रोहिणीचंद्रशयन नाम के व्रत का उल्लेख 'मत्स्यपुराण'[1] में बड़े विस्तार से है[2] तक तथा 'पद्मपुराण'[3] में भी लगभग उसी प्रकार के श्लोक आये हैं। यहाँ चन्द्रमा के नाम से भगवान विष्णु की पूजा वर्णित है।
- यदि पूर्णिमा के दिन सोमवार हो अथवा रोहिणी नक्षत्र हो तो व्रती को पंचगव्य तथा सरसों के उबटन से स्नान करने के बाद ऋग्वेद का मंत्र 'आप्यायस्व'[4] 108 बार बोलना चाहिए तथा शूद्र व्रती को यह बोलना चाहिए- 'सोमाय नम: विष्णवे नम:'।
- व्रती को फल तथा फूलों से भगवान की पूजा करके सोम का नामोच्चारण करते हुए रोहिणी को प्रणाम करना चाहिए।
- व्रती को इस अवसर पर गोमूत्र का पान करना चाहिए।
- 28 विभिन्न पुष्प चंद्रमा को अर्पित करने चाहिए।
- यह व्रत एक वर्ष तक लगातार चलता रहना चाहिए।
- वर्ष के अन्त में पर्यङ्कोपयोगी वस्त्र तथा चंद्रमा और रोहिणी की सुवर्ण प्रतिमाओं के दान का विधान है।
- इस समय यह प्रार्थना भी करनी चाहिए कि हे विष्णो! जिस प्रकार आपको, जो सोमरूप हैं, छोड़कर रोहिणी कहीं नहीं जाती, उसी प्रकार समृद्धि मुझे छोड़कर कहीं न जाये।
- इस व्रत को पूर्ण करने से सौंदर्य, स्वास्थ्य, दीर्घायु के साथ-साथ व्रती चंद्रलोक प्राप्त करता है।
- कृत्यकल्पतरु तथा हेमाद्रि इस व्रत को 'चंद्ररोहिणीशयन' नाम से भी बतलाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 563 |
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