. की परीक्षा पास करके गोण्डा ज़िला में वकालत की।

भाषा शैली

गंगाप्रसाद जी का हिन्दी के हास्य-रस के लेखकों में प्रमुख स्थान है। हास्य-रस की जिस परम्परा को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 'अन्धेर नगरी चौपट राजा' में स्थापित किया था, इन्होंने हास्य को उसी दिशा में विकसित किया है। गंगाप्रसाद प्रतिभा प्राय: सभी विधाओं में समान रूप से व्यक्त हुई है। नाटक, उपन्यास, कहानी, कविता एवं शुद्ध परिकल्पना के आधार पर गल्प भी इन्होंने लिखे हैं।

कृतियाँ

गंगाप्रसाद जी की कुल मिलाकर अब तक बाईस पुस्तकें प्रकाश में आ चुकी हैं। आपकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं-

  • कहानी संग्रह 'कम्बी दाढ़ी' 1913 ई. में प्रकाशित हुई।
  • नाटक 'उलट फेर' 1918 ई. को प्रकाशित हुआ।
  • काव्यसंग्रह 'नाक झोक' 1919 ई. प्रकाश में आया।
  • 1931 ई. में गंगाप्रसाद जी का प्रथम उपन्यास 'लतखोरी लाल' प्रकाशित हुआ जो आप के समय में बहुचर्चित उपन्यास रहा।
  • 1932 में दूसरा उपन्यास 'दिल की आग उर्फ दिल जले की आग' प्रकाशित हुआ।
  • 1953 में इनका एक नाटक 'बौछार' ने नाम से प्रकाशित हुआ था।[1]

निधन

गंगाप्रसाद श्रीवास्तव की मृत्यु- 30 अगस्त 1976 ई. को हुई थी।

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प्रारम्भिक
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 |लेखक: डॉ. धीरेन्द्र वर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 218 |

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