सर्वपितृ अमावस्या
सर्वपितृ अमावस्या
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अन्य नाम | 'पितृविसर्जनी अमावस्या', 'महालय समापन', 'महालय विसर्जन'। |
अनुयायी | हिन्दू तथा प्रवासी भारतीय |
उद्देश्य | पितृऋण से मुक्ति तथा घर में धन-धान्य, संतान प्राप्ति व सुख-समृद्धि हेतु। |
प्रारम्भ | वैदिक-पौराणिक |
तिथि | आश्विन माह की अमावस्या तिथि |
धार्मिक मान्यता | 'गरुड़पुराण' के अनुसार विभिन्न नक्षत्रों में किये गए श्राद्धों का फल भी भिन्न-भिन्न होता है। |
संबंधित लेख | श्राद्ध, पितृपक्ष, पितर, तर्पण |
विशेष | वेदों के ज्ञाता, श्रोत्रिय, मंत्र आदि का विशिष्ट ज्ञान रखने वाले ब्राह्मण ही श्राद्ध ग्रहण करने के योग्य माने जाते हैं। |
अन्य जानकारी | 'सर्वपितृ अमावस्या' पितरों को विदा करने की अंतिम तिथि होती है। 15 दिन तक पितृ घर में विराजते हैं और हम उनकी सेवा करते हैं। 'सर्वपितृ अमावस्या' के दिन सभी भूले-बिसरे पितरों का श्राद्ध कर उनसे आशीर्वाद की कामना की जाती है। |
सर्वपितृ अमावस्या आश्विन माह की अमावस्या को कहा जाता है। आश्विन माह का कृष्ण पक्ष वह विशिष्ट काल है, जिसमें पितरों के लिये तर्पण और श्राद्ध आदि किये जाते है। यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की तिथि होती है, किंतु आश्विन मास की अमावस्या 'पितृपक्ष' के लिए उत्तम मानी गई है। इस अमावस्या को 'सर्वपितृ अमावस्या' या 'पितृविसर्जनी अमावस्या' या 'महालय समापन' या 'महालय विसर्जन' आदि नामों से जाना जाता है। यूँ तो शास्त्रोक्त विधि से किया हुआ श्राद्ध सदैव कल्याणकारी होता है, परन्तु जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर सकें, उन्हें कम से कम आश्विन मास में पितृगण की मरण तिथि के दिन श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए।
पितरों का काल
भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से पितरों का काल आरम्भ हो जाता है। यह 'सर्वपितृ अमावस्या' तक रहता है। जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं कर पाते हैं और जिन पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके श्राद्ध, तर्पण इत्यादि इसी अमावस्या को किये जाते है। इसलिए सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितर अपने पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से विशेष रूप से आते हैं। यदि उन्हें वहाँ पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते हैं, जिससे आगे चलकर पितृदोष लगता है और इस कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।[1]
पितर विदा करने की अंतिम तिथि
सर्वपितृ अमावस्या पितरों को विदा करने की अंतिम तिथि होती है। 15 दिन तक पितृ घर में विराजते हैं और हम उनकी सेवा करते हैं। 'सर्वपितृ अमावस्या' के दिन सभी भूले-बिसरे पितरों का श्राद्ध कर उनसे आशीर्वाद की कामना की जाती है। 'सर्वपितृ अमावस्या' के साथ ही 15 दिन का श्राद्ध पक्ष खत्म हो जाता है। आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की समाप्ति के बाद अगले दिन से 'नवरात्र' प्रारंभ होते हैं। 'सर्वपितृ अमावस्या' पर हम अपने उन सभी प्रियजनों का श्राद्घ कर सकते हैं, जिनकी मृत्यु की तिथि का ज्ञान हमें नहीं है।[2] वे लोग जो किसी दुर्घटना आदि में मृत्यु को प्राप्त होते हैं, या ऐसे लोग जो हमारे प्रिय होते हैं किंतु उनकी मृत्यु तिथि हमें ज्ञात नहीं होती तो ऐसे लोगों का भी श्राद्ध इस अमावस्या पर किया जाता है।
महालय श्राद्ध
इस अमावस्या पर 'महालय श्राद्ध' भी किया जाता है। 'महा' से अर्थ होता है- 'उत्सव दिन' और 'आलय' से अर्थ है- 'घर' अर्थात कृष्ण पक्ष में पितरों का निवास माना गया है। इसलिए इस काल में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किए जाते हैं, जो 'महालय' भी कहलाता है। यदि कोई परिवार पितृदोष से कलह तथा दरिद्रता से गुजर रहा हो और पितृदोष शांति के लिए अपने पितरों की मृत्यु तिथि मालूम न हो तो उसे सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितरों का श्राद्ध-तर्पणादि करना चाहिए, जिससे पितृगण विशेष प्रसन्न होते हैं और यदि पितृदोष हो तो उसके प्रभाव में भी कमी आती है।
श्राद्ध के लिए ब्राह्मण की योग्यता
वेदों के ज्ञाता, श्रोत्रिय, मंत्र आदि का विशिष्ट ज्ञान रखने वाले ब्राह्मण श्राद्ध ग्रहण करने के योग्य माने जाते हैं। इन्हें ही भोजन कराने या दान देने से अक्षय फल की प्राप्ति होती है। भान्जे को भी भोजन कराया या दान दिया जा सकता है। मान्यता है कि एक भान्जा सौ वामन के बराबर होता है। रोगी, विकलांग, मांसाहारी, शराबी, चरित्रहीन, कुत्सित कर्म में जुटे तथा अवैष्णव को श्राद्ध में बुलाना अनुचित है। पितृ इनको श्राद्घ फल ग्रहण करते देखकर कष्ट पाते हैं।
तिल का प्रयोग
पितृ कार्य में तिल का प्रयोग ही उचित माना गया है। श्राद्ध कार्य में निमंत्रित ब्राह्मणों को मौन होकर भोजन करना चाहिए। भोजन लोहे के बर्तनों में नहीं खिलाना चाहिए। श्राद्ध करने वाले को सफेद वस्त्र ही पहनना चाहिए। साथ ही बैंगन की सब्जी भोजन में नहीं होनी चाहिए। सर्वपितृ श्राद्ध अपराह्न में ही किया जाता है। साथ ही श्राद्ध करने वाले परिवार को प्रसन्नता एवं विनम्रता के साथ भोजन परोसना चाहिए। संभव हो तो जब तक ब्राह्मण भोजन ग्रहण करें, तब तक पुरुष सूक्त तथा पवमान सूक्त आदि का जप होते रहना चाहिए। भोजन कर चुके ब्राह्मणों के उठने के पश्चात् श्राद्ध करने वाले को अपने पितृ से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए-
दातारो नोअभिवर्धन्तां वेदा: संततिरेव च॥
श्रद्घा च नो मा व्यगमद् बहु देयं च नोअस्तिवति।
अर्थात "पितृगण ! हमारे परिवार में दाताओं, वेदों और संतानों की वृद्घि हो, हमारी आप में कभी भी श्राद्ध न घटे, दान देने के लिए हमारे पास बहुत संपत्ति हो।" इसी के साथ उपस्थित ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा के साथ उन्हें दक्षिणा आदि प्रदान कर विदा करें। श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को बचे हुए अन्न को ही भोजन के रूप में ग्रहण कर उस रात्रि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। श्राद्ध प्राप्त होने पर पितृ, श्राद्ध कार्य करने वाले परिवार में धन, संतान, भूमि, शिक्षा, आरोग्य आदि में वृद्धि प्रदान करते हैं।
पुराण उल्लेख
'मनुस्मृति', 'याज्ञवलक्यस्मृति' जैसे धर्म ग्रंथों में ही नहीं, वरन् पुराणों आदि में भी श्राद्ध को महत्त्वपूर्ण कर्म बताते हुए उसे करने के लिए प्रेरित किया गया है। 'गरुड़पुराण' के अनुसार विभिन्न नक्षत्रों में किये गए श्राद्धों का फल निम्न प्रकार मिलता[2] है-
- कृत्तिका नक्षत्र में किया गया श्राद्ध समस्त कामनाओं को पूर्ण करता है।
- रोहिणी नक्षत्र में श्राद्ध होने पर संतानसुख
- मृगशिरा नक्षत्र में गुणों में वृद्धि
- आर्द्रा नक्षत्र में ऐश्वर्य
- पुनर्वसु नक्षत्र में सुंदरता
- पुष्य नक्षत्र में अतुलनीय वैभव
- आश्लेषा नक्षत्र में दीर्घायु
- मघा नक्षत्र में अच्छी सेहत
- पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में अच्छा सौभाग्य
- हस्त नक्षत्र में विद्या की प्राप्ति
- चित्रा नक्षत्र में प्रसिद्ध संतान
- स्वाति नक्षत्र में व्यापार में लाभ
- विशाखा नक्षत्र में वंश वृद्धि
- अनुराधा नक्षत्र में उच्च पद प्रतिष्ठा
- ज्येष्ठा नक्षत्र में उच्च अधिकार भरा दायित्व
- मूल नक्षत्र में मनुष्य आरोग्य प्राप्त करता है।
पितृऋण से मुक्ति का साधन
सामान्यत: जीव के जरिए इस जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते हैं। पुण्य का फल है स्वर्ग और पाप का फल है नरक। अपने पुण्य और पाप के आधार पर स्वर्ग और नरक भोगने के पश्चात् जीव पुन: अपने कर्मों के अनुसार चौरासी लाख योनियों में भटकने लगता है। जबकि पुण्यात्मा मनुष्य या देव योनि को प्राप्त करते हैं। अत: भारतीय सनातन संस्कृति के अनुसार पुत्र-पौत्रादि का कर्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता और पूर्वजों के निमित्त कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें, जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक में अथवा अन्य योनियों में भी सुख की प्राप्ति हो सके। इसलिए भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म में पितृऋण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध करने की अनिवार्यता बताई गई है। वर्तमान समय में अधिकांश मनुष्य श्राद्ध करते तो हैं, मगर उनमें से कुछ लोग ही श्राद्ध के नियमों का पालन करते हैं। किन्तु अधिकांश लोग शास्त्रोक्त विधि से अपरिचित होने के कारण केवल रस्मरिवाज की दृष्टि से श्राद्ध करते हैं।
शास्त्रोक्त विधि से श्राद्ध
वस्तुत: शास्त्रोक्त विधि से किया हुआ श्राद्ध ही सर्वविधि कल्याण प्रदान करता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को श्रृद्धापूर्वक शास्त्रोक्त विधि से श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिए। जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर सकें, उन्हें कम से कम आश्विन मास में पितृगण की मरण तिथि के दिन श्राद्ध करना चाहिए। यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्य तिथि होती है, लेकिन आश्विन मास की अमावस्या पितरों के लिए परम फलदायी मानी गई है। इस अमावस्या को 'सर्वपितृ अमावस्या' अथवा 'महालया' के नाम से भी जाना जाता है। जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं कर पाते अथवा जिन पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है। शास्त्रीय मान्यता है कि अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से आते हैं। यदि उन्हें वहाँ पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती, तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते हैं, जिससे जीवन में पितृदोष के कारण अनेक कठिनाइयों और विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
श्राद्ध विधि
श्राद्धकर्ता पूर्वाभिमुख खड़ा होकर हाथ में तिल, त्रिकुश और जल लेकर यथाविधि संकल्प कर पंचबलि दानपूर्वक ब्राह्मण को भोजन कराए।
पंचबलि विधि
गो-बलि (पत्ते पर): मंडल के बाहर पश्चिम की ओर 'ऊं सौरभेय्य: सर्वहिता:' मंत्र पढ़ते हुए गो-बलि पत्ते पर दें तथा 'इदं गोभ्यो न मम्' ऐसा कहें।
श्वान-बलि
(पत्ते पर): यज्ञोपवीत को कंठी कर 'द्वौ श्वानौ श्याम शबलौ' मंत्र पढ़ते हुए कुत्तों को बलि दें 'इदं श्वभ्यां न मम्' ऐसा कहें।
काक बलि
(भूमि पर): अपसव्य होकर 'ऊं ऐद्रेवारुण वायण्या' मंत्र पढ़कर कौवों को भूमि पर अन्न दें। साथ ही इस मंत्र को बोलें–'इदं वायसेभ्यो न मम्'।
देवादि बलि
(पत्ते पर): सव्य होकर 'ऊं देवा: मनुष्या: पशवो' मंत्र बोलेते हुए देवादि के लिए अन्न दें तथा 'इदमन्नं देवादिभ्यो न मम्' कहें।
पिपीलाकादि बलि
(पत्ते पर): सव्य होकर 'पिपीलिका कीट पतंगकाया' मंत्र बोलते हुए थाली में सभी पकवान परोस कर अपसभ्य और दक्षिणाभिमुख होकर निम्न संकल्प करें-
'अद्याऽमुक अमुक शर्मा वर्मा, गुप्तोऽहमूक गोत्रस्य मम पितु: मातु: महालय श्राद्धे सर्वपितृ विसर्जनामावा स्यायां अक्षयतृप्त र्थमिदमन्नं तस्मै। तस्यै वा स्वधा।'
फिर ब्राह्मण भोजन का संकल्प निम्न मंत्र से करना चाहिए-
'पूर्वोच्चारित संकल्पसिद्धयर्थ महालय श्राद्धे यथा संख्यकान ब्राह्मणान भोजयिष्ठे।'
ऐसा संकल्प करके अन्नदान का संकल्प जल पितृतीर्थ से नीचे छोड़ दें। पुन: पूर्वाभिमुख होकर 'ऊं गोत्रं नो वर्धना दातारं नोऽभिवर्धताम्' मंत्र से ईश्वर से आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करें तथा ब्राह्मण को भोजन कराएँ।
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टीका टिप्पणी और सन्दर्भ
- ↑ क्या है सर्वपितृ अमावस्या का महत्त्व (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 18 सितम्बर, 2013।
- ↑ 2.0 2.1 समस्त पितरों को नमन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 18 सितम्बर, 2013।
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