पवित्रारोपण व्रत

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  • भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित हिन्दू धर्म का एक व्रत संस्कार है।
  • किसी देवता को पवित्र धागे से युक्त करना।[1]
  • हेमाद्रि[2], ईशानशिवगुरुदेवपद्धति[3], समयमयूख[4], पु॰ चिन्तामणि[5] आदि ने इस पर विस्तार से लिखा है।
  • पवित्रारोपण से सभी पूजाओं में किये गये दोषों का मार्जन हो जाता है, और जो इसे प्रतिवर्ष नहीं करता है उसे वांछित फलों की प्राप्ति नहीं होती है और वह विघ्नों से घिर जाता है।
  • विभिन्न देवों को पवित्रारोपण विभिन्न तिथियों में होता है।
  • वासुदेव के लिए श्रावण शुक्ल पक्ष की द्वादशी को किया जाता है, जबकि सूर्य सिंह या कन्या राशि में होता है, किन्तु उस समय नहीं जब कि सूर्य तुला राशि में हो।
  • देवों के लिए कुछ तिथियाँ ये हैं–प्रथमा (कुबेर के लिए), द्वितीया (त्रिदेवों के लिए), तृतीया (भवानी के लिए), चतुर्थी (गणेश के लिए), पंचमी (चन्द्र के लिए), षष्ठी (कार्तिकेय के लिए), सप्तमी (सूर्य के लिए), अष्टमी (दुर्गा के लिए), नवमी (माताओं के लिए), तथा दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमा क्रम से वासुकि, ऋषियों, विष्णु, कामदेव, शिव एवं ब्रह्मा के लिए।[6]
  • यदि कोई शिव को पवित्र का आरोपण प्रतिदिन करता है तो वैसा किन्हीं वृक्षों या पुष्पों की पत्तियाँ या कुशाओं से किया जाना चाहिए, किन्तु वार्षिक पवित्रारोपण की स्थिर तिथि है आषाढ़ (सर्वोत्तम), श्रावण (मध्यम) या भाद्रपद (निकृष्ट, तीसरी कोटी) की अष्टमी या चतुर्दशी
  • किन्तु जो लोग मोक्ष के आकांक्षी हैं, उन्हें इसे कृष्ण पक्ष में तथा अन्य लोगों को शुक्ल पक्ष में करना चाहिए।
  • पवित्र सोने, चाँदी, पीतल या रेशम या कमल के धागों से बन सकता है, या कुश या रुई का बन सकता है।
  • धागों को बुनना एवं काटना ब्राह्मण कुमारियों (सर्वोत्तम) या क्षत्रिय या वैश्य कुमारियों (मध्यम) या शूद्र कुमारियों (निकृष्ट) द्वारा हो सकता है। पवित्र में 100 गाँठें (उत्तम) तथा कम से कम 8 हो सकती हैं।
  • पवित्र का अर्थ है 'यज्ञोपवीत' और वह किसी सूत या जयमाला के रूप में देवों की प्रतिमाओं के लिए प्रयुक्त हो सकता है।

 

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हेमाद्रि (व्रत॰ 2, 440-453);
  2. हेमाद्रि (काल॰ 881-890
  3. ईशानशिवगुरुदेवपद्धति, 21वाँ पटल
  4. समयमयूख (81-90
  5. पु॰ चिन्तामणि (235-239
  6. देखिए हेमाद्रि (व्रत0 2, पृ0 442);पुरुषार्थचिन्तामणि (पृ0 238)।

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